बुधवार, 3 दिसंबर 2008

मुंबई पर आतंकवादी हमला

ये मेरी प्रतिक्रिया का पहला हिस्सा है

मेरे कुछ मित्रों की प्रतिक्रिया -


मित्र 1 (गुस्से से भरा हुआ है बिल्कुल एंग्री यंग मैन की तरह.. कि प्रधानमंत्री या कोई
और नेता मिले तो कच्चा चबा जाए, टाइप से। उसके मुताबिक प्रधानमंत्री राष्ट्र को इस संकट
की घड़ी में कैसे संबोधित करेंगे) --

प्रधानमंत्री (दूरदर्शन पर बोलते हुए): प्यारे देशवासियों, इस संकट की घड़ी में आप अपनी, अपने बीवी-बच्चों-परिवारजनों और सामान की सुरक्षा स्वयं कर लें (जैसे कि रेलवे की एनाउंसर कहती है - यात्रीगण, कृप्या अपनी और अपने सामान की सुरक्षा खुद करें)। हमारे जैसे VVIPs के लिए NSG और SPG है।


मित्र 2 : इस हमले से 3 लोग बड़े खुश हुए होंगे - एक तो वे जिन्होंने ये हमला करवाया, दूसरे भाजपा वाले कि आतंक के सहारे 6 राज्यों में हो रहे चुनावों में उनकी नैया पार लग जाएगी और तीसरे टीवी मीडिया वाले कि चलो अब अगले कई दिनों का मसाला मिला॥ न्यूज़ का न्यूज़ और सनसनी अलग से। इसे भावना की चाशनी में मिला कर जब तक चाहो परोसते रहो।


मित्र 3 (27 नवंबर की रात को टीवी देखते हुए) - मुंबई का ELITE CLASS इन हमलों से क्यों दुखी है/क्यों गु्स्से में है? ॥ दरअसल जब-जब शहर में बाढ़ आई तो इन्होंने 5-स्टार होटलों का रूख किया ; जब-जब बिजली गुल हुई तो ये 5-स्टार होटलों की ओर भागे ; जब शहर में दंगे हुए तो इन्हें 5-स्टार होटलों ने बचाया। अबकी तो 5-स्टार होटलों पर ही हमला हो गया तो इन्हें कौन बचाएगा। अब तो इन्हें विदेश में ही बसना पड़ेगा, पर वहां इन्हें पूछेगा कौन?


मैं अपने तीसरे मित्र की बात से पूरी तरह इत्तेफाक नहीं रखता हूं फिर भी मुझे लगता है कि इन तीनों प्रतिक्रियाओं में दम है, गुस्सा है, क्षोभ है इस देश की जनता का। क्या ये पहली बार नहीं है कि आतंकी हमले हो गए और कहीं भी हिंदू-मुस्लिम दंगों की खबर नहीं है या उसकी बात नहीं हो रही है?

इस बार के हमले अलग हैं.. ये अलग हैं उन तमाम बम विस्फोटों से जो अब तक होते आए हैं। इसके सबसे निकट शायद भारतीय संसद पर हमला या 11 सितंबर को वर्ल्ड ट्रेड टावर को उड़ाने की घटनाएं आती हैं। बात ये नहीं है कि 200 से ज्यादा लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी॥बात ये है कि इस बार का हमला आतंक के सबसे विकराल रूप को लेकर आया है.. इस बार के सारे आतंकवादी बिल्कुल मिलिट्री कमांडोज़ की तरह ट्रेंड थे। अपने आत्मघाती अभियान में अधिकतम क्षति का लक्ष्य लेकर तो चले ही थे लेकिन साथ-साथ उन्हें ये भी पता था कि भारतीय कंमाडोज़ के साथ होने वाली लड़ाई में SURVIVE कैसे करना है। कैसे इसे लंबा खींचना है.. मीडिया का कैसे उपयोग करना है।

ये मॉडल कुछ सालों पहले तक बेरूत में होने वाले आतंकी हमलों की याद दिलाता है, जहां इसी तरह रात को सरेआम लोगों पर गोलियां बरसने लगती थीं और किसी बहुत ही महत्वपूर्ण इमारत को पहले बंधक और बाद में उड़ाने की कोशिश की जाती थी।


संकेत साफ हैं कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद संगठित हो रहा है/हो चुका है और बैनर तो एक ही है-

अल-कायदा का। अब उसके तले हम और आप चाहे जितने नाम देते रहें, लश्कर-ए-तय्यबा कहें या हरकत-उल-जिहाद(हूजी)। उद्देश्य सबके एक ही हैं - अंधेरा कायम रहे, आतंकवाद जारी रहे


बहरहाल इस घटना पर मैं कैसे रिएक्ट करूं ये पता नहीं है। मुझे खुद नहीं मालूम कि क्या भरा
पड़ा है मेरे भीतर - गुस्सा, क्षोभ, निराशा, नाराजगी, राजनीतिक तंत्र को फांसी पर लटका दो टाइप के जज्बात। पता नहीं है और अभिव्यक्त भी नहीं कर पा रहा हूं।


जब 26 नवंबर को आतंकवादी हमले की खबर आई, मैं दफ्तर से घर निकलने की तैयारी में था। ज़ी न्यूज़ और दूसरे चैनल इसे दिखाने लगे लेकिन किसी को पता नहीं था कि क्या हुआ/क्या हो रहा है? गैंगवार, बम विस्फोट से लेकर हर तरह की संभावनाएं न्यूज़ चैनल्स तलाश रहे थे। घर पहुंच कर पता चला कि ये आतंकवादी हमला है। थोड़े से अंतराल में 10 जगहों पर हमले हुए।


तब से तीन दिन टीवी पर ये तमाशा देखा.. तमाशा इसलिए क्योंकि हमारे टीवी चैनल्स के लिए लाइव टीवी या रियल्टी टीवी का ये बढिया मौका था और हर चैनल ने इसे जम कर भुनाया। भारत पर हुए हमले को हमारे चैनलों ने एक तमाशे में बदलने की भरपूर कोशिशें की .. जिस रिपोर्टर के मन में जो भी आता, वही बात वो दुहराता और सनसनी की चाशनी में डुबोने की कोशिश करता।


जब तक चैनल्स को ये बात सूझती कि उनका उपयोग किया जा रहा है, तब तक तो देर हो चुकी थी। आतंकियों के सरगना टीवी देख कर अपने गु्र्गों को उनके खिलाफ ली जा रही पोजीशन्स बताते रहे और शायद इसीलिए तीन घंटे की लड़ाई तीन दिन तक चली।

बात सनसनीखेज थी भी। हमने/आजाद भारत ने कभी नहीं देखा था ऐसा हमला। ये केवल मुंबई पर हमला नहीं था.. ये भारत पर हमला था, भारत की संप्रभुता पर हमला था।

इस बात को बीते हुए भी 3 दिन हो चुके हैं, चौथा दिन होने वाला है। लेकिन अभी तक क्षुब्ध हूं। किस से, किस पर ? पता नहीं .. शायद खुद पर/सरकार पर/राजनीतिक तंत्र पर .. पता नहीं है कि किस पर भरोसा किया जाय। क्षुब्धता के इसी दौर में सोमवार को दफ्तर जाने की इच्छा नहीं हुई .. छुट्टी ले ली। मन में एक भय है, आक्रोश है..

जब हमले हुए थे तो मेरी पहली प्रतिक्रिया थी कि इस देश के राजनीतिज्ञों ने हमारे खुफिया तंत्र को निकम्मा बना दिया है/राजनीति की चाशनी में डुबा दिया है। ऐसे में, किस से क्या उम्मीद की जाय? जिसकी जब इच्छा होगी, वो उस वक्त आएगा और हम पर हमला कर के चला जाएगा।


मन में भारी ऊहापोह है। जब अमिताभ बच्चन लिखते हैं कि उन्हें भरा हुआ .32 लाइसेंसी रिवॉल्वर सिरहाने रख कर सोने के बाद भी ढंग की नींद नहीं आई तो इसमें सच्चाई दिखती है। असुरक्षा की भावना इतनी सघन है।


लेकिन इसका जबाव क्या है?

अभी तो नहीं पता..