रविवार, 4 नवंबर 2007

ब्लोग के नखरे

ये ब्लोग भी अजीब चीज है। सुधारने बैठा जेएनयू वाले अपने पुराने पोस्ट को तो सारा का सारा फिर से पोस्ट हो गया। वह भी बस इसलिए कि कहीं किसी के ब्लोग पर ही पढा कि भाई जब किसी की चर्चा करें तो उससे जुडे हुए लिंक्स देने मे कंजूसी ना करे। वो ही लिंक्स लागने बैठे तो सारा फिर से पोस्ट हो गया। खैर कोई बात नहीं आगे से इसका भी ध्यान रखूंगा। बहरहाल, अब मंहगाई पर रिसर्च कर रह हूँ। अगली पोस्ट शायद वो ही होगी।

तब तक के लिए विदा होता हूँ।

धन्यवाद

चंद्रशेखर, जेएनयू और आज की छात्र राजनीति-3

इस तीसरी कड़ी में कुछ भी नया नहीं है, बस पिछले दो भागों का समापन है। लेकिन संयोगवश इंटरनेट पर सर्च को दौरान आनंद प्रधानजी का एक पुराना लेख छात्र राजनीति पर मिला। इसके लिंक को साथ जोड़ रहा हूं क्योंकि वो ज्यादा सारगर्भित है।

“Any man who is not a communist at the age of twenty is a fool. Any man who is still a communist at the age of thirty is an even bigger fool.” -George Bernard Shaw

.. धीरेःधीरे मेरे बिना किसी कोशिश के मुझे ABVP का मान लिया गया और तभी मैंने Alternative को तलाशा और ABVP से जुड़ गया। विद्यार्थी परिषद की विचारधारा मेरी आज भी नहीं है और जेएनयू के दिनों में भी परिषद के लोगों से मेरी बहस इसी बात पर होती रही। पता नहीं कितने तरीकों से मुझे संघ की विचारधारा से जोड़ने की कोशिशें हुईं और हर बार वे नाकाम रहे। जो मुझे अच्छा
लगता, वो ही मैं करता। लेकिन पार्टी-पॉलिटिक्स का अंग होने से अब मैं निष्पक्ष नहीं रह गया था और मेरी असहमति के बावजूद विद्यार्थी परिषद के फैसलों से मैं खुद को अलग नहीं कर सकता। हालांकि छात्र राजनीति से जुड़ने के अपने निर्णय से मैं कभी संतुष्ट नहीं रहा और इसलिए छात्रसंघ के चुनावों में सिवाय पहली बार के कभी भी किसी को वोट नहीं दिया (हर बार बैलेट पेपर खाली छोड़ कर आया)।

बाद में तो ये एक प्रकार की हॉबी हो गयी कि कैसे SFI-AISF के लोगों को प्रताड़ित कर सकूं ...बाद-विवाद से, चिल्ला कर, हंगामा कर या उनका मजाक बना कर। मारपीट से निजी तौर पर तो मैं दूर रहा लेकिन शायद मार-पीट की संस्कृति को जेएनयू में बड़े पैमाने पर फैलाने का काम विद्यार्थी परिषद और SFI-AISF के लोगों के बीच हुई झड़पों ने किया। यूं तो मेरे कई दोस्त कम्युनिस्ट थे.. हॉस्टल और कैम्पस दोनों में लेकिन ABVP, SFI-AISF एक-दूसरे को झेलने को एकदम तैयार नहीं थी और हर दूसरी चौथी बात पर मार-पीट होना आम बात हो गयी थी। फिर होता ताकत का प्रदर्शन यानी प्रोसेशन-मशाल जुलूस-डाउन-डाउन का दौर ...

जेएनयू को याद करें तो गंगा ढ़ाबा को नहीं भूला जा सकता है, जो सारी गतिविधियों का केंद्र था। दो-दो, तीन-तीन बजे तक हम वहां बहस करते और अक्सर बहस के लिए बहस करते। लेकिन Polititcal Strategies बंद कमरों में ही बनतीं ।

NSUI जेएनयू में तो Non-Existant थी लेकिन DU में विद्यार्थी परिषद और NSUI के बीच ही सीधा मुकाबला होता था। आश्चर्यजनक ढंग से मैंने अपने को जेएनयू के बाहर की गतिविधियों से बचाये रखा लेकिन मैं मानता हूं कि DU में ABVP-NSUI ने जो गंध मचायी उसने वर्तमान छात्र राजनीति की रीढ़ तोड़ कर रख दी। पैसे का खेल तो DU में पहले भी होता था , लेकिन नंगा नाच उसी समय में शायद शुरू हुआ। देश के बाकी हिस्सों की भांति ही DU में कम्युनिस्ट मुट्ठी भर ही हैं और उस समय भी रहे। एक अच्छे नेतृत्व का अभाव या जेएनयू जैसा क्लोज़्ड कैम्पस न होने की विवशता या DU की Elitist Mentality ... वजह बहुत सारे हैं

और इसलिए वहां साम्यवाद नहीं ठहर पाया, जबकि ABVP या NSUI जैसे छात्र संगठनों का छात्र आंदोलन खड़ा करने की कभी नीयत ही नहीं रही। इन्हें बस वोटर्स चाहिए थे जो पैसे के बल पर खरीदे जा सकें।

इन वोट्स के जरिए अपना भविष्य चमकाने का सबसे बेहतर रास्ता था जेएनयू-डीयू का इलेक्शन। जो जीता वो राष्ट्रीय नेताओं की नजरों में आ जाता और उसका राजनीतिक भविष्य चमकदार हो जाता। ये उस समय भी सत्य था और आज भी सच है। यूथ कांग्रेस का प्रेसीडेंट अशोक तंवर है, जो हमारे समय का ही है और अपनी तमाम अयोग्यताओं के बावजूद NSUI का प्रेसीडेंशिएल कैंडीडेट होता रहा। जेएनयू के लिहाज से उसको बोलना भी नहीं आता था लेकिन अपनी ठेठ राजस्थानी अंदाज के लिए ही वो जाना जाता और हर साल 300-400 वोट बटोर लेता।

क्या आपने कभी छोटे शहरों के या राज्यों के विश्वविद्यालयों के नेताओं को किसी छात्र संगठन का अध्यक्ष बना देखा है ? पैसा फेंको, तमाशा देखो ये उस समय भी सच था और आज भी है। अंतर बस इतना है कि उस समय केंद्र में BJP का बोलबाला था तो ABVP की तूती बोलती थी और आज जब कांग्रेस का जमाना है तो NSUI आग मूत रही है।

ये उस समय का भी सच था और आज भी है। सिद्धांत शायद जेएनयू में ही बघारे जाते हैं। कलकत्ता या तिरूअनंतपुरम में आप जैसे CPM-CPI के खिलाफ नहीं बोल सकते, वैसे ही SFI-AISF के खिलाफ भी नहीं।

ये भी एक सच है कि मेरे विद्यार्थी जीवन में कुछ जगहों को छोड़ कर छात्र आंदोलन कभी था ही नहीं, कहीं था ही नहीं। जेएनयू, डीयू, एएमयू, बीएचयू, मैसूर, शायद उत्कल विश्वविद्यालय या ऐसी कुछ और जगहें।

इन जगहों में छात्र संगठन बस दंगा-फसाद खड़ा करना जानते थे और आज भी यही करते हैं। पटना, इलाहाबाद में NSUI, ABVP, AISA, SFI वगैरह हैं तो लेकिन इनकी लोकप्रियता छात्रों के बीच नहीं है। इन जगहों पर या अतीत के इन जैसे गौरवशाली पृष्ठों पर अब बस वो ही लोग छात्र राजनीति से जुड़ते हैं जो जिंदगी में और कुछ नहीं करना चाहते। इनसे आप बहस, वाद-विवाद की उम्मीद नहीं कर सकते.. हां, मारना-काटना, बम फोड़ना हो तो इन्हें बताएं। चाकू-छुरे-कट्टे इनके लिए पुराने हो गए.. इनसे आप बाकायदा रिवॉल्वर की मांग कर सकते हैं।

जेएनयू में बहस की परंपरा थी और खास कर चुनावों के समय तो ये चरम पर होता। प्रेसीडेंशिएल डिबेट को सुनना एक साथ कई अनुभवों से गुजरना होता था। लेकिन जेएनयू की इस गौरवशाली परंपरा के अवसान के चिह्न हमारे समय में ही दिखने लगे थे, जब कैंडीडेट्स बहस के बजाय चिल्लाने ज्यादा लगे थे और जिनकी बातों का कोई सर-पैर नहीं होता था। आज के जेएनयू में यदि आप गल्ती से प्रेसीडेंशिएल डिबेट के दिन चले जाएं तो आप इसे खुद भी परख सकते हैं। फिर भी हमारे जैसे लोग आज भी वहां जाते हैं क्योंकि वो डाउन-डाउन, वो मार्च ऑन-मार्च ऑन आज भी हमारे खून को थोड़ी देर के लिए ही सही पर उबाल देता है। एक दूसरा आकर्षण भी होता है कि अपने समय के लोग मिल जाते हैं और उस जमाने में हम जिसे गाली देते थे, अब उनसे गलबहियां डाल कर चाय पीते हैं। ये कहीं और नहीं होता।

डीयू जैसी जगहों पर जब हम कैम्पेनिंग के लिए जाते तो लोग हमारी और ऐसे देखते कि जैसे हम किसी अजायबघर से उठ कर आए हैं।

लेकिन ये एक सच था आज भी उन यादों को जीना अच्छा लगता है और वे ही बेचैनियां आज भी बेकरार करती रहती हैं।

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फुटनोट

मैं छात्र राजनीति को किसी दिशा देने की वकालत नहीं कर रहा हूं। मुझे साफ-साफ लगता है कि जिस हिसाब से समाज में खुलापन बढ रहा है, उस में हम सब इतने असंवेदनशील होते जा रहे हैं कि हम पर किसी भी बात का फर्क ही नहीं पड़ने वाला। जाहिर तौर पर छात्र भी इसके अपवाद नहीं हैं, बल्कि वे ही इसे पूरे जोर-शोर से आगे बढ़ा रहे हैं।

एक असंवेदनशील समाज की ओर हम सब बढ़ रहे हैं, जिसमें अपनापन बिल्कुल भी नहीं है, दूसरे की बात सुनने का धैर्य नहीं है.. केवल, और केवल अपनी बात हम सब सुनना-सुनाना चाहते हैं। शायद यही वजह है कि मेरी पीढी और मेरे बाद की पीढी के लिए राजनीति अब उतना बड़ा आकर्षण नहीं रह गया है जैसा कभी पहले हुआ करता था। शायद इसीलिए अब जेएनयू जैसी जगहों में भी बहस की परंपरा खत्म हो गई है।

अब तो जेएनयू के प्रेसीडेंशिएल डिबेट में भी कैंडीडेट्स बोलते कम हैं, चिल्लाते ज्यादा हैं (आम जिंदगी के माफिक ही) और जो बातें बातचीत के जरिए हल हो सकती हैं, उस पर हाथ उठाना आम होता जा रहा है। 2 नवंबर को जेएनयू में चुनाव हुए और 31 अक्टूबर को प्रेसीडेंशिएल डिबेट सुनने मैं कई सालों के बाद गया था। उम्मीदवारों का स्तर या भाषण की शैली देख कर वहां से भाग आया। फिर बाद में सुना कि डिबेट के दौरान ही मारपीट हो गयी और पहली बार डिबेट अधूरा छूटा। राम के नाम पर हंगामा करने वाला ब्रिगेड हमारा था यानी ABVP का , जिससे कभी मैं जुड़ा था।

लेकिन हमारे समय से ही लोग भूलने लगे थे कि जेएनयू में छात्रों ने विद्यार्थी परिषद को क्यों आगे बढ़ने का मौका दिया था। मार-पीट हमारे समय की ही देन थी और मेरे जेएनयू छोड़ते-छोड़ते (2002) ABVP का हर सदस्य नेता बन चुका था या अपने को ऐसा दिखाता था। केंद्र में भाजपा की सरकार इसकी एक बड़ी वजह थी। और मेरे जैसे कई लोग ABVP से कटने लगे थे क्योंकि सत्ता ने इसे भी भ्रष्ट कर दिया था और जिन मुद्दों पर हम आगे बढ़े थे, हम उसे भूलने लगे थे या भूल चुके थे।

आख़िर में भी विद्यार्थी परिषद की चर्चा बस इसलिए की ताकि प्रेसीडेंशिएल डिबेट के दौरान हुए पत्थरबाजी की वारदात का बैकग्राउंड समझ में आ सके।

समाप्त

चंद्रशेखर, जेएनयू और आज की छात्र राजनीति-2

इस प्रसंग की दूसरी कड़ी मेरे जेएनयू के राजनीतिक अनुभव हैं, संक्षेप में जेएनयू जैसा मैंने देखा, मैंने जिया (पढ़ाई के अलावा)। ये मेरे अनुभव हैं और इन पर किसी से उलझने की इच्छा भी नहीं है और खुद को ईमानदार दिखाने की कोशिश भी नहीं। बस मैं उस दौर को याद कर रहा हूं.. और कुछ नहीं

भाग-2

AISA द्वारा खाली किए गए प्लेटफॉर्म को भरा ABVP ने। SFI-AISF तो हमेशा से एक तरफ थी और दूसरी तरफ AISA, ABVP, NSUI आते रहे।

खैर, तो हमारा समय वही था, जब AISA मृतप्राय थी और नए लोग, जो कुछ कर गुजरने का जज्बा रखते थे, युवावस्था के आवेश से लबालब थे.. उन्हें ABVP के रूप में एक प्लेटफॉर्म मिला। इसीलिए चंद्रशेखर के शहीद होने के बाद ABVP जेएनयू में इतनी मुखर हो कर आयी और लोग उससे जुड़े भी। देशभर में ABVP चाहे जो भी करती रही हो पर जेएनयू में स्थानीय मुद्दों को वापस ले कर ABVP ही आयी। और ये भी सच है कि ABVP की कुख्यात छवि के चलते ही छात्राएं फिर भी कई सालों तक ABVP के पक्ष में खुल कर आने से डरती रहीं।

ABVP को मैं इतनी जगह दे रहा हूं क्योंकि मेरा दौर वही था। हमारे जैसे लोगों को एक Aletrnative Platform की तलाश थी। कविता कृष्णन से प्रभावित होने के बाद भी जिसे AISA के बाकी लोगों से निराशा ही हाथ लगी थी। हमारे जैसे लोग जो SFI-AISF (CPM-CPI के छात्र संगठन) के दोगलेपन का मुंहतोड़ जबाव देना चाहते थे, वो ABVP से जुड़ गए।

SFI-AISF के लोगों को क्यों मैं दोगला मानता हूं (हो सकता है कि दोगला शब्द के मेरे चयन से लोग सहमत नहीं हों, ये उनकी मर्जी)॥ जेएनयू में मूल रूप से वाम विचारधारा का बोलबाला रहा है और हमारा समय भी उन्हीं में से था। एक तरफ थी चंद्रशेखर की शहादत के बाद विक्षिप्त AISA जो अपने भूत में जी रही थी, दूसरी तरफ थी SFI-AISF और इसके एक बहुत छोटे से तीसरे कोने में हम सब जो SFI-AISF के वर्चस्व को खत्म करना चाहते थे। SFI-AISF के हमारे समय के लीडर कहने को तो कम्युनिस्ट थे लेकिन उनका अंदाज किसी जमींदार से कम नहीं था। अनुशासन के नाम पर छात्रों को डरा-धमका कर रखा जाता था, किसी ने यदि उनके खिलाफ कुछ बोल दिया तो उसे लुम्पेन का खिताब तो वे ऐसे देते थे कि बस .. । और एडमिशन के समय में जो उनका कैडर नहीं बना, उनको उनके प्रोफेसर्स के जरिए भी धमकाने की कोशिशें होती थीं। उन्हें लगता था कि जेएनयू उनकी बपौती है।

मैं जेएनयू में जब आया था तो शुरूआती कुछ महीनों तक किसी भी पार्टी से नहीं जुड़ा, लोगों को और उस कैम्पस को समझने की कोशिश ही कर रहा था। और फिर अचानक एक दिन मुझे लुम्पेन की केटेगरी में डाल दिया गया क्योंकि मारपीट की एक वारदात हुई और मेर कुछ दोस्त/सीनियर्स उसमें शामिल थे। मैं तो उस जगह पर था भी नहीं लेकिन मुझे वो तमगा दे दिया गया। इसकी एक वजह ये भी थी कि हमारा सेंटर ऑफ रशियन स्टडीज़ आम तौर पर ABVP के वोट बैंक के तौर पर गिना जाता था। खैर, उसके बाद से मैं उस तमगे को जब तक जेएनयू में रहा पूरे शान से सीने पर लगाये घूमता रहा।

उस समय मैं AISA को खंगाल रहा था लेकिन कविता के अलावा कोई ऐसा दिखा नहीं जो सही मायने में क्रांतिकारी विचारों को जीवन में भी उतार रहा हो। फिर मुझे मेरे अनजाने में ABVP से जोड़ा जा चुका था और AISA मुझे लेने को तैयार नहीं था।

SFI-AISF के लोगों की राजनीति नाम के लिए तो कम्युनिस्ट थी लेकिन जब चुनाव के दिन आते तो छात्रों को दलित, मुस्लिम के नाम पर जोड़ने की हर संभव कोशिशें होतीं। फतवे जारी किए जाते, वैसे लोगों को चुन-चुन कर पैनल में रखा जाता जो दलित या मुस्लिम होते थे। सेंट्रल पैनल के चार नाम में एक लड़की, एक दलित और एक मुस्लिम नाम जरूर होते थे, जबकि स्कूल पैनल्स में दो मुस्लिम या दो दलित या ऐसा ही कंबीनेशन बनाया जाता। ये कोई अपलिफ्टमेंट के लिए नहीं, एपीज़मेंट के लिए होता था, ताकि वोट खींचे जा सकें। जाहिर तौर पर ये काफी सफल फॉर्मूला था।

लेकिन विचारधारा की बात करने वाले, मार्क्स-एंजेल्स की माला जपने वालों का ये रुप मैं नहीं झेल पाया। एक और बात थी कि SFI-AISF के नेता थे तो कम्युनिस्ट पर जूते एडीडास, रिबॉक या बड़े चमक-दमक वाले पहनते थे, जमींदारों-सा रहन-सहन था, JRF के पैसों से उनके कमरों में 600-800 वॉट के म्यूजिक प्लेयर बड़ी आम बात थी। शुरूआती दिनों में उनका पहनावा वही कुर्ता और जींस होता था, लेकिन 2000 आते-आते ये भी बदल गया और उनके पास अब बाइक होना भी आम हो गया।

मेरे लिए ये मुश्किल था। घर से 1500 रुपये मिलते थे और इतने पैसों में भी बचाने की प्रवृत्ति हावी थी (हालांकि मैं आर्थिक रुप से किसी कमजोर परिवार से नहीं था और जेएनयू में रहने वाले के लिए 1500 रुपये साधारण ढंग से रहने वाले के लिए बहुत थे)। लेकिन फिर भी मुझे आश्चर्य होता था कि ये कैसे संभव है ? लोगों के पास इतने पैसे कहां से आते हैं कि इतने ऐश के साथ रह सकें और साथ ही घिन भी होती सर्वहारा की बात करने वालों के जीवन के रूप देख कर।

संयोगवश ये वे ही दिन थे, जब भारत की अर्थव्यवस्था ने विकास की रफ्तार (आंकड़ों के मुताबिक) पकड़नी शुरू की थी, पब्लिक सेक्टर कंपनियों का बोलबाला समाप्ति पर था, निजी औऱ बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने घरों के दरवाजों पर दस्तक देनी शुरू कर दी थी और टीवी सिनेमा का मजबूत विकल्प बन कर सामने आने लगा था। विदेशों से हमारी नजदीकियां बढ़ने लगीं थी और एमटीवी जैसे चैनल खुलने लगे थे।

जाहिर सी बात है कि दिल्ली के भीतर हो कर भी दिल्ली से कटा रहने वाला जेएनयू भी इससे अछूता नहीं था और बदलाव की ये बयार Day Scholars ला रहे थे यानी वो जो दिल्ली के रहने वाले थे। राजनीतिक रूप से पता नहीं क्यों पर इनमें कोई अपवाद ही होता जो वामपंथियों से जुड़ता और ABVP को जेएनयू में जगह दिलाने में इनका बड़ा योगदान था।

उस समय ABVP दिल्ली यूनिवर्सिटी में भी हावी थी और देश की राजनीति में BJP और वाजपेयी।

चंद्रशेखर, जेएनयू और आज की छात्र राजनीति

पिछ्ले दिनों दिलीपजी और अनिलजी के बीच समकालीन जनमत के जरिए हुआ शास्त्रार्थ। विचारधारा से मेरा तो बाल विवाह नहीं हुआ लेकिन उस पर क्रश जरूर था और आज भी ये बरकरार है। बहरहाल, इसी शास्त्रार्थ के चलते प्रणय कृष्ण का चंद्रशेखर पर लिखा लेख फिर से पढ़ने को मिला और जाहिर तौर पर इसने कुछ पुराने घाव उभार दिए। ऐसे घाव जिन्हें कुरेदना बहुता अच्छा लगता है और अपने सपनों के बारे में सोचने को विवश करता है। चंद्रशेखर के बारे में पढ़ते हुए ये लिखना शुरू किया था और फिर पता चला कि इन दिनों जेएनयू में चुनावों का मौसम चल रहा है। ऐसे में अपने दौर को याद करने का मौका भला कैसे छोड़ा जा सकता है। तो तीन हिस्सों में इसे प्रकाशित कर रहा हूं।

भाग-1


" शहीद हो जाने के बाद भी चंदू ने अपनी आदत छोड़ी नहीं है। चंदू हर रोज हमारी चेतना के थकने का इंतजार करते हैं और अवचेतन की खिड़की में दाखिल हो जाते हैं। हमारा अवचेतन जाने कितने लोगों की मौत हमें बारी-बारी से दिखाता है और चंदू को जिंदा रखता है। "

"चंद्रशेखर बेहद धीरज के साथ स्थितियों को देखते, लेकिन पानी को नाक के ऊपर जाते देख वे बारूद की तरह फट पड़ते। "

मैं कॉमरेड चंद्रशेखर को चंदू नहीं कह सकता क्योंकि मैने उन्हें नहीं देखा, हां उनके बारे में जानने की कोशिशें खूब की हैं। पता नहीं कितने तरह के लोगों से चंद्रशेखर के बारे में जानने की कोशिशें की हैं और उन कोशिशों से बनी समझ तो यही है कि चंद्रशेखर जैसा नेता शायद आजाद भारत को नहीं मिला। ये वो शख्स था, जिसने नेता की अवधारणा को अपने कर्मों से सही कर दिखाया था। प्रणय कृष्ण का चंद्रशेखर वाला लेख पहले भी पढ़ा था और एक बार फिर से इसे पढ़ कर अतीत की कई स्मृतियों ताजा हो गयीं। प्रणय कृष्ण ने बहुत ईमानदारी से चंद्रशेखर को चित्रित किया है। ये शायद चंद्रशेखर के साथ काम करने का परिणाम है या क्या ये नहीं जानता, नहीं मालूम कि प्रणय कृष्ण में आज भी (उन्हीं दिनों जैसी) आग बची हुई है या नहीं, क्योंकि आज के जो AISA (CPI-ML का छात्र संगठन) के लोग हैं, वो तो बस चंद्रशेखर के नाम की माला ही जपते हैं, करते कुछ नहीं ।

ये एक बहुत बड़ा सच है कि चंद्रशेखर के प्रभाव का अवसान उनके जाने के (शहादत के) साथ ही शुरू हो गया था। आज इतने सालों बाद सोचता हूं तो एक अजीब-सा विचार बार-बार कौधता है कि क्या चंद्रशेखर के साथियों ने चंद्रशेखर के साथ दगा नहीं किया ? पता नहीं सच क्या है, लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि चंद्रशेखर जिन विचारों, जिन आदर्शों के लिए लड़े.. उन्हें उनके साथियों ने उनकी मौत के साथ ही तिलांजलि दे दी।

जेएनयू के हिसाब से में उस पीढ़ी का हूं जो चंद्रशेखर के गुजरने के साथ ही जेएनयू में आया। ये मेरा तो दुर्भाग्य था ही कि मुझे चंद्रशेखर से मिलने का मौका नहीं मिला। लेकिन उनके जिन-जिन साथियों से मैं मिल पाया जेएनयू में, सिवाय एक-दो के बाकी सबसे निराश ही हुआ। कुछेक दिन ही हुए थे जेएनयू में जब JNUSU के चुनाव हुए और कविता कृष्णन खड़ीं थीं प्रेसीडेंट के लिए। कसम से मैंने उनके जैसा स्पीकर आज तक नहीं देखा। लोग कहते थे कि चंद्रशेखर को काश तुमने सुना होता लेकिन मैंने अपनी जिंदगी का पहला वोट केवल उस भाषण पर कविता को दिया था। उसके बाद भी केवल कविता को ही मैंने पाया सही मायनों में चंद्रशेखर की विरासत का प्रतिनिधित्व करते हुए। बाकी के तो AISA के जो लोग थे वो कमोबेश उसी हालत मे दिख रहे थे, जैसे कि आजकल भाजपा दिखती है.. सत्ता से बाहर बौखलाए हुए लोगों का झुंड, जिन्हें इतने सालों बाद भी नहीं पता चला कि आखिर वो कैसे सत्ता से बाहर हो गए या जिन्हें लगता है कि सत्ता तो बस उन्हीं का जन्मसिद्ध अधिकार है। जेएनयू में JNUSU का प्रेसीडेंट जिस पार्टी का हो, उसे लगता है कि जैसे वो एक पूरे देश पर राज कर रहे हैं और उनकी शान किसी राजा या प्रधानमंत्री से कहीं कम नहीं होती.. आज भी नहीं।

हमारे समय में तो AISA अर्द्धविक्षिप्त थी जेएनयू में और सिवाय कुछ नारों के (जला दो, मिटा दो या चंदू, भगतसिंह.. वी शैल फाइट, वी शैल विन) के अलावा उनके पास कुछ भी ऐसा नहीं था जिसे सृजनात्मक (CONSTRUCTIVE) कहा जा सके। ये वो पार्टी थी जो लड़ती तो छात्रों के लिए थी लेकिन छात्रों को देने के लिए उसके पास अमेरिकन इंपीरियलिज्म, विश्व बैंक, ग्लोबलाइजेशन या ऐसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर लफ्फाजी के कुछ नहीं था।

शायद यहीं चंद्रशेखर AISA से अलग थे। चंद्रशेखर ने केवल अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को ही नहीं समझा, स्थानीय मुद्दों को भी समझा और इन मुद्दों पर लोगों को अपने से जोड़ा। और इन मुद्दों पर लोगों को साथ लाने के बाद उन्हें देशी-विदेशी बातों से जोड़ा .. समझाया कि इन बातों को जानना क्यों उनके लिए जरूरी है। ऐसे भी जब तक हमारी दैनिक जरूरतें पूरी नहीं होतीं, हम साफ्ताहिक, मासिक या सालाना मुद्दों के बारे में नहीं सोचते.. राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के बारे में हम तभी सोचते हैं जब हमारी स्थानीय आवश्यकताएं पूरी हो जाएं। AISA के लोग, चंद्रशेखर के परवर्ती लोग ये नहीं कर सके। केवल चंद्रशेखर की दुहाई देते रहे, दारू के ग्लास भर-भर कर, आंखें लाल कर-कर के दुनिया-जहान के मुद्दों पर बहस करते रहे। और शायद इसीलिए चंद्रशेखर के बाद AISA जेएनयू में, अपने ही घर में नहीं टिक पायी।

सोमवार, 15 अक्तूबर 2007

अथ श्री टीआरपी कथा

पहले जरा इन आंकड़ों को देखिये

मुंबई 1245
दिल्ली 1186
कोलकाता 881
गुजरात 993
उत्तर प्रदेश 1273
महाराष्ट्र 1019

पंजाब, हरियाणा
चंडीगढ़, हिमाचल प्रदेश
(चारों एक साथ) 1165

मध्य प्रदेश 722
पश्चिम बंगाल 703
राजस्थान 441
उड़ीसा 342

कुल 9970

- ये आंकड़े बस ये बताने के लिए कि किन राज्यों में कितने डब्बे टीआरपी मापने के लिए हैं

- ये 9970 डब्बे लगभग 69 हजार लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं ( TAM के वैल्यू के हिसाब से)

- ये डब्बे सिर्फ और सिर्फ घरों में लगे हुए हैं ( किसी भी ऑफिस, होटल, रेस्तरां, रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट या कहीं और नहीं)

- TAM की रेटिंग्स में सभी प्रकार के चैनलों की रेटिंग गिनी जाती है यानी सामान्य मनोरंजन चैनल्स, खेल चैनल्स, समाचार चैनल्स और लाइफ स्टाइल चैनल्स या कोई और भी होता हो तो

- TAM एक परिवार में चार सदस्यों को मानता है। सबके हिस्से में एक-एक बटन होता है.. जब जो टीवी देखे, अपने हिस्से का बटन दबा दे

- दक्षिणी, उत्तर-पूर्वी राज्यों और पश्चिम बंगाल को छोड़ कर जो हिस्सा बचता है, TAM उसे हिंदी भाषी मानता है

- उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब को भी- दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद और बंगलोर महानगरों की श्रेणी में रखे गए हैं, पर हिंदी भाषी दिल्ली, मुंबई और कोलकाता को माना गया है

- TAM के मुताबिक मुंबई हिंदी चैनल्स का सबसे बड़ा बाजार है, दूसरे पर दिल्ली और तीसरे पर कोलकाता आते हैं

- बिहार और उत्तर-पूर्वी राज्यों में एक भी डब्बे नहीं हैं

- TAM के हिसाब से बाजार के मामले में उत्तर प्रदेश और गुजरात तीसरे-चौथे स्थान पर हैं और हर हफ्ते ये स्थिति बदलती रहती है

- TAM के मार्केट्स दो भागों में बंटे हैं - 1 लाख से 10 लाख वाले शहर / हिस्से और 10 लाख से ज्यादा के शहर (महानगर 10 लाख से ज्यादा वाले हिस्से में आते हैं और दो भागों में नहीं बंटे हैं लेकिन अन्य सभी राज्य दो भागों में बंटे हैं। इन्हीं की वजह से उत्तर प्रदेश और गुजरात के क्रम हर हफ्ते बदलते रहते हैं)

- TAM केवल केबल टीवी देखने वालों की गिनती करता है - दूरदर्शन देखने वाले और DTH के ग्राहक इसके दायरे से बाहर हैं

अब जरा गणना के तरीके पर आइए

- TAM के मुताबिक उसका एक डब्बा पूरे मुहल्ले का प्रतिनिधित्व करता है

- गणना के लिए आम तौर पर 15 से 45 साल के बीच के लोगों को ही रखा जाता है.. मतलब बटन भी ये ही दबा सकते हैं

- गणना मिनट के हिसाब से की जाती है.. 'अ' ने 5 मिनट देखा, 'ब' ने 2 मिनट देखा, 'स' ने एक ही मिनट देखा और तब उस कार्यक्रम विशेष या टाइम स्लॉट की REACH निर्धारित की जाती है

- ध्यान दीजिए कि गणना कार्यक्रम विशेष या टाइम स्लॉट की होती है, चैनल की नहीं- टीआरपी निर्धारित करने के लिए समय को मौटे तौर पर तीन हिस्से में बांटा गया है.. सुबह 8 बजे से 4 बजे दिन तक, 4 बजे से रात 12 बजे तक(प्राइम टाइम) और रात 12 बजे से सुबह के 8 बजे तक

- रेटिंग प्वाइंट्स में सबसे बड़ा खेल मिनट का होता है.. किसी कार्यक्रम को औसतन 5 मिनट देख लिया गया तो वो कार्यक्रम धन्य है.. मतलब उस कार्यक्रम की REACH इन्हीं मिनटों के हिसाब से तय होती है ( कि कितने लाख घरों तक उसकी REACH है)

- हर दिन की रेटिंग अलग-अलग होती है पर मोटे तौर पर ये तीन हिस्सों में होता है - सोमवार से शुक्रवार, शनिवार और रविवार- साप्ताहिक आंकड़े कैसे बनते हैं.. जिन पर चैनल्स शोर मचाते हैं कि वो नंबर 1 है या नंबर 2 हैं

TAM का सॉफ्टवेयर हफ्ते भर की रेटिंग के लिए एक समय विशेष को चुनता है.. जैसे 7 बजे किस चैनल पर कितने लोग ट्यून्ड थे और इसके हिसाब से गिनती होती है। TAM का सॉफ्टवेयर हर हफ्ते RANDOMLY समय का चुनाव करता है .. मतलब इस हफ्ते 7 बजे तो अगले हफ्ते 10 बजे भी हो सकता है और उसके अगले हफ्ते 8:30 बजे भी।

- TAM के सॉफ्टवेयर के हिसाब से हर मिनट की गिनती संभव है

- TAM ये बता सकता है कि कितने बजे कितने लोग उसके डब्बे के बटन को दबाए हुए थे और उसके हिसाब से कितने लोग उस समय विशेष पर कौन सा चैनल देख रहे थे

अपनी बात

1. TAM का दावा है कि उसकी गणना वैज्ञानिक है और उसका सॉफ्टवेयर फूल-प्रूफ है। लेकिन क्या 9970 डब्बे 70-80 करोड़ (TAM का हिंदी भाषी क्षेत्र) लोगों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं ?

2. चलिए मान लिया कि ये केवल केबल टीवी देखने वालों की गणना है - मतलब शहरों में रहने वाला तबका। लेकिन क्या 9970 डब्बे या 69 हजार लोग (इन डब्बों की टोटल वैल्यू, TAM इसे यूनिवर्स कहता है) २.5-30 करोड़ की शहरी आबादी का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं या केबल टीवी देखने वाले 4-5 करोड़ घरों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं ?

3. TAM के रेटिंग में बिहार अनुपस्थित है, उत्तर प्रदेश तीसरे-चौथे नंबर के लिए संघर्ष करता रहता है, मध्य प्रदेश 8वें स्थान पर है, जबकि राजस्थान 10वें पायदान पर। ये हमारे हिंदी प्रदेश हैं और ये परंपरागत हिंदी भाषी लोग TAM की रेटिंग्स में बहुत नीचे हैं। क्या इसलिए कि इन राज्यों में शहरीकरण उतनी तेजी से नहीं हुआ जितनी तेजी गुजरात, महाराष्ट्र में देखी गयी ? लेकिन फिर भी ऐसे कई शहर इन राज्यों में हैं जो दस लाख से ज्यादा की आबादी वाले हैं । तो क्या ये प्रोडक्ट बेचने के लिए सक्षम बाजार नहीं हैं ? उत्तर मेरे पास नहीं हैं।

4. अब जरा हमारे हिंदी समाचार चैनलों पर आएं - ये सारे शोर मचाते हैं कि वो नंबर 1 तो वो नंबर 1 लेकिन TAM के 9970 डब्बे चैनल्स के सभी तबकों का प्रतिनिधित्व करते हैं - मनोरंजन, समाचार, खेल, सिनेमा, लाइफस्टाइल और गणना समय के हिसाब से होती है।

मेरे कहने का मतलब ये है कि रेटिंग्स इस सच्चाई को बयान नहीं करते कि किस न्यूज चैनल की हकीकत क्या है क्योंकि साप्ताहिक रेटिंग समय विशेष के हिसाब से निकला जाता है और उसमें 'कितने मिनट देखा गया' का बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है।

मुझे ये भी कहना है कि न्यूज चैनल्स कुछ भी कह लें पर 9970 डब्बे ये भी बयान करते हैं कि कोई भी चैनल औसतन एक घंटा भी नहीं देखा जाता (चैनल्स की REACH यही बताती है और संपादक लोग इसी REACH पर मरते रहते हैं)

5. इतने के बावजूद चैनल्स रेटिंग्स की मारामारी करते हैं क्योंकि यही उनका मार्केट परसेप्शन बनाता है और कितने विज्ञापन आएंगे ॥ मोटे तौर पर इसी से निर्घारित होता है।

6. ये भी एक दिलचस्प बात है कि गंभीर खबरों को रेटिंग्स नहीं मिलती है और क्रिकेट, सिनेमा, क्राइम, मनोरंजन, भूत-प्रेत, नाग-नागिन जब दिखाए जाते हैं तो रेटिंग्स आती हैं। इस ट्रेंड को ज़ी न्यूज ने पकड़ा, आज तक ने एक नया आयाम दिया, स्टार न्यूज ने इसे और भी ऊंचाईयां दी और अब इंडिया टीवी के नाग-नागिन इसे पराकाष्ठा पर पहुंचा रहे हैं।

हिंदी समाचार चैनलों की पत्रकारिता पर इसका क्या असर पड़ता है, इस पर हम सब कई बार बहस कर चुके। इसलिए उस ओर नहीं जाऊंगा लेकिन नाग-नागिन या भूत प्रेत लगातार इसीलिए दिखाए जा रहे हैं क्योंकि रेटिंग्स मिलती है। अब तो प्रतिस्पर्धा इस बात पर हो रही है कि किसका नागिन, किसका भूत सबसे बढ़िया ।

एनडीटीवी इंडिया को गंभीर चैनल माना जाता है लेकिन मेरी जानकारी के मुताबिक विज्ञापन के लिए उसे 24*7 के बुके में बेचा जाता है, ताकि मार्केटिंग होती रहे और कमाई भी।

7. इस विश्लेषण की जो बात मुझे विचलित करती है -----

क्या हम सब बीमार, विकृत, थकी या सड़ी हुई मानसिकता के लोग हैं (इससे ज्यादा शब्द नहीं मिल रहे ) ? हम सब मतलब हम सब , हमारा शहरी वर्ग जो केबल टीवी देखता है (चाहे थोड़ी संख्या में ही)। गौर कीजिए कि ये बुद्धू बक्से किसी भी ऑफिस में नहीं हैं, होटल में नहीं हैं, रेस्तरां में नहीं हैं, रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट पर नहीं हैं.. ये केवल और केवल घरों में हैं।

क्या इसका मतलब है कि हम इतने विकृत हो चुके हैं कि अब नाग-नागिन, भूत-प्रेत हमें, हमारे घरों को ज्यादा लुभाते हैं (कम-से-कम रेटिंग्स तो यही कहती हैं) या फिर हम जिंदगी से इतना थक चुके हैं कि ये कार्यक्रम हमारे लिए दवा का काम करते हैं और वास्तविक दुनिया से अलग किसी और लोक में ले जाते हैं (जहां हम अपने ग़म को, दुख को थोड़ी देर के लिए ही सही पर भूल जाते हैं) ?

जबाव मेरे पास नहीं हैं पर TAM रेटिंग्स की परत उघाड़ने से ऐसे भयावह प्रश्न उभर कर आए हैं और जाहिर तौर पर मैं इन संभावनाओं से विचलित हूं।

प्रसंगवश समाचार चैनल्स की तर्ज पर नाग-नागिन अब मनोरंजन चैनल्स में भी घर बना रहे हैं ( देखिए ज़ीटीवी पर नागिन सीरियल)

अंत में बस इतना ही कि इसे बयान करने के क्रम में कहीं कोई तथ्यात्मक गलती हुई हो तो जरूर बताएं। प्रतिक्रियाओं और आलोचनाओं के लिए तो पलकें बिछाए बैठा हूं।

शनिवार, 4 अगस्त 2007

पत्रकार क्यों सरकार के खिलाफ लिखते हैं ?

हमारे एक बेनाम साथी को लगता है कि सरकार के खिलाफ इतनी रिपोर्टिंग राज्य से भरोसा उठाने की कोशिश है और निजी क्षेत्र के बारे में कोई नहीं लिखता। उन्होंने ये बात मोहल्ले को लिखी। असहमति के हर स्वर का स्वागत है। लेकिन उनके मत और मेरे मत में अंतर ये हैं कि उनके द्वारा दिए गए संदर्भों से मैं सहमत नहीं हूं। इसलिए मोहल्ले की गलियों में अपनी बात मैंने पहुंचाई। इसे यहां डालने तक वो अपने जबाव के साथ भी हाजिर हैं और बहस को नया आयाम दे रहे हैं। उन्होंने अपनी बात शुरू की है कि हमारे सामने विकल्प सीमित हैं और अंत करते हैं कि हम सब अभिशप्त हैं इन्हीं दो (सीमित) विकल्पों में चुनाव के लिए। सच्ची बात है कि विकल्प सीमित हैं क्योंकि राजसत्ता और निजी क्षेत्र के बीच एक तीसरा तंत्र खड़ा करने की ईमानदार कोशिश का अभाव है, बहुत कुछ राजनीतिक पार्टियों के तीसरे मोर्चे की तरह। मेरी गुजारिश ये भी है कि कम-से-कम मुझे बाजार का प्रवक्ता न समझें, लेकिन अपनी समझ को रखने की इजाजत भी दें। डर लग रहा है कि ये हमारे-उनके निजी वाद-विवाद में बदल रहा है। किसी की समझ उसके बात की वकालत नहीं हो सकती। वो एक तटस्थ वक्तव्य भी हो सकता है। हालांकि मैं अपने को डिफेंड करने नहीं कर रहा, बल्कि मुझे लगता है कि हम सब अपनी बात अपने-अपने तरीके से कह रहे हैं। लेकिन हम सब सच में अभिशप्त हैं इन्हीं सीमित विकल्पों में चुनने के लिए..


लेकिन ये भी सच है कि सरकार राज्य को चलाता है या यूं कहें कि राज्य को चलाने का तंत्र सरकार के हाथ में है और बहुत हद तक सरकार राज्य का पूरक है। हालांकि पर्यायवाची नहीं है। यूं भी कह सकते हैं कि सरकार हमारे समय की सबसे बड़ी कंपनी है (यदि सबको बाजार के पैमाने पर तौलें तो)


बेनाम के नाम एक ख़त

प्रिय बेनाम मित्र,

साक्षर और शिक्षित की बहस में मैं नहीं जाऊंगा। देसी मीडिया पर हमारे समय की जो मेरी समझ है, वो मैंने रखने की कोशिश की थी। आपने कुछ बड़े महत्वपूर्ण सवाल उठाये हैं। मसलन राज्य से भरोसा उठाने की कोशिश वाली जो बात आप करते हैं, उसमें आपके द्वारा दिये गये संदर्भों से मैं सहमत नहीं हूं। डिस-इनवेस्टमेंट हो या खाद पर सब्सिडी या फॉरवर्ड ट्रेडिंग पर रोक- ज़रा सोचिए कि सरकारी उपक्रमों के विनिवेश की बात क्यों उठी? हमारे सरकारी तंत्र के काम करने की शैली ये है कि एक व्यक्ति 10 बजे ऑफिस पहुंचने के बदले 11 बजे आता है। लंच का समय यदि एक बजे शुरू होता है तो काम-काज 12 बजते-बजते बंद हो जाता है। लंच दो बजे ख़त्म होता है तो वो व्यक्ति ढाई-तीन बजे काम पर लौटता है और चार-साढे चार बजे तक एक्जिट मोड में आ जाता है। हमारे सरकारी तंत्र आज भी ऐसे ही चल रहे हैं और इसमें भ्रष्टाचार का पहलू भी जोड़ दीजिए।

तो बात यही है कि हमारे सरकारी उपक्रम सफेद हाथी बन चुके हैं और हमारे-आपके पैसे का खुलेआम दुरूपयोग जारी है। खाद पर सब्सिडी किसानों को आज तक नहीं मिली, सत्ता तंत्र की वजह से कंपनियां पैसा पीटती रहीं (संदर्भवश आज ही यानी बुधवार को खाद मंत्री पासवान और उनके अधिकारियों ने फिर इस मांग को खारिज कर दिया कि किसानों को सब्सिडी सीधे दी जाय। उनका तर्क है कि इससे खाद पर सरकारी कंट्रोल खत्म हो जाएगा और दाम अनियंत्रित हो जाएंगे। ऐसे में, किसानों को सब्सिडी देने से अल्टीमेटली सरकार को ही पैसे चुकाने होंगे। उनके अनुमान के मुताबिक ये मौजूदा सब्सिडी से ज्यादा होगा। साथ ही, सरकार ये भी कहती है कि उसका अपना ही तंत्र ब्लॉक-अंचल स्तर पर इसमें बाधक बन जाएगा और किसानों की परेशानियां बढ़ जाएंगी)। फॉरवर्ड्स मार्केट की बात यदि करें, तो क्या एक अदना किसान यहां ट्रेडिंग कर सकता है? उनके नाम पर दरअसल बड़े व्यापारी और दलाल क्या कमाई नहीं कर रहे हैं?

तो सरकार/ सरकारी संस्था पर पत्रकार शायद इसलिए इतना लिखते हैं। हमारे 60 साल के शासन तंत्र ने हर छोटी-बड़ी बात के लिए हमें सरकारी की ओर आशाभरी दृष्टि से देखने की आदत लगा रखी है और इसलिए इनके ख़िलाफ इतना लिखा जाता रहा है कि काई कुछ तो हटे।

पत्रकार शायद इसलिए भी लिखते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री आंकड़ों के साथ खेल कर हमें बताते रहते हैं कि हमने सिंचाई के लिए 20 हजार करोड़ रुपये ख़र्च किये, जबकि आज भी हम सिंचाई के लिए मॉनसून की ओर ही टकटकी लगाये रहते हैं। हम देख रहे होते हैं कि अमीर-ग़रीब, हैव्स-हैव्स नॉट के बीच की खाई लगातार बढ़ती ही जा रही है और सरकार के मुखिया 10 फीसदी की रफ्तार से विकास का दावा करते रहते हैं। जनता को फील गुड हो या नहीं, खुद फील गुड करते रहते हैं। महंगाई को नापने के जो मापदंड (थोक मूल्य सूचकांक और कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स) 1973-74 में ही बनाये गये थे और उस समय जिन्हें पैमाना बनाया गया वे ही आज भी चल रहे हैं। क्या हमारे ये भाग्य विधाता हमें आज भी फटा सुथन्ना पहने रखने को विवश नहीं कर रहे और घाव में नमक लगाते हैं कि राष्ट्रगीत भी गाओ। दिलीपजी के पहले राइट अप में इस ओर इशारा था, पर उस पर इतनी बहस ही नहीं हुई।

राज्य पर हम भरोसा क्यों करें? राज्य एक समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, कल्याणकारी राज्य होने का दावा करता है पर शब्दों में गूंथी गयी बातों की माला आज भी संविधान की मूर्ति पर ही टिकी है।

रही बात निजी क्षेत्र पर लिखने के बारे में तो बात सही है कि हमारे मीडिया (प्रिंट और टीवी) में इसके ख़िलाफ लिखने की परंपरा अभी विकसित नहीं हुई है। केवल जब अलाने-फलाने लोन के रेट बढ़ जाते हैं या लोन की किस्त नहीं चुकाने पर बैंक के गुंडे धमकाने पहुंचते हैं, तभी ये ख़बरें छपती हैं। निजी क्षेत्र की पैरोकारी मैं भी नहीं करता पर इसके ख़िलाफ लिखने की शैली को अभी और विकसित होना है, ऐसा मानता हूं।

यूं तो आज के वाम दलों की राजनीति से अक्सर असहमत रहता हूं पर अच्छा लगता है जब देखता हूं कि इनके प्रचंड विरोध के चलते ही एक आदमी की रिटायरमेंट की पूंजी (पी एफ और पेंशन) शेयर बाजार में इनवेस्ट नहीं हो पाती। भले ही वो रकम केवल 5 फीसदी ही क्यों न हो।

कॉरपोरेट और बाज़ार के बारे में मैं इतना फिर कहूंगा कि कॉरपोरेट बाज़ार का हिस्सा है और बाज़ार अपने आप में एक इंस्टीट्यूशन की शक्ल ले चुका है। हमारे समय के सबसे बुद्धिमान लोग इन कॉरपोरेट्स की मदद पर चौबीसों घंटे रहते हैं और लगातार बाज़ार की दिशा को परखते रहते हैं कि बाज़ार कहां और किधर जा रहा है, इसका भविष्य कहां है। उनके ही हिसाब से कॉरपोरेट्स अपने पैसे का निवेश करते हैं। ये बाज़ार के भविष्य को भांप सकते हैं और बाज़ार को उस और जाने को प्रेरित कर सकते हैं पर इसका पर्यायवाची नहीं हैं। यूं भी कह सकते हैं कि बाजार हमारे समय का बिग ब्रदर है ('बिग ब्रदर इज वाचिंग यू' टाइप से) और कॉरपोरेट्स इसकी सत्ता के सबसे मजबूत और समर्थ खिलाड़ी।

इन्हीं कॉरपोरेट्स के एक अंग हमारे कल तक के प्रतिबद्ध पत्रकार और आज के मीडिया मुगल हैं। जब तक इनका हित सधेगा और मुनाफा होता रहेगा, रोज़ाना के कामों में हस्तक्षेप नहीं होगा। और चूंकि अभी तक हित सध रहा है, इसलिए हस्तक्षेप नहीं हो रहा है या कम हो रहा है।

चन्द्रिकाजी, आपकी बात सच है कि मीडिया पूरे देश में है, लेकिन हमारा मीडिया राजधानी दिल्ली में हुए एक बलात्कार को तो राष्ट्रीय ख़बर बना देता है पर जब तक नंदीग्राम में गोली नहीं चलती और कुछ लोग शहीद नहीं होते, वो राष्ट्रीय ख़बर नहीं बनती। लेकिन आज भी नई दुनिया या प्रभात खबर हमारे दिल्ली के अख़बारों/टीवी से ज़्यादा अच्छा काम रहे हैं। लेकिन स्थानीय टीवी मीडिया के बारे में ये नहीं कहा जा सकता। मजेदार तथ्य ये है कि टीवी की हाय-हाय इतना होने के बाद भी अखबारों की प्रसार संख्या घटी नहीं है... और भी बढ़ी ही है।

जातिवाद, क्षेत्रवाद, चेलावाद पर इतना ही कहूंगा कि मेरी समझ में इन तीनों के खात्मे की घंटी कम-से-कम अभी तक तो नहीं बजी है और कोई आहट भी इनके जाने की नहीं सुनाई पड़ रही है।

धन्यवाद

शनिवार, 28 जुलाई 2007

मैं, मेरा समय और आज की पत्रकारिता

आज-कल हमारे मित्र अविनाशजी के मोहल्ले में एक गर्मा-गर्म बहस चल रही है हमारे समय की मीडिया, खास कर टीवी पत्रकारिता पर। आवाज के दिलीप मंडलजी ने मधुमक्खी के इस छत्ते को छेड़ा तो हम सब को इसका दंश लगा। कईयों ने लिखा है, मैंने भी कोशिश की है। तो नीचे लिखे गए उद्गार वही हैं, जो अविनाशजी के मोहल्ले की बहस पर लिखा।

प्रिय अविनाशजी,

बधाई॥ काफी दिनों बाद मोहल्ले में एक अच्छी बहस शुरु हुई है। मीडिया विमर्श के इस मंथन में कुछ अच्छा निकलने और कुछ सार्थक होने की उम्मीद बंधती है। दिलीपजी ने मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ दिया है। अपनी बात उन्होंने ऐसी जगह ले जाकर छोड़ दी है कि कभी-कभी लगता है कि जैसे दुनिया लड़े-कटे और हम तमाशा देखें। हालांकि ये सच नहीं है। दिलीपजी और उनके बाद छपी कई और बातों ने लिखने के लिए मुझे भी उकसाया और वही आपको भेज रहा हूं। किसी की व्यक्तिगत आलोचना करने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। साथ ही, कई जगह मेरी बातों में विरोधाभास झलक सकता है और अपनी ही बातों का दुहराव दिख सकता है। इस पर मेरा कंट्रोल नहीं है। पर मुझे लगता है कि ये विरोधाभास न केवल हमारे समय के समाचार तंत्र में है, बल्कि हमारे समाज और हमारे व्यक्तित्व में भी है। हम कई मुखौटे ले कर चलते हैं और जरूरत के मुताबिक उसे लगा लेते हैं। इस बीच में अनामदासजी और एक गुमनाम की चिठ्ठी भी आपने छापी है। दोनों की भाषा काफी सधी हुई है और दोनों लगभग वही बात कहते हैं जो मैं आगे कहने जा रहा हूं अपनी बेलगाम भाषा में।

अपनी बात की शुरूआत दिलीपजी की चेलावाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद वाली बात से करता हूं। दिलीपजी कहते हैं कि पुराने दौर में जिस तरह का चेलावाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद था वो अब चल नहीं सकता। .... बाजार उसे एक हद से ज्यादा जातिवादी होने की इजाजत नहीं देगा। इस बात से मैं असहमत हूं। क्या दिलीपजी ईमानदारी से कह रहे हैं कि चेलावाद कम-से-कम टीवी न्यूज चैनल्स से खत्म हो गया या हो रहा है या उन्हें इसकी आहट सुनाई दे रही है..? जातिवाद और क्षेत्रवाद हो सकता है कि अपने आखिरी चरण में हो पर क्या चेलावाद खत्म हो रहा है ? हमारी समझ में तो ऐसा नहीं है बल्कि ये अभी और मुखर हो कर सामने आ रहा है। इसे पेटी के नीचे का प्रहार न समझा जाय लेकिन दिलीपजी, क्या आपने खुद कभी कोई ऐसी कोशिश की है कि खुद आपके चैनल में ही नियुक्तियों का एक ऐसा इंस्टीट्यूशन विकसित हो, जो इतनी पारदर्शी हो कि दूर से ही झलके और लोगों को शिकायत का मौका न मिले। चेलावाद फिलहाल अपने चरम पर है और सेंसेक्स की तर्ज पर नित नयी ऊंचाईयां चढ़ता ही दिख रहा है।
सच्चाई ये है कि हम सब इस हम्माम में अपनी नंगई ढंकने से ज्यादा दूसरे की उघाड़ने में लगे रहते हैं।

मैं सत्येंद्रजी की इस बात से भी सहमत नहीं हूं कि हमारा समाचार तंत्र कॉरपोरेट मीडिया का रूप ले चुका है। कॉरपोरेट की जगह यदि बाजार का उपयोग करें तो बात बहुत हद तक सुलझती दिखती है, क्योंकि मोटे तौर पर आज भी कोई कॉरपोरेट हमारे चैनल्स या अखबार की सामान्य दिनचर्या में हस्तक्षेप नहीं करता है। बल्कि हमारे संपादक और बीते जमाने के प्रतिबद्ध पत्रकार आज के न्यू एज मीडिया मुगल होते जा रहे हैं। उनकी कंपनियां लिमिटेड कंपनी बन रही है और आज की नई दुनिया के अंबानी-मित्तल उसमें कुछ हिस्सा खरीदते जा रहे हैं (लेकिन तिमाही-छमाही-सालाना नतीजों के अलावा उनका कोई प्रत्यक्ष इंटरेस्ट आज भी नहीं दिखता है)। ये वही मीडिया मुगल हैं जो कल के प्रतिबद्ध पत्रकार थे और आज की नयी पीढ़ी को जिनके नाम की चाशनी हर लेक्चर के साथ पिलायी जाती है।

प्रतिबद्धता की बात करें तो हमारे आज के समाचार तंत्र में ये केवल इंडियन एक्सप्रेस और हिंदू में दिखती है। जनसत्ता के संपादकीय पन्नों के अलावा और क्या छपता है ये हम सब जानते हैं।

मेरी समझ में हमारे समय का समाचार तंत्र (अखबार और खबरिया चैनल्स, दोनों) बहुत कुछ शेयर बाजार की तरह काम कर रहा है। ये हर दिन कुछ खबरें उछालता है, कुछ गिराता है। इसका सूचकांक आदमी की भावनाएं हैं, जिनसे ये खेलता है। ये दरअसल बाजार का लोकतंत्र है। ये हमारे टीवी समाचारों में भी दिखता है और अखबारों में भी। टीवी में ज्यादा हो सकता है पर क्या अखबार किसी खबर को नहीं उछालते और दूसरे-तीसरे-चौथे दिन उससे संबंधित खबरें पहले पन्ने पर नहीं छपतीं ? इन दूसरे-तीसरे-चौथे दिन की खबरों को गौर से जरा पढ़ें, क्या इनके पहले-दूसरे पैराग्राफ को छोड़ कर बाकी केवल बैकग्राउंड मैटीरियल नहीं होता ?

टीवी समाचारों की बात करें तो जाहिर-सी बात है कि बाजार का समाजशास्त्र इसके पीछे काम करता है। एक खबर को उछाला तो कई घंटे तक उछालते रहे औऱ फिर अगले दिन वो खबर कहां गयी, इसका कोई पता नहीं। निश्चित रूप से ये टीआरपी का खेल (जो खुद एक विवादित विषय है ॥ कि 1।15 अरब लोगों के देश के कुछ हजार लोगों का ही ये प्रतिनिधित्व करता है)। लेकिन इसी टीआरपी पर चलना संपादकों की मजबूरी भी है (इससे अच्छा विकल्प फिलहाल उनके पास नहीं है। डीटीएच के जरिए दर्शकों को नापने का मैकेनिज्म विकसित होने में अभी समय लगेगा), क्योंकि ये ही तय करता है कि चैनल्स को विज्ञापन कहां से मिलेंगे, पैसा कहां से आएगा। पर क्या ये सच नहीं है कि अखबार भी ऐसे ही नहीं हैं। नहीं तो क्यों अखबार पूरे पृष्ठों का विज्ञापन छापते हैं या क्यों पहले पन्ने का एक कोना विज्ञापन के लिए रिजर्व रखा जाता है। या फिर क्यों आईआरएस के नतीजे आने पर अखबार नंबर-1, नंबर-2 का शोर मचाते रहते हैं। ये बाजार का ही लोकतंत्र है कि हमारे समय के बिजनेस चैनल कंपनियों के चेयरमैन को प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद पहले अपने चैनल पर लाने के लिए लड़ते रहते हैं। यदि एक कंपनी का चेयरमैन एक बिजनेस चैनल पर पहले दिख गया तो दूसरा बिजनेस चैनल उस चेयरमैन का बायकॉट कर देता है क्योंकि दोनों चैनल्स जानते हैं कि चेयरमैन के पहली बार दिखने पर ही उस कंपनी का शेयर स्टॉक मार्केट में उछलेगा या गिरेगा। दूसरी बार में नहीं। दिलीपजी, आप भी इस बात से अवगत होंगे कि एक चेयरमैन या सीईओ यदि एनडीटीवी प्रॉफिट पर दिखता है तो सीएनबीसी और आवाज उसका बायकॉट कर देते हैं और अविनाशजी आपके लिए कि ठीक ऐसा ही एनडीटीवी प्रॉफिट भी करता है ... कि फील्ड में उस स्थान पर मौजूद चैनल्स के रिपोर्टर्स ऐसा सीन क्रिएट करते हैं कि एक भला आदमी वहां से हटने में ही भलाई समझता है।

प्रिंट और टीवी न्यूज की बात करें तो क्या ये नहीं है कि टीवी न्यूज में दिखाए जाने वाले क्रिकेट, सिनेमा, क्राइम और सेक्स अखबारों द्वारा शुरू की गयी परंपरा का विस्तार नहीं है। क्या अखबारों ने इसकी शुरूआत नहीं की ? अंग्रेजी अखबारों में शुरू हुआ ये सिलसिला क्या अब हिंदी अखबारों से अछूता रह गया है जहां रंगीन पन्नों में हीरोइनों, मॉडल्स की अधनंगी तस्वीरें प्रमुखता से छपतीं हैं। रवीशजी ने ठीक ही सवाल उठाया है(जो शायद उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा था) कि अखबारों में क्यों केवल लड़कियों की तस्वीरें ही छपती हैं ॥ बारिश हो तो भीगती लड़की, धूप हो तो छाते में लड़की ...। क्या ये खबरों को बेचने का तरीका नहीं है ? क्या टीवी में दिखने वाले अपराध, हिंसा, बलात्कार की खबरें अखबारों की ओरिजिनल पेज-तीन पर छपने वाले लूट-मार, हत्या, बलात्कार की खबरों का विस्तार नहीं है ? क्या अखबारों ने इस परंपरा की शुरूआत नहीं की थी या क्या अखबारों ने आज इसे प्रमुखता देना बंद कर दिया है ? कई स्थानीय अखबार तो आज भी इन्हीं की बदौलत चलते हैं और क्या इसकी वजह से ही राष्ट्रीय अखबारों ने अपने स्थानीय संस्करण को भी एक ही राज्य के भीतर कई टुकड़ों में नहीं तोड़ दिया ? क्या भूत-प्रेत की खबरें अखबारों के परिशिष्ट के आखिरी पन्नों पर आज भी प्रमुखता से नहीं छपतीं ? या क्या अखबारों ने खेल के पन्नों को केवल और केवल क्रिकेट की खबरों से नहीं रंगा ?

अंतर बस इतना है कि अखबार दिन में केवल एक बार छपते हैं, टीवी चौबीसों घंटे दिखता है। टीवी ज्यादा प्रभावी है क्योंकि दृश्य मीडियम है और विजुअल्स आंखों में अनजाने में भी समा ही जाते हैं॥ अखबारों की खबरों को कल्पना के जरिए साकार करना पड़ता है। पर क्या ये सभ्यता के विकास की चिरंतन परंपरा नहीं है जो आदिमानव से मानव और जंगल से शहर/महानगर तक लाती है ? तो रोना उस वक्त रोएं जब अखबार खुद पाक साफ हों। टीवी में स्थानीय खबरों की प्रमुखता भी अखबारों की ही देन है और राजधानी दिल्ली की छोटी खबरों को बड़ा बनाना भी।

हां, ये जरूर है कि कई बार या अक्सर टीवी न्यूज अति की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है। लेकिन टीवी न्यूज चैनल्स भी वक्त के साथ बड़े हो रहे हैं और विकसित हो रहे हैं। लेकिन इसमें समय लगेगा। ये न्यूज चैनल्स के लिए ट्रांजीशन का दौर है॥ एक चोला उतार कर दूसरे को अपनाने की, उसमें समाने की तैयारी हो रही है। पर क्या ऐसा ही हमारे समाज के साथ नहीं है ? टीवी ने समाज को बदला है तो समाज ने टीवी को भी बदला है और दोनों एक-दूसरे को निरंतर बदल रहे हैं। जब ताली बजती है तो ये बताना मुश्किल होता है कि बांए हाथ का योगदान ज्यादा रहा या दाएं हाथ का। टीवी और समाज के साथ भी ऐसा ही है। ठेठ भाषा में कहें तो दूरदर्शन के दिनों को गिन कर ये टीवी समाचारों के गदह-पचीसी के दिन हैं और निजी चैनल्स के आने के समय से जोड़ें तो बचपना है। हम सब इसे बदलने को इतने साकांक्ष हैं पर हम सब में से किसी ने भी इस बदलाव के लिए अभी तक अपनी कोई योजना नहीं दी, अपना कोई मॉडल नहीं दिया है। हम सब केवल अतीत और एस पी को याद कर के स्यापा कर रहे हैं।

क्यों न्यूज चैनल्स द्वारा किए जा रहे मीडिया ट्रायल्स को लोग देख रहे हैं या और बेशर्म हो कर कहें तो क्यों इन ट्रायल्स को टीआरपी मिल रही है ? (टीआरपी पर चाहे जितना विवाद हो, पर इसका मतलब है कि कुछ लोग तो इसे देख रहे हैं)। मैं इनकी पैरवी नहीं कर रहा लेकिन क्या ये हमारी न्याय व्यवस्था पर टिप्पणी नहीं है ? उम्र बीत जाती है, पीढ़ी-दर-पीढ़ी लगी रहती है कोर्ट केस को निपटाने में। ऐसे में, क्या मीडिया ट्रायल्स लोगों को एक विकल्प नहीं देते या थोड़ी देर के लिए ही सही पर खुशी नहीं देते ? हम सब डरते हैं पुलिस के पास जाने से कि कहीं हम ही न फंस जाएं और टीवी न्यूज चैनल्स लोगों के इसी भय को एक्सप्लॉइट कर रहे हैं। फिर भी लोग आ रहे हैं क्योंकि लोगों को एक इंस्टैंट जस्टिस की उम्मीद बंधती है।

मीडिया ऑर्गनाइजेशन के भीतर की बात करें तो क्या वो सारी बातें अखबारों के दफ्तरों में नहीं होती जो टीवी चैनल्स के न्यूज रूम के भीतर होती है। अखबारों में छह बजे शाम से संस्करण निकलने तक की जो रोजाना का तरीका है, वो क्या चौबीसों घंटे चलने वाले न्यूज चैनल्स के न्यूज रूम से कितना अलग है ? क्या अखबारों में इंटर्न्स का शोषण नहीं होता ? कम या ज्यादा, ये तुलना करने का विषय हो सकता है।

दिलीपजी ठीक कहते हैं कि जैसी पत्रकारिता अब होती है, वैसी पहले नहीं होती थी। अब ये हम पर है कि हम इसे किस तरह के चश्मे से देखते हैं। 50 साल पहले की बात करेंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी क्योंकि संदर्भ बदल गए हैं, परिभाषाएं बदल गयी हैं, मुहावरे बदल गए हैं और परिवेश बदल गया है। हमारा मीडिया हमारे समय का आईना है और हमारा समय हमारे मीडिया का आईना है। दोनों ही बातें सच हैं।

इस बहस में पड़ने का कोई तुक नहीं है कि पत्रकारिता का स्वर्णकाल कब था या कब होगा ? वर्तमान में जीने की आदत हमें होनी चाहिए और वर्तमान ही हमारा स्वर्णकाल हो सकता है। 50 साल पहले की परिभाषाएं हमारे समय पर फिट नहीं बैठतीं। अपने समय के लिए परिभाषाएं हमें खुद गढ़नी होगी और ये ही हमारा स्वर्णकाल हो सकता है। अतीत का रोना रोते रहना विकल्प नहीं है। हमें वर्तमान में जीने की आदत होनी चाहिए और भविष्य के लिए रास्ता तैयार करना चाहिए। नहीं तो एह एकालाप करते रहेंगे, दुनिया आगे निकल जाएगी।

ये भी सत्य है कि हमारे समय की पीढ़ी, जिसे आप नयी पीढ़ी कह सकते हैं, वो आज मीडिया में, टीवी न्यूज में प्रतिबद्धता के लिए नहीं, नौकरी के लिए आती है। यहां हम मान कर चलते हैं कि हमें कम-से-कम 12-13 घंटे की नौकरी करनी है ताकि हम अपने लिए (किसी दूसरी नौकरी के माफिक ही) सुख-सुविधा के साधन जुटा सकें। टीवी में दिखना एक एडेड ग्लैमर है। न्यूज चैनल में काम करना हमारी पीढ़ी के लिए एक नौकरी ही है और यदि कोई किसी चीज के लिए प्रतिबद्ध है तो इस नौकरी से प्रतिबद्धता कहीं कम नहीं होती। यदि कोई कहता है कि वो टीवी में किसी प्रतिबद्घता के साथ, किसी मिशन के तहत आया है, तो वो या तो पथभ्रष्ट देवता है(जिसकी यहां जरुरत नहीं है) या फिर झूठ बोल रहा है। और आज नौकरी के हर क्षेत्र में कमोबेश ऐसी ही बात है। नहीं तो प्रतिबद्धता का ढोल पीटने वाले हजारों एनजीओज के बावजूद इस देश में केवल एक ही मेधा पाटकर, एक ही बाबा आम्टे, एक ही अन्ना हजारे, एक ही सुनीता नारायण, एक ही अरविंद केजरीवाल, एक ही एस पी सिंह और एक ही राजेंद्र माथुर क्यों उभर कर आते हैं ?

आज टीवी में काम करने के लिए आने वाली नयी पीढ़ी इस ग्लैमर के लिए आ रही है, जो उन्हें विद्यार्थी जीवन में दिखता है और जिसकी बदौलत वो रातों-रात दीपक चौरसिया या राजदीप सरदेसाई या रवीश कुमार बनने का सपना देखते हैं। फिर जब जमीनी सच्चाई का सामना करना पड़ता है, तो कोई उसमें से राह निकाल लेता है, कोई नियति मान कर स्वीकार कर लेता है, तो कोई भगोड़ा बन बैठता है। क्या ये सच नहीं है कि आज के बहुत-से पत्रकार इस दुनिया में उस वक्त आए, जब वो सरकारी नौकरी के लायक नहीं रहे और प्राइवेट सेक्टर ने उन्हें लिया नहीं.. मां-बाप से आंख मिलाने की हिम्मत नहीं रही तो कोई सेटिंग की, कोई कोर्स किया और पत्रकार बन गए। क्या ये चेलावाद का अप्रतिम नमूना नहीं है।

अब जो नयी पीढी पत्रकारिता जगत में आ रही है, उसके लिए ये केवल नौकरी है, जिसे वो कॉलेज से निकलने के बाद / कोर्स खत्म करने के बाद शुरू करता है। इस पीढी ने एस पी को नहीं देखा है और देखना भी नहीं चाहता है क्योंकि आज की पत्रकारिता में नियुक्ति की प्रक्रिया इतनी धुंधली है कि युवावस्था के जोश में जो भी थोड़े-बहुत सपने होते हैं या तथाकथित प्रतिबद्धता होती है, वो मिट्टी में मिल जाती है। इस पीढ़ी के पास एस पी की यादें या तो बिल्कुल नहीं हैं या फिर थोड़ी-बहुत धुंधली यादें हैं। इन धुंधली यादों में केवल इतना है कि एक दाढ़ी वाले शख्स थे, जो आधे घंटे के समाचार पढ़ते थे पर उनके तेवर तत्कालीन दूरदर्शनी समाचारों के तेवर से बिल्कुल अलग थे। वो मोनोटोनस नहीं थे, बोर नहीं करते थे। उनको केवल आधे घंटे देखने के बाद ये कसक उठती थी कि दूरदर्शनी/आकाशवाणी के समाचारों से अलग दिखने वाला ये शख्स और क्यों नहीं दिखता ? पर इसके पीछे के समाजशास्त्र से हमारी पीढ़ी को कोई लेना-देना नहीं रहा, ये तो बस भावनाओं की बात थी/है। और इसलिए हमारी पीढ़ी के लिए पत्रकारिता एक ऐसी नौकरी है, जिसमें कॉल सेंटर, प्राइवेट सेक्टर या सरकारी नौकरी से ज्यादा ग्लैमर है और रातों-रात प्रसिद्ध होने की संभावनाएं बहुत ज्यादा है। ये अलग बात है कि हकीकत का साक्षात्कार होते ही आधे लोग भाग खड़े होते हैं॥ कि ये करियर के तौर पर भी उतना ही डिमान्डिंग है, जितना कि एमबीए करके कोई नौकरी करना।

मैं दिलीपजी की इस बात से भी असहमत हूं कि नया नायक या खलनायक कौन है, इसे दर्शकों का लोकतंत्र तय करता है। दर्शकों के च्वाइस की जो बात दिलीपजी करते हैं वो भी एक हद तक ही सही है। ये दर्शकों को रिजेक्ट करने की स्वतंत्रता भी नहीं दे रहा है और न ही अच्छा और गंदा देखने की च्वाइस। ये बाजार का लोकतंत्र है जो दर्शकों को मानों चार ऑप्शन दे रहा है कि इनमें से जो पसंद है उसे चुन लो पर चलेंगे इन्ही में से। दर्शक जब जिसे चाहे उसकी छुट्टी नहीं कर सकता। आपको बस इनमें से चुनने की स्वतंत्रता है। बाजार के इस लोकतंत्र में सभी चीजें तय हैं, आप जिसे चाहे चुन लें पर अपनी तरफ से कुछ नहीं जोड़ सकते। कभी जुड़ी भी तो वो नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह जाएगी और उसका मोल भी बाजार के लोकतंत्र में उतना ही है।

रोने से कोई हल नहीं निकलने वाला। टीवी न्यूज की अगंभीरता अखबारी खबरों का ही विस्तार है जो मौलिक पेज-तीन पर छपती रही हैं और जहां आज भी हिंसा-लूट-पाट-हत्या-बलात्कार की खबरों का ही वर्चस्व और बाहुल्य है।

सिद्धांत और आदर्श की बात करें तो क्या ईमानदारी से कोई बताएगा कि आजादी के बाद की अखबारी पत्रकारिता कितने सिद्धांतों, कितने आदर्शों पर चली और कितनी चाटुकारिता पर ? क्या मुख्यधारा के अखबारों का सत्ता तंत्र को समर्थन नहीं रहा या अखबारों ने दंगे भड़काने में योगदान नहीं दिया। आडवाणी की पहली रथ यात्रा के दौरान तो टीवी न्यूज के नाम पर बस दूरदर्शन था, फिर इतने लोग एक छद्म मंदिर के नाम पर कैसे भ्रमित कर दिए गए ? ये सरकारी रिपोर्ट ही है जो कहती है कि 2002 में गुजरात में दंगे भड़काने में सबसे बड़ा हाथ वहां के कुछ स्थानीय अखबारों की बायज्ड रिपोर्टिंग का था। टीवी मीडिया ने तो इसके खिलाफ इतना शोर मचाया कि संसद का विशेष सत्र वाजपेयीजी को बुलाना पड़ गया।

तो कहना यही है कि सब के अपने पक्ष और विपक्ष हैं और हम सब अपनी जरूरतों के मुताबिक तर्क गढ़ लेते हैं जो हमारे ईगो को संतोष पहुंचाता है।

तो कुल मिला कर ये ही है कि हमारे समय की पत्रकारिता हमारे ही समय का प्रतिनिधित्व करती है। जैसा समाज है, वैसी पत्रकारिता है और ये भी सच है कि पत्रकारिता का समाज पर यदि असर है तो समाज पर भी पत्रकारिता का खासा असर है।

तो सच ये भी है कि टीवी पत्रकारिता अखबारी पत्रकारिता का ही एक्सटेंशन है और इसने अपने मानक, मॉडल सभी अखबारों से ही गढ़े हैं। ये अखबारों की ही अगली कड़ी है। इसने सब कुछ अखबार से ही उठाया और अब उसे एक नया आयाम दे रही है (गलत भी, सही भी)।

तो सच ये भी है कि
... टीवी पत्रकारिता का ये बचपन या कैशोर्यावस्था का दौर है और अभी इसे और विकसित होना है।
... इस पूत ने पालने में ही पैर दिखा दिए हैं
... पत्रकारिता के स्तर पर स्यापा करने से कुछ नहीं होने वाला, हम सब इस हम्माम में नंगे हैं
... एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने से कुछ नहीं मिलने वाला और न ही गलबहियां डाल कर रोने से परिदृश्य बदलने वाला है। या तो हम-आप-वो मिल कर इसे बदलने में लगें या फिर समय के अनुकूल बन कर अपना मुंह बंद रखें और तमाशा देखें। च्वाइस हमारी होगी कि हम क्या करेंगे ?
... चेलावाद की अखबारी परंपरा टीवी न्यूज में उग्रतर होती जा रही है

और सच ये भी है कि हमारे समाचार तंत्र में आम आदमी कहीं नहीं है। ये तंत्र बाजार के लोकतंत्र से चलता है, जिसमें हमको-आपको चुनने के लिए कुछ ऑपशंस हैं, पर अलग से कुछ नया जोड़ने की इजाजत नहीं है। आपको इन्हीं में से पसंद और नापसंद करना होगा।

धन्यवाद।

शनिवार, 16 जून 2007

शहरोज़ की एक कविता

मुझे नहीं मालूम कि शहरोज़ कौन हैं, लेकिन कविता अच्छी लिखते हैं ( हालांकि उन्हें मेरे सर्टिफिकेट की जरुरत नहीं है) । ये कविता बीबीसी हिन्दी के साइट से उठायी है... अपनी-सी लगती है। कम शब्दों में इतने अच्छे से उस बात को कह गए हैं वो, जो शायद हमारी पीढ़ी की सबसे बड़ी इच्छा रही औऱ अब सबसे बड़ी पीड़ा है।


दिल्ली आकर

गाँव में थे
क़स्बे से आए व्यक्ति को
घूर-घूर कर देखते।

क़स्बे में थे
शहर से आए उस रिक्शे के पीछे-पीछे भागते
जिस पर सिनेमा का पोस्टर चिपका होता।

शहर में आए
महानगर का सपना देखते।

दिल्ली आकर
गाँव जाने का ख़ूब जी करता है।

- शहरोज़
ई-11, सादतपुर,
दिल्ली-110094

मैं, तुम और फिल्म

यह मेरी अपनी कविता है ... खालिस अपनी । इसे लिखा तो कई वर्षों पहले था और पहली बार जब ब्लॉग की दुनिया से जुड़ा था तो इसे ही पोस्ट किया था । यह कविता आज भी www.hastakshep.multiply.com पर मौजूद है। यह अलग बात है कि उसकी कुंजी खुद भूल चूका हूँ । बहरहाल, इस ब्लॉग पर भी अपनी रचना के साथ पहली उपस्थिति इसी कविता के जरिये हो रही है। लेकिन यह महज एक संयोग से ज्यादा कुछ भी नहीं है क्योंकि इसे पुराने ब्लॉग से सीधे कट कर यहां पेस्ट कर रहा हूं। कविता लिखने के क्रम में ही एक बार ये भी लिखी गयी थी, दिल से में इसकी कोई विशेष जगह की बात बिल्कुल भी नहीं है। दिल से जुड़ीं कवितायेँ तो कुछ और ही हैं , जिसे फिर कभी पोस्ट करुंगा


मैं अमिताभ बच्चन नहीं हूं
कि गाता चलूं
" मैं और मेरी तन्हाई ॰॰॰"
पर अपने एकाकी पलों में
मैं भी कुछ ऐसा ही सोचता हूं
चाहता हूं कि
काश ! तुम मेरे पास होतीं
मुझसे बातें करतीं
और मैं तुम्हें निहारता रहता
अपलक ॰॰॰॰॰

फिल्मी लग रहा है न मेरा अंदाज ?
क्या करोगी
आजकल सामान्य भारतीय
सिनेमाई अंदाज में ही
हंसता-गाता-रोता-जीता है

मैंने कहा न
मैं अमिताभ बच्चन नहीं हूं
वो एंग्री यंगमैन था
सारी दुनिया से लड़ कर अपनी प्रेमिका को पा सकता था,
मैं नहीं ॰॰॰

मैं दिलीप कुमार भी नहीं हूं कि
गम में तुम्हारे
टेसूए बहाता चलूं
अरे॰॰ तुम नहीं तो कोई और सही
वो भी नहीं तो
कोई तीसरी सही ॰॰॰

हां, शाहरुख खान की एनर्जी और
अगंभीरता
मुझे प्रभावित करती है
मैं भी वैसा ही बनना चाहता हूं
ताकि विपरीत समय में भी हंसता रहूं

विषयांतर हो गया लगता है॰॰॰ नहीं ?
कहां-कहां की बातें कर बैठा
पर क्या करूं ?
जानता हूँ
कि तुम्हें पाने की कीमत देनी होगी

पद-पैसा-प्रतिष्ठा के बिना आदमी का कोई मोल नहीं होता

इसी 'प' अक्षर को पाने में लगा हूँ
इंतज़ार करो तब तक
यदि कर सको तो ॰॰?

ज्ञानेंद्रपति की तीन कविताएँ

ज्ञानेंद्रपति की ये कविताएं बीबीसी हिन्दी के वेबसाइट पर पढ़ी थी। दिल में उतर गयी, उतरने लायक हैं भी। कम शब्दों में अपनी बात कहना एक बहुत बड़ी कला है और ये कविता इसका एक बढ़िया उदाहरण है। बहरहाल ज्ञानेंद्रपति से अपना कोई परिचय नहीं है, कवि और पाठक के रिश्ते के अलावा। बिना उनकी इजाजत के ये कविताएं यहां पोस्ट कर रहा हूं। क्षमा याचित है लेकिन मेरे इस विश्वास से शायद वो भी सहमत होंगे कि अच्छी चीजें लोगों तक पहुंचनी चाहिए। हालांकि इसका आर्थिक पक्ष ये है कि मुफ्त में ही क्यों ... पर ये एक अलग बहस है, जिस पर बात फिर कभी


[ 1 ]

क्यों न क्यों न कुछ निराला लिखें
इक नई देवमाला लिखें
अंधेरे का राज चौतरफ़
एक तीली उजाला लिखें
सच का मुँह चूम कर
झूठ का मुँह काला लिखें
कला भूल, कविता कराला लिखें
न आला लिखें, निराला लिखें
अमरित की जगह विष-प्याला लिखें
इक नई देवमाला लिखें
खल पोतें दुन्या पर एक ही रंग
हम बैनीआहपीनाला लिखें

--# दुन्या - दुनिया
#बैनीआहपीनाला - इंद्रधनुष के सात रंग

***********************************

हिंदी के लेखक के घर

न हो नगदी कुछ ख़ास
न हो बैंक बैलेंस भरोसेमंद
हिंदी के लेखक के घर, लेकिन
शाल-दुशालों का
जमा हो ही जाता है ज़ख़ीरा
सूखा-सूखी सम्मानित होने के अवसर आते ही रहते हैं
(और कुछ नहीं तो हिंदी-दिवस के सालाना मौके पर ही)
पुष्प-गुच्छ को आगे किए आते ही रहते हैं दुशाले
महत्त्व-कातर महामहिम अंगुलियों से उढ़ाए जाते सश्रद्ध
धीरे-धीरे कपड़ों की अलमारी में उठ आती है एक टेकरी दुशालों की
हिंदी के लेखक के घर
शिशिर की जड़ाती रात में
जब लोगों को कनटोप पहनाती घूमती है शीतलहर
शहर की सड़कों पर
शून्य के आसपास गिर चुका होता है तापमान,
मानवीयता के साथ मौसम का भी
हाशिए की किकुड़ियाई अधनंगी ज़िंदगी के सामने से
निकलता हुआ लौटता है लेखक
सही-साबुत. और कंधों पर से नर्म-गर्म दुशाले को उतार,
एहतियात से चपत
दुशालों की उस टेकरी पर लिटाते हुए
ख़ुद को ही कहता है
मन-ही-मन
हिंदी का लेखक
कि वह अधपागल ‘निराला’ नहीं है बीते ज़माने का
और उसकी ताईद में बज उठती है
सेल-फ़ोन की घंटी

उसकी छाती पर
ग़रूर और ग्लानि के मिले-जुले
अजीबोग़रीब
एक लम्हे की दलदल से
उसे उबारती हुई

***********************************

एक टूटता हुआ घर


एक टूटते हुए घर की चीख़ें
दूर-दूर तक सुनी जाती हैं
कान दिए लोग सुनते हैं.
चेहरे पर कोफ़्त लपेटे

नींद की गोलियाँ निगलने पर भी
वह टूटता हुआ घर
सारी-सारी रात जगता है
और बहुत मद्धिम आवाज़ में कराहता है
तब, नींद के नाम पर एक बधिरता फैली होती है ज़माने पर
बस वह कराह बस्ती के तमाम अधबने मकानों में
जज़्ब होती रहती है चुपचाप
सुबह के पोचारे से पहले तक

****** ज्ञानेंद्रपति
बी-3/12, अन्नपूर्णा नगर
विद्यापीठ मार्ग
वाराणसी-221002
फोन-0542-2221039

हँसती रहने देना

बहुत सीधे-सपाट शब्दों में लिखी गयी ये कविता है, जो अज्ञेय की खासियत शायद नहीं है। अगर मैं गलत हूं तो हिन्दी वाले कृपया मुझे माफ करें। लेकिन पत्नी को इतना अच्छा संबोधन इतने कम शब्दों में .... एक बार तो पढ़ना लाजिमी है


जब आवे दिन
तब देह बुझे या टूटे
इन आँखों को हँसती रहने देना!

हाथों ने बहुत अनर्थ किये
पग ठौर-कुठौर चले
मन के
आगे भी खोटे लक्ष्य रहे
वाणी ने (जाने अनजाने) सौ झूठ कहे

पर आँखों ने
हार, दुःख, अवसान, मृत्यु का
अँधकार भी देखा तो
सच-सच देखा

इस पार
उन्हें जब आवे दिन
ले जावे
पर उस पार
उन्हें
फिर भी आलोक कथा
सच्ची कहने देना
अपलक
हँसती रहने देना
जब आवे दिन!

- अज्ञेय

यह दीप अकेला

अज्ञेय की इस कविता के कृपया बोल्ड किए हुए अंश देखें। प्रेरित करता है कुछ करते रहने को ... ठीक 'एकला चलो रे' के माफिक



यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता
पर इसको भी पंक्ति को दे दो

यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा?
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा
यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो

यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय
यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
इस को भी शक्ति को दे दो

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो

यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो

- अज्ञेय

ब्राह्म मुहूर्त

पिताजी अक्सर ये कविता सुनाते थे ... औऱ अनकहे ही बहुत सारी बातें कह जाते थे । उनकी आकांक्षाएं, पीड़ा, वेदना ... सब सिर-माथे। इस की पंक्तियां तो लगता है जैसे कि दिमाग में चित्रित हैं। शायद उनसे न सुनता तो अर्थ कुछ दूसरे होते या देर से समझ आते। मेरी सर्वकालिक पसंदीदा कविताओं में से एक



जियो उस प्यार में
जो मैने तुम्हें दिया है
उस दुख में नहीं
जिसे बेझिझक मैंने पिया है

उस गान में जियो
जो मैंने तुम्हें सुनाया है
उस आह में नहीं
जिसे मैंने तुम से छिपाया है

उस द्वार से गुज़रो
जो मैंने तुम्हारे लिये खोला है
उस अंधकार के लिये नहीं
जिसकी गहराई को बार-बार
मैंने तुम्हारी रक्षा की
भावना से टटोला है

वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं असीसों से बुनता हूँ, बुनूँगा
वे काँटे गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूँ, चुनूँगा

वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे लिये बनाता हूँ बनाता रहूँगा
मैं जो रोड़ा हूँ उसे हथौड़े से तोड़ तोड़
मैं जो कारीगर हूँ करीने से
सँवारता सजाता हूँ, सजाता रहूंगा

सागर के किनारे तक
तुम्हें पहुँचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो
फिर वहाँ जो लहर हो तारा हो
सोन तरी हो अरुण सवेरा हो
वह सब ओ मेरे वर्य!

तुम्हारा हो, तुम्हारा हो, तुम्हारा हो!

- अज्ञेय

नया कवि : आत्म-स्वीकार

ये कविता बहुत हद तक मेरे ही जैसों के लिए है, जो उभरना चाहते हैं, खुशफहमी में रहते हैं... वगैरह-वगैरह । ईमानदारी से ये मेरे लिए ही है


किसी का सत्य था,
मैंने संदर्भ में जोड़ दिया ।
कोई मधुकोष काट लाया था,
मैंने निचोड़ लिया ।

किसी की उक्ति में गरिमा थी
मैंने उसे थोड़ा-सा संवार दिया,
किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था
मैंने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया ।

कोई हुनरमन्द था:
मैंने देखा और कहा, 'यों!
'थका भारवाही पाया -
घुड़का या कोंच दिया, 'क्यों!'

किसी की पौध थी,
मैंने सींची और बढ़ने पर अपना ली।
किसी की लगाई लता थी,
मैंने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली ।

किसी की कली थी
मैंने अनदेखे में बीन ली,
किसी की बात थी
मैंने मुँह से छीन ली ।

यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ:
काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ?
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें ।
पर प्रतिमा--अरे, वह तो
जैसी आप को रुचे आप स्वयं गढ़ें ।

- अज्ञेय

उड़ चल हारिल

अज्ञेय की कुछ रचनाएं मेरी 'ऑल टाइम फेवरिट' है औऱ ये कविता उन्हीं में से एक है

उड़ चल हारिल लिये हाथ में
यही अकेला ओछा तिनका
उषा जाग उठी प्राची में
कैसी बाट, भरोसा किन का!

शक्ति रहे तेरे हाथों में
छूट न जाय यह चाह सृजन की
शक्ति रहे तेरे हाथों में
रुक न जाय यह गति जीवन की!

ऊपर ऊपर ऊपर ऊपर
बढ़ा चीरता चल दिग्मण्डल
अनथक पंखों की चोटों से
नभ में एक मचा दे हलचल!

तिनका तेरे हाथों में है
अमर एक रचना का साधन
तिनका तेरे पंजे में है
विधना के प्राणों का स्पंदन!

काँप न यद्यपि दसों दिशा में
तुझे शून्य नभ घेर रहा है
रुक न यद्यपि उपहास जगत का
तुझको पथ से हेर रहा है!

तू मिट्टी था, किन्तु आज मिट्टी को
तूने बाँध लिया है
तू था सृष्टि किन्तु सृष्टा का गुर
तूने पहचान लिया है!

मिट्टी निश्चय है यथार्थ पर
क्या जीवन केवल मिट्टी है?
तू मिट्टी, पर मिट्टी से
उठने की इच्छा किसने दी है?

आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का
तू है दुर्निवार हरकारा
दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह तिनका
सूने पथ का एक सहारा!

मिट्टी से जो छीन लिया है
वह तज देना धर्म नहीं है
जीवन साधन की अवहेला
कर्मवीर का कर्म नहीं है!

तिनका पथ की धूल स्वयं तू
है अनंत की पावन धूली
किन्तु आज तूने नभ पथ में
क्षण में बद्ध अमरता छू ली!

ऊषा जाग उठी प्राची में
आवाहन यह नूतन दिन का
उड़ चल हारिल लिये हाथ में
एक अकेला पावन तिनका!

- अज्ञेय

दुष्यन्त की शाइरी - 1

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

- दुष्यन्त कुमार

दुष्यन्त की शाइरी - 2

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

- दुष्यन्त कुमार

एक आशीर्वाद / दुष्यन्त कुमार की कविता

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद-तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना-मचलना सीखें।

हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।

हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

- दुष्यन्त कुमार

मंगलवार, 12 जून 2007

आम्र-बौर का गीत

क्या आपने कनुप्रिया पढ़ी है। कनु यानी कृष्ण की प्रिया कनुप्रिया या राधा। पसंद आपकी। लेकिन इन पंक्तियों को जरा पढ़ें। प्रेम की एक नई परिभाषा धर्मवीर भारती कनुप्रिया के जरिए देते हैं। इसका एक और अंश 'तुम मेरे कौन हो कनु' भी जल्दी ही पोस्ट करूंगा।



यह जो मैं कभी-कभी चरम साक्षात्कार के क्षणों में
बिलकुल जड़ और निस्पन्द हो जाती हूँ
इस का मर्म तुम समझते क्यों नहीं मेरे साँवरे!

तुम्हारी जन्म-जन्मान्तर की रहस्य्मयी लीला की एकान्त संगिनी मैं
इन क्षणों में अकस्मात
तुम से पृथक नहीं हो जाती हूँ मेरे प्राण,
तुम यह क्यों नहीं समझ पाते
कि लाज
सिर्फ जिस्म की नहीं होती
मन की भी होती है
एक मधुर भय
एक अनजाना संशय,
एक आग्रह भरा गोपन,
एक निर्व्याख्या वेदना,
उदासी,
जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी
अभिभूत कर लेती है।
भय,
संशय,
गोपन,
उदासी
ये सभी ढीठ, चंचल, सरचढ़ी सहेलियों की तरह
मुझे घेर लेती हैं,
और मैं कितना चाह कर भी
तुम्हारे पास ठीक उसी समय
नहीं पहुँच पाती जब आम्र मंजरियों के नीचे
अपनी बाँसुरी में मेरा नाम भर कर तुम बुलाते हो!

उस दिन तुम उस बौर लदे आम की
झुकी डालियों से टिके कितनी देर मुझे वंशी से टेरते रहे
ढलते सूरज की उदास काँपती किरणें
तुम्हारे माथे मे मोरपंखों से बेबस विदा माँगने लगीं
-मैं नहीं आयी

गायें कुछ क्षण तुम्हें अपनी भोली आँखों से
मुँह उठाये देखती रहीं और फिर
धीरे-धीरे नन्दगाँव की पगडण्डी पर
बिना तुम्हारे अपने-आप मुड़ गयीं
-मैं नहीं आयी

यमुना के घाट पर
मछुओं ने अपनी नावें बाँध दीं
और
कन्धों पर पतवारें रख चले गये
-मैं नहीं आयी

तुम ने वंशी होठों से हटा ली थी
और उदास, मौन, तुम आम्र-वृक्ष की जड़ों से टिक कर
बैठ गये थे
और बैठे रहे, बैठे रहे, बैठे रहे

- मैं नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी

तुम अन्त में उठे
एक झुकी डाल पर खिला एक बौर तुम ने तोड़ा
और धीरे-धीरे चल दिये
अनमने तुम्हारे पाँव पगडण्डी पर चल रहे थे
पर जानते हो तुम्हारे अनजान में ही तुम्हारी उँगलियाँ
क्या कर रही थीं!

वे उस आम्र मंजरी को चूर-चूर कर
श्यामल वनघासों में बिछी उस
माँग-सी उजली पगडण्डी पर
बिखेर रही थीं

.....यह तुमने क्या किया प्रिय!
क्या अपने अनजाने में ही
उस आम के बौर से
मेरी क्वाँरी उजली पवित्र माँग
भर रहे थे साँवरे?
पर मुझे देखो कि मैं
उस समय भी तो माथा नीचा कर
इस अलौकिक सुहाग से प्रदीप्त हो कर
माथे पर पल्ला डाल कर
झुक कर तुम्हारी चरणधूलि ले कर
तुम्हें प्रणाम करने

- नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी!

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पर मेरे प्राण
यह क्यों भूल जाते हो कि मैं वही
बावली लड़की हूँ न जो - कदम्ब के नीचे बैठ कर
जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को
तोड़ कर, मसल कर, उन की लाली से मेरे पाँव को
महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हो
तो मैं लाज से धनुष की तरह दोहरी हो जाती हूँ
अपनी दोनों बाँहों में अपने घुटने कस
मुँह फेर कर निश्चल बैठ जाती हूँ
पर शाम को जब घर आती हूँ तो
निभॄत एकान्त में दीपक के मन्द आलोक में
अपनी उन्हीं चरणों को
अपलक निहारती हूँ
बावली-सी उन्हें बार-बार प्यार करती हूँ
जल्दी-जल्दी में अधबनी महावर की रेखाओं को
चारों ओर देख कर धीमे-से
चूम लेती हूँ।

***

रात गहरा आयी है
और तुम चले गये हो
और मैं कितनी देर तक बाँह से
उसी आम्र डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हूँ
जिस पर टिक कर तुम मेरी प्रतीक्षा करते हो

और मैं लौट रही हूँ,
हताश,
और निष्फल
और ये आम के बौर के कण-कण
मेरे पाँव मे बुरी तरह साल रहे हैं।
पर तुम्हें यह कौन बतायेगा साँवरे
कि देर ही में सही
पर मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी
और माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखरे
ये मंजरी-कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो
इसी लिए न कि इतना लम्बा रास्ता
कितनी जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है
और काँटों और काँकरियों से
मेरे पाँव किस बुरी तरह घायल हो गये हैं!

यह कैसे बताऊँ तुम्हें
कि चरम साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी
जो कभी-कभी मेरे हाथ से छूट जाते हैं
तुम्हारी मर्म-पुकार जो कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती
तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती
तो मेरे साँवरे -लाज मन की भी होती है
एक अज्ञात भय,
अपरिचित संशय,
आग्रह भरा गोपन,
और सुख के क्षणमें भी
घिर आने वाली निर्व्याख्या उदासी

-फिर भी उसे चीर कर
देर में ही आऊँगी प्राण,
तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी
चन्दन-बाहों में भर कर बेसुध नहीं
कर दोगे?

- धर्मवीर भारती

समापन

क्या तुम ने उस वेला मुझे बुलाया था कनु?
लो, मैं सब छोड़-छाड़ कर आ गयी!

इसी लिए तब
मैं तुम में बूँद की तरह विलीन नहीं हुई थी,
इसी लिए मैं ने अस्वीकार कर दिया था
तुम्हारे गोलोक का
कालावधिहीन रास,

क्योंकि मुझे फिर आना था!

तुम ने मुझे पुकारा था न
मैं आ गयी हूँ कनु!

और जन्मान्तरों की अनन्त पगडण्डी के
कठिनतम मोड़ पर खड़ी हो कर
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ।
कि इस बार इतिहास बनाते समय
तुम अकेले न छूट जाओ!

सुनो मेरे प्यार!
प्रगाढ़ केलिक्षणों में अपनी अन्तरंगसखी को
तुम ने बाहों में गूँथा
पर उसे इतिहास में गूँथने से हिचक क्यों गये प्रभू?

बिना मेरे कोई भी अर्थ कैसे निकल पाता
तुम्हारे इतिहास का
शब्द, शब्द, शब्द ....
राधा के बिना
सब
रक्त के प्यासे
अर्थहीन शब्द!

सुनो मेरे प्यार!
तुम्हें मेरी जरूरत थी न, लो मैं सब छोड़ कर आ गयी हूँ
ताकि कोई यह न कहे
कि तुम्हारी अन्तरंग केलिसखी
केवल तुम्हारे साँवरे तन के नशीले संगीत की
लय बन कर रह गयी .........

मैं आ गयी हूँ प्रिय!
मेरी वेणी में अग्निपुष्प गुँथने वाली
तुम्हारी उँगलियाँ
अब इतिहास में अर्थ क्यों नहीं गूँथतीं?

तुम ने मुझे पुकारा था न!

मैं पगडण्डी के कठिनतम मोड़ पर
तुम्हारी प्रतीक्षा में
अडिग खड़ी हूँ, कनु मेरे!


- धर्मवीर भारती