शनिवार, 9 अप्रैल 2011

पेज-थ्री भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन उर्फ गंवाना मौका दूसरा जेपी बनने का

फुट नोट - अन्ना हजारे एवं साथियों के आंदोलन ने कई सालों से मेरे भीतर सोए पड़े एक्टिविस्ट को कुछ देर के लिए निश्चित रूप से जगा दिया। इस भाव को जान-बूझ कर कई सालों से मैं दबाता चला आ रहा था क्योंकि इससे उपजी उत्तेजना अगले कई दिनों तक मुझे असामान्य बनाए रखती है। लेकिन मेरे भीतर का एक्टिविस्ट फिर जग गया है .. चिर-विद्रोही मैं, थोड़े दिनों के लिए ही सही, फिर से सामने हूं। आप मेरी बातों का समर्थन करें या विरोध, वो आपकी भावना है और मैं उसका सम्मान करता हूं/करूंगा।


जी हां, अन्ना हजारे के आंदोलन के साथ ऐसा ही हुआ, ऐसा ही होने जा रहा है।

लोगों ने भरपूर समर्थन दिया इस आंदोलन को लेकिन ये तो बस इतनी सी बात को लेकर था कि आंदोलनकारियों द्वारा दिए गए जन लोकपाल बिल को सरकार मंजूरी दे। सरकार ने मंजूरी तो नहीं दी, बस एक कमिटी बना दी और आंदोलनकारियों के नेता वर्ग को उसका सदस्य बना दिया।

अब फिर से ये सारी बातें नौकरशाही के अंदाज में चलेंगी, मीटिंग पर मीटिंग, मीटिंग पर मीटिंग (सन्नी देओल के तारीख पर तारीख के ही अंदाज में) और नतीजा निकलेगा वही - ढ़ाक के तीन पात। नौकरशाही को सब्र रखना आता है, उसे ये पता है कि इस तरह के आंदोलनों से निपटने का सबसे अच्छा तरीका है - धैर्य। धीरज धरो, मामले को इतना लंबा खींच दो कि ये कभी खत्म न होने पावे (हरि अनंत, हरिकथा अनंता की तरह)। अब फिर से ये सारी बातें वर्षों तक सत्ता के गलियारों में मीटिंग्स के जरिए चलेंगी और चलती रहेंगी। नतीजा कुछ नहीं निकलने वाला।

मैं दुआ करूंगा कि मेरी बात झूठ निकले लेकिन मुझे उसके आसार कम ही नजर आते हैं। सत्ता तंत्र को पिछले कुछ सालों से काफी करीब से देखा और समझा है मैंने और मेरी समझ यही कहती है कि मुद्दा गया अब डस्टबिन में। ध्यान दीजिएगा कि जिस समिति को बनाने की घोषणा हुई है, उसको अपनी बातें और विचार-विमर्श खत्म करने के लिए कोई समय सीमा नहीं दी गई है।

मैं इसीलिए निराश हूं। मैंने इस आंदोलन का समर्थन अपनी सारे नकारात्मक धारणाओं के बावजूद किया था, क्योंकि इसके जरिए बदलाव की एक नई आशा की तलाश कर रहा था मैं। समय साक्षी है और रहेगा कि मेरी शंकाएं सत्य थीं और आगे भी रहेंगी।

निराश हूं क्योंकि मुझे लगा था कि बरसों बाद एक ऐसा मौका आया है जब भ्रष्टाचार या हमारी-आपकी रोज की कठिनाईयों पर सरकार को हिलाया जा सकता है। अन्ना हजारे साहब के आंदोलन को लगातार बढ़ते जा रहे जन समर्थन ने मेरी इस धारणा को पुष्ट ही किया था। चार दिनों से लगातार मैं इस बात का साक्षात्कार कर रहा था। कल शाम में तो विरोध के एक नए अंदाज को देख कर मैं आह्लादित हो उठा था। विरोध का नया अंदाज था लोगों को थाली-चम्मच बजाते हुए मार्च करना, मानों कह रहे हों कि मेरे घर का सारा राशन तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया, अब थाली-चम्मच बजाने के सिवाय कोई और रास्ता ही नहीं बचा।

लेकिन आंदोलन तो बस एक मुद्दे को लेकर था कि जन-लोकपाल बिल को मंजूर किया जाय। सरकार ने इसे मंजूर नहीं किया, बस एक समिति बना दी और आंदोलन के कर्ता-धर्ताओं ने आंदोलन समाप्ति की घोषणा कर दी। मानों इस आंदोलन के जरिए अन्ना हजारे एवं साथियों ने अपने को सत्ता तंत्र के सामने विज्ञापित किया कि मैं खरीदे जाने के लिए तैयार हूं, बस मेरे सामने हड्डी का एक टुकड़ा फेंक दो।

मुझे ऐसा ही होता दिख रहा है और इसका मुझे अफसोस है। ये बात अलग है कि अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी कह रही हैं कि ऐसा नहीं है और अगर ऐसा होता दिखा, तो फिर से आंदोलन का रास्ता अख्तियार करेंगे।

वाह, साहब, वाह। अरे एक बार भरोसा टूटने के बाद कोई आपका साथ देने आएगा? लोगों को आपने इतना बेवकूफ समझा है क्या आपने। लोगों या जनता का समर्थन आपको इसलिए मिला था कि उसे लगा था कि बरसों बाद अपनी पीड़ा को सही मंच पर अभिव्यक्त करने मौका मिला है। जनता इसीलिए आपसे जुड़ी थी और लगातार जुड़ रही थी। ये थाली-चम्मच मार्च अभिव्यक्ति की इसी नई भाषा को लेकर आया था और आपने उसे यूं ही जाने दिया।

होना तो ये चाहिए था कि आम जनता से मिले और लगातार मिल रहे समर्थन को भ्रष्टाचार और इस तरह के दूसरे मुद्दों के खिलाफ लगातार और दीर्घ समय तक चलने वाली लड़ाई के आधार के रूप में इस्तेमाल किया जाता। लेकिन ऐसा करना शायद आंदोलन के कर्ता-धर्ता चाहते ही नहीं थे। उन्हें तो हड्डी के उस टुकड़े से मतलब था जिसके फेंके जाने का वो इंतजार कर रहे थे। और इसीलिए ये आंदोलन दिशाहीन था और शायद इसीलिए ये आंदोलन हमारा 'ट्यूनीशिया मूवमेंट ऑफ विक्टरी' नहीं बन पाया या पाएगा। अपनी रोटी सेंक कर आंदोलन के कर्ता-धर्ता इससे अलग हो गए, भले ही इसके लिए उन्हें जनता को बरगलाना पड़ा हो।

अगर ये आंदोलन सही दिशा में जा रहा होता तो अन्ना हजारे को अनशन करने के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर की जरूरत नहीं पड़ती, अहमदनगर में बैठे-बैठे वो सत्ता तंत्र को हिला सकते थे (जैसे कि पटना में होते हुए जेपी ने इंदिरा सरकार को हिलाया था)। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आंदोलन तो हड्डी पाने के लिए था, वो मिल गया। अगर ऐसा नहीं होता तो अन्ना हजारे साहेब के आंदोलन के साथ-साथ देश के हर हिस्से में इस तरह के छोट-छोटे आंदोलन हो सकते थे और क्रमश: वो एक बड़े और निर्णायक आंदोलन की नींव रख सकते थे।

लेकिन ये तो पेज-थ्री आंदोलन था भ्रष्टाचार के खिलाफ, सत्ता के गलियारों में आकर विरोध जताना, मीडिया की चकाचौंध में अपनी बात रखना और हड्डी के टुकड़े को पाते ही इसके समापन की घोषणा कर देना।

ऐसा नहीं है कि मैं नहीं चाहता था या हूं कि अन्ना साहेब का अनशन खत्म हो। अनशन खत्म जरूर होना चाहिए, लेकिन आपको जिस प्रकार से जनता ने उनको समर्थन दिया, उसका सम्मान करते हुए उन्हें आंदोलन को एक दीर्घकालीन आंदोलन में बदल देना चाहिए था और ये आंदोलन तब तक चलना चाहिए था जबतक कि उसकी स्वाभाविक परिणति न हो जाए यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ जीत न मिल जाए। निश्चित तौर पर इस लड़ाई की स्वाभाविक परिणति एक समिति का गठन होना भर नहीं है।

सत्ता तंत्र इस बात को बखूबी समझता था और इसीलिए तो लड़ाई जिनके खिलाफ लड़ी जा रही थी, वो ही लोग इसके समर्थन में आ गए। तभी तो केंद्र सरकार का एक मंत्री इसके समर्थन में इस्तीफे की घोषणा करता है, और तभी तो पूरा कॉरपोरेट जगत कुंभकर्णी नींद से जागते हुए कहता है कि भ्रष्टाचार से हम भी त्रस्त हैं और आपकी लड़ाई को हम अपना समर्थन देते हैं।

होना ये चाहिए था कि अन्ना हजारे देश की जनता का आह्वान करते कि आप सब अपनी-अपनी जगह पर अपने-अपने तरीके से इस लड़ाई को आगे बढ़ाएं, छोटे-छोटे समूहों और गुटों में। थकें नहीं, डटे रहें, हम सब आपके साथ हैं और भरोसा दिलाते हैं कि हम भी पीछे नहीं हटेंगे। जन लोकपाल तो एक बहाना है, जब तक मूल मुद्दे का हल नहीं होगा तब तक हम पीछे नहीं हटेंगे। विश्वास कीजिए, अगर अन्ना हजारे इस तरह का आह्वान करते तो इस देश की जनता सड़कों पर आ जाती। लोग मानसिक रूप से इसके लिए तैयार हो ही रहे थे कि आंदोलन के समाप्ति की घोषणा कर दी गयी। इसलिए हमारे देश में वो 'ट्यूनीशिया मूमेंट ऑफ विक्टरी' नहीं आ पाया।

लेकिन फिर भी मैं मानता हूं कि जनता बेवकूफ नहीं होती। उसे नए-नए तरीकों से आप ठग सकते हैं लेकिन एक ही तरीके से दूसरी बार नहीं ठग सकते। न्याय-अन्याय की बात सबसे ज्यादा आम जनता ही समझती है क्योंकि उससे जुड़े हुए दुख-दर्दों को सबसे ज्यादा वही झेलती है। ये अलग बात है कि जनता राजनीतिज्ञों और बुद्धिजीवियों की तरह मंच बना कर अपनी बात नहीं रखती लेकिन जब भी उसे भरोसा करने लायक एक मंच मिलता है, वो अपनी बात निर्णायक रूप से रख देती है।

नहीं तो क्या मौजूदा सत्ता तंत्र को अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी और प्रशांत भूषण जैसे लोगों का डर था कि चार दिनों में ही समझौता करने को ये लोग तैयार हो गए। नहीं। ये उसी आम जनता का डर था, जिससे सत्ता तंत्र को झुकना पड़ा। सत्ता तंत्र सबसे ज्यादा आम जनता से ही डरता है और कोई भी शासन तंत्र आम जनता की आवाज को उठने नहीं देता, नहीं देना चाहता है।

आप बिठा दीजिए आडवाणीजी, बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर या ईमानदार कहलाने वाले खुद प्रधानमंत्री महोदय को आमरण अनशन पर। मुझे 200 प्रतिशत विश्वास है कि हम लोग, आम जनता, उनके अनशन का इस आंदोलन की तरह समर्थन नहीं करेगी। वजह इतनी है कि जनता अपने प्रति हो रहे न्याय-अन्याय की बात को सबसे अच्छे से जानती है और वो ये भी जानती है कि उसके प्रतिरोध को आवाज देने के लिए कौन सा मंच कब उभर रहा है और कौन उसकी बात को सबसे अच्छी तरह से रखेगा।

इसलिए मैं अपने कुछ मित्रों की तरह इस देश के भविष्य को अंधकारमय नहीं मानता हूं। मुझे देश का भविष्य अच्छा दिखता है, खास कर तब जब इस तरह के आंदोलन को जनता का समर्थन मिले। ठीक है कि जनता के समर्थन को एक व्यापक रूप अन्ना हजारे नहीं दे पाए, ये उनकी कमजोरी है और पहले से रही है। लेकिन फिर भी जनता ने अगर उनको अपनी सहानुभूति भी दी, और वो भी इतने बड़े पैमाने पर तो ये मुझे आशवस्त करता है कि देश का भविष्य अंधकारमय नहीं है। लेकिन, जैसा कि मैं कह रहा हूं कि ये आंदोलन दिशाहीन था, एक ही मुद्दे पर केंद्रित था और इसलिए मेरा इससे विरोध था और है। लेकिन मैं इसके समर्थन में भी था क्योंकि मुझे लगा था कि शायद जयप्रकाश आंदोलन के बाद शायद ये पहला ऐसा आंदोलन था, जिससे जनता अपने मन से जुड़ी।

जयप्रकाश नारायण से कई तरह का साम्य रखते हुए भी अन्ना हजारे ने दूसरा जेपी बनने का मौका खो दिया। यही उनमें और जयप्रकाश में अंतर है, था और रहेगा।

बहस इस बात पर भी की जा सकती है कि जेपी आंदोलन से ही देश को क्या मिला। सही बात है, हमें कुछ नहीं मिला और जनता उस समय भी ठगी गई थी। लेकिन इस तरह से आंदोलन के शुरूआत में ही नहीं। वो तो जेपी आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं ने बाद में जनता को ठगा (इस बार की तरह ही सत्ता तंत्र से फेंके गए हड्डी को लपक कर और बाद में वे सारे लोग शासक वर्ग का ही हिस्सा हो कर रह गए)।

इसलिए इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि इस बार भी वैसा नहीं होगा। लेकिन एक आशा थी कि शायद अतीत से सबक लेकर हम अपने वर्तमान और भविष्य को वैसा बनने से रोक पाएं। लेकिन इस बार के आंदोलन को तो विकसित होने देने से पहले खुद आंदोलनकर्ताओं ने ही कुचल दिया, तो फिर रोइए ज़ार-ज़ार क्यों, कीजिए हाय-हाय क्यों?

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