शनिवार, 9 अप्रैल 2011

पेज-थ्री भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन उर्फ गंवाना मौका दूसरा जेपी बनने का

फुट नोट - अन्ना हजारे एवं साथियों के आंदोलन ने कई सालों से मेरे भीतर सोए पड़े एक्टिविस्ट को कुछ देर के लिए निश्चित रूप से जगा दिया। इस भाव को जान-बूझ कर कई सालों से मैं दबाता चला आ रहा था क्योंकि इससे उपजी उत्तेजना अगले कई दिनों तक मुझे असामान्य बनाए रखती है। लेकिन मेरे भीतर का एक्टिविस्ट फिर जग गया है .. चिर-विद्रोही मैं, थोड़े दिनों के लिए ही सही, फिर से सामने हूं। आप मेरी बातों का समर्थन करें या विरोध, वो आपकी भावना है और मैं उसका सम्मान करता हूं/करूंगा।


जी हां, अन्ना हजारे के आंदोलन के साथ ऐसा ही हुआ, ऐसा ही होने जा रहा है।

लोगों ने भरपूर समर्थन दिया इस आंदोलन को लेकिन ये तो बस इतनी सी बात को लेकर था कि आंदोलनकारियों द्वारा दिए गए जन लोकपाल बिल को सरकार मंजूरी दे। सरकार ने मंजूरी तो नहीं दी, बस एक कमिटी बना दी और आंदोलनकारियों के नेता वर्ग को उसका सदस्य बना दिया।

अब फिर से ये सारी बातें नौकरशाही के अंदाज में चलेंगी, मीटिंग पर मीटिंग, मीटिंग पर मीटिंग (सन्नी देओल के तारीख पर तारीख के ही अंदाज में) और नतीजा निकलेगा वही - ढ़ाक के तीन पात। नौकरशाही को सब्र रखना आता है, उसे ये पता है कि इस तरह के आंदोलनों से निपटने का सबसे अच्छा तरीका है - धैर्य। धीरज धरो, मामले को इतना लंबा खींच दो कि ये कभी खत्म न होने पावे (हरि अनंत, हरिकथा अनंता की तरह)। अब फिर से ये सारी बातें वर्षों तक सत्ता के गलियारों में मीटिंग्स के जरिए चलेंगी और चलती रहेंगी। नतीजा कुछ नहीं निकलने वाला।

मैं दुआ करूंगा कि मेरी बात झूठ निकले लेकिन मुझे उसके आसार कम ही नजर आते हैं। सत्ता तंत्र को पिछले कुछ सालों से काफी करीब से देखा और समझा है मैंने और मेरी समझ यही कहती है कि मुद्दा गया अब डस्टबिन में। ध्यान दीजिएगा कि जिस समिति को बनाने की घोषणा हुई है, उसको अपनी बातें और विचार-विमर्श खत्म करने के लिए कोई समय सीमा नहीं दी गई है।

मैं इसीलिए निराश हूं। मैंने इस आंदोलन का समर्थन अपनी सारे नकारात्मक धारणाओं के बावजूद किया था, क्योंकि इसके जरिए बदलाव की एक नई आशा की तलाश कर रहा था मैं। समय साक्षी है और रहेगा कि मेरी शंकाएं सत्य थीं और आगे भी रहेंगी।

निराश हूं क्योंकि मुझे लगा था कि बरसों बाद एक ऐसा मौका आया है जब भ्रष्टाचार या हमारी-आपकी रोज की कठिनाईयों पर सरकार को हिलाया जा सकता है। अन्ना हजारे साहब के आंदोलन को लगातार बढ़ते जा रहे जन समर्थन ने मेरी इस धारणा को पुष्ट ही किया था। चार दिनों से लगातार मैं इस बात का साक्षात्कार कर रहा था। कल शाम में तो विरोध के एक नए अंदाज को देख कर मैं आह्लादित हो उठा था। विरोध का नया अंदाज था लोगों को थाली-चम्मच बजाते हुए मार्च करना, मानों कह रहे हों कि मेरे घर का सारा राशन तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया, अब थाली-चम्मच बजाने के सिवाय कोई और रास्ता ही नहीं बचा।

लेकिन आंदोलन तो बस एक मुद्दे को लेकर था कि जन-लोकपाल बिल को मंजूर किया जाय। सरकार ने इसे मंजूर नहीं किया, बस एक समिति बना दी और आंदोलन के कर्ता-धर्ताओं ने आंदोलन समाप्ति की घोषणा कर दी। मानों इस आंदोलन के जरिए अन्ना हजारे एवं साथियों ने अपने को सत्ता तंत्र के सामने विज्ञापित किया कि मैं खरीदे जाने के लिए तैयार हूं, बस मेरे सामने हड्डी का एक टुकड़ा फेंक दो।

मुझे ऐसा ही होता दिख रहा है और इसका मुझे अफसोस है। ये बात अलग है कि अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी कह रही हैं कि ऐसा नहीं है और अगर ऐसा होता दिखा, तो फिर से आंदोलन का रास्ता अख्तियार करेंगे।

वाह, साहब, वाह। अरे एक बार भरोसा टूटने के बाद कोई आपका साथ देने आएगा? लोगों को आपने इतना बेवकूफ समझा है क्या आपने। लोगों या जनता का समर्थन आपको इसलिए मिला था कि उसे लगा था कि बरसों बाद अपनी पीड़ा को सही मंच पर अभिव्यक्त करने मौका मिला है। जनता इसीलिए आपसे जुड़ी थी और लगातार जुड़ रही थी। ये थाली-चम्मच मार्च अभिव्यक्ति की इसी नई भाषा को लेकर आया था और आपने उसे यूं ही जाने दिया।

होना तो ये चाहिए था कि आम जनता से मिले और लगातार मिल रहे समर्थन को भ्रष्टाचार और इस तरह के दूसरे मुद्दों के खिलाफ लगातार और दीर्घ समय तक चलने वाली लड़ाई के आधार के रूप में इस्तेमाल किया जाता। लेकिन ऐसा करना शायद आंदोलन के कर्ता-धर्ता चाहते ही नहीं थे। उन्हें तो हड्डी के उस टुकड़े से मतलब था जिसके फेंके जाने का वो इंतजार कर रहे थे। और इसीलिए ये आंदोलन दिशाहीन था और शायद इसीलिए ये आंदोलन हमारा 'ट्यूनीशिया मूवमेंट ऑफ विक्टरी' नहीं बन पाया या पाएगा। अपनी रोटी सेंक कर आंदोलन के कर्ता-धर्ता इससे अलग हो गए, भले ही इसके लिए उन्हें जनता को बरगलाना पड़ा हो।

अगर ये आंदोलन सही दिशा में जा रहा होता तो अन्ना हजारे को अनशन करने के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर की जरूरत नहीं पड़ती, अहमदनगर में बैठे-बैठे वो सत्ता तंत्र को हिला सकते थे (जैसे कि पटना में होते हुए जेपी ने इंदिरा सरकार को हिलाया था)। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आंदोलन तो हड्डी पाने के लिए था, वो मिल गया। अगर ऐसा नहीं होता तो अन्ना हजारे साहेब के आंदोलन के साथ-साथ देश के हर हिस्से में इस तरह के छोट-छोटे आंदोलन हो सकते थे और क्रमश: वो एक बड़े और निर्णायक आंदोलन की नींव रख सकते थे।

लेकिन ये तो पेज-थ्री आंदोलन था भ्रष्टाचार के खिलाफ, सत्ता के गलियारों में आकर विरोध जताना, मीडिया की चकाचौंध में अपनी बात रखना और हड्डी के टुकड़े को पाते ही इसके समापन की घोषणा कर देना।

ऐसा नहीं है कि मैं नहीं चाहता था या हूं कि अन्ना साहेब का अनशन खत्म हो। अनशन खत्म जरूर होना चाहिए, लेकिन आपको जिस प्रकार से जनता ने उनको समर्थन दिया, उसका सम्मान करते हुए उन्हें आंदोलन को एक दीर्घकालीन आंदोलन में बदल देना चाहिए था और ये आंदोलन तब तक चलना चाहिए था जबतक कि उसकी स्वाभाविक परिणति न हो जाए यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ जीत न मिल जाए। निश्चित तौर पर इस लड़ाई की स्वाभाविक परिणति एक समिति का गठन होना भर नहीं है।

सत्ता तंत्र इस बात को बखूबी समझता था और इसीलिए तो लड़ाई जिनके खिलाफ लड़ी जा रही थी, वो ही लोग इसके समर्थन में आ गए। तभी तो केंद्र सरकार का एक मंत्री इसके समर्थन में इस्तीफे की घोषणा करता है, और तभी तो पूरा कॉरपोरेट जगत कुंभकर्णी नींद से जागते हुए कहता है कि भ्रष्टाचार से हम भी त्रस्त हैं और आपकी लड़ाई को हम अपना समर्थन देते हैं।

होना ये चाहिए था कि अन्ना हजारे देश की जनता का आह्वान करते कि आप सब अपनी-अपनी जगह पर अपने-अपने तरीके से इस लड़ाई को आगे बढ़ाएं, छोटे-छोटे समूहों और गुटों में। थकें नहीं, डटे रहें, हम सब आपके साथ हैं और भरोसा दिलाते हैं कि हम भी पीछे नहीं हटेंगे। जन लोकपाल तो एक बहाना है, जब तक मूल मुद्दे का हल नहीं होगा तब तक हम पीछे नहीं हटेंगे। विश्वास कीजिए, अगर अन्ना हजारे इस तरह का आह्वान करते तो इस देश की जनता सड़कों पर आ जाती। लोग मानसिक रूप से इसके लिए तैयार हो ही रहे थे कि आंदोलन के समाप्ति की घोषणा कर दी गयी। इसलिए हमारे देश में वो 'ट्यूनीशिया मूमेंट ऑफ विक्टरी' नहीं आ पाया।

लेकिन फिर भी मैं मानता हूं कि जनता बेवकूफ नहीं होती। उसे नए-नए तरीकों से आप ठग सकते हैं लेकिन एक ही तरीके से दूसरी बार नहीं ठग सकते। न्याय-अन्याय की बात सबसे ज्यादा आम जनता ही समझती है क्योंकि उससे जुड़े हुए दुख-दर्दों को सबसे ज्यादा वही झेलती है। ये अलग बात है कि जनता राजनीतिज्ञों और बुद्धिजीवियों की तरह मंच बना कर अपनी बात नहीं रखती लेकिन जब भी उसे भरोसा करने लायक एक मंच मिलता है, वो अपनी बात निर्णायक रूप से रख देती है।

नहीं तो क्या मौजूदा सत्ता तंत्र को अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी और प्रशांत भूषण जैसे लोगों का डर था कि चार दिनों में ही समझौता करने को ये लोग तैयार हो गए। नहीं। ये उसी आम जनता का डर था, जिससे सत्ता तंत्र को झुकना पड़ा। सत्ता तंत्र सबसे ज्यादा आम जनता से ही डरता है और कोई भी शासन तंत्र आम जनता की आवाज को उठने नहीं देता, नहीं देना चाहता है।

आप बिठा दीजिए आडवाणीजी, बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर या ईमानदार कहलाने वाले खुद प्रधानमंत्री महोदय को आमरण अनशन पर। मुझे 200 प्रतिशत विश्वास है कि हम लोग, आम जनता, उनके अनशन का इस आंदोलन की तरह समर्थन नहीं करेगी। वजह इतनी है कि जनता अपने प्रति हो रहे न्याय-अन्याय की बात को सबसे अच्छे से जानती है और वो ये भी जानती है कि उसके प्रतिरोध को आवाज देने के लिए कौन सा मंच कब उभर रहा है और कौन उसकी बात को सबसे अच्छी तरह से रखेगा।

इसलिए मैं अपने कुछ मित्रों की तरह इस देश के भविष्य को अंधकारमय नहीं मानता हूं। मुझे देश का भविष्य अच्छा दिखता है, खास कर तब जब इस तरह के आंदोलन को जनता का समर्थन मिले। ठीक है कि जनता के समर्थन को एक व्यापक रूप अन्ना हजारे नहीं दे पाए, ये उनकी कमजोरी है और पहले से रही है। लेकिन फिर भी जनता ने अगर उनको अपनी सहानुभूति भी दी, और वो भी इतने बड़े पैमाने पर तो ये मुझे आशवस्त करता है कि देश का भविष्य अंधकारमय नहीं है। लेकिन, जैसा कि मैं कह रहा हूं कि ये आंदोलन दिशाहीन था, एक ही मुद्दे पर केंद्रित था और इसलिए मेरा इससे विरोध था और है। लेकिन मैं इसके समर्थन में भी था क्योंकि मुझे लगा था कि शायद जयप्रकाश आंदोलन के बाद शायद ये पहला ऐसा आंदोलन था, जिससे जनता अपने मन से जुड़ी।

जयप्रकाश नारायण से कई तरह का साम्य रखते हुए भी अन्ना हजारे ने दूसरा जेपी बनने का मौका खो दिया। यही उनमें और जयप्रकाश में अंतर है, था और रहेगा।

बहस इस बात पर भी की जा सकती है कि जेपी आंदोलन से ही देश को क्या मिला। सही बात है, हमें कुछ नहीं मिला और जनता उस समय भी ठगी गई थी। लेकिन इस तरह से आंदोलन के शुरूआत में ही नहीं। वो तो जेपी आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं ने बाद में जनता को ठगा (इस बार की तरह ही सत्ता तंत्र से फेंके गए हड्डी को लपक कर और बाद में वे सारे लोग शासक वर्ग का ही हिस्सा हो कर रह गए)।

इसलिए इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि इस बार भी वैसा नहीं होगा। लेकिन एक आशा थी कि शायद अतीत से सबक लेकर हम अपने वर्तमान और भविष्य को वैसा बनने से रोक पाएं। लेकिन इस बार के आंदोलन को तो विकसित होने देने से पहले खुद आंदोलनकर्ताओं ने ही कुचल दिया, तो फिर रोइए ज़ार-ज़ार क्यों, कीजिए हाय-हाय क्यों?

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे का समर्थन क्यों जरूरी है?

मैं कोई क्रांतिकारी नहीं हूं, क्रांतिद्रष्टा कवि नहीं हूं, टाटा-बिड़ला-अंबानी के घर पैदा नहीं हुआ। इस देश का एक अदना सा नागरिक हूं और धर्म, जाति, राजनीति - ये सब मेरे लिए निजी आस्था-अनास्था का विषय है। मैं इन सब पर बात भी नहीं करना चाहता हूं। फिर भी, मुझे लगता है कि मुझे अन्ना हजारे की मुहिम का समर्थन करना चाहिए।


क्यों?

ये एक ऐसा सवाल है जिससे मैं जूझ रहा हूं, उत्तर नहीं है मेरे पास। बहुत ऊहापोह है मन में। फिर भी लगता है कि मुझे समर्थन करना चाहिए। मुझे पता है कि अन्ना साहेब ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक जन लोकपाल विधेयक को सरकारी स्वीकृति दिलाने के लिए आमरण अनशन शुरू किया है और इस बात को बीते दो दिन हो चुके हैं। मुझे ये भी मालूम है कि सरकारी तंत्र, राजनीतिक तंत्र इससे बौखलाया हुआ है। मुझे ये भी मालूम है कि मीडिया को अगले कुछ दिनों के लिए बढ़िया मसाला मिल गया है और चैनलों से लेकर अखबारों तक, अखबारों से लेकर इंटरनेट जैसे न्यू मीडिया माध्यमों तक ये तमाशा अगले कुछ दिनों तक चलता रहेगा।


लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि मुझे इस मुहिम का समर्थन करना चाहिए। न केवल इस मुहिम का, बल्कि अन्याय और अत्याचार के खिलाफ चलने वाले हर मुहिम का। चाहे वो किसी भी रंग-रूप में सामने आए पर अगर मुझे लग
ता है तो लगता है। मैं करूंगा, जरूर समर्थन करूंगा, कर रहा हूं, करता रहूंगा।

अन्ना हजारे साहब भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं, हो सकता है कि उनका भी अपना कोई एजेंडा हो और उसके तहत वो काम कर रहे हों (नहीं तो इतने दिनों बाद दिल्ली में अनशन करने की उन्हें एकाएक क्यों सूझी?)। अपने कुछ मित्रों की दलील दूं तो इस आंदोलन से अन्ना क्या उखाड़ लेंगे? भ्रष्टाचार तो यूं ही बना रहेगा, भले ही प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति उसके दायरे में आ जाएं। बात सही है। फिर भी मैं समर्थन करता हूं इस मुहिम का।

क्यों? इसलिए कि इसमें मुझे एक शुरूआत दिखती है .. शुरूआत दिखती है देश की समस्याओं से लड़ने के प्रति। हम सब इतने जड़ हो गए हैं कि हमारा दायरा अपने-आप तक सीमित होता चला गया है, मैं..मेरी पत्नी..बच्चे..परिवारजन..मित्र वर्ग..दफ्तर। हमारी दुनिया यहीं तक सीमित हो गयी है .. इससे आगे हम सोच ही नहीं पाते।

हम देख रहे हैं कि हमारे सामने कुछ गलत हो रहा है और हम उसके खिलाफ आवाज नहीं उठाते। हम प्रतीक्षा में बैठे हैं कि कोई महापुरूष आएंगे और हमारी सारी व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक समस्याओं का समाधान कर देंगे। शायद तभी इस देश में महापुरूषों की संख्या कुछ ज्यादा ही हैं और शायद इसीलिए भगवानों ने भी कई अवतार लिए। व्यक्तिपूजा की परंपरा वाले इस देश में अभी भी यही तो चल रहा है, भले ही उसका स्वरूप कुछ अलग हो गया हो।

लेकिन मैं केवल शुरूआत तक रूकना नहीं चाहता। मेरी आंकाक्षाएं इससे कई ज्यादा गुनी बड़ी हैं। मैं चाहता हूं कि भ्रष्टाचार के नाम पर शुरू हुई ये मुहिम और व्यापक रूप ले, इतना व्यापक बने कि ये ब्लैक होल बन जाए और समस्याएं इस ब्लैक होल में विलीन हो जाएं। समस्याएं तो यूं ही सुरसा की तरह अपना मुंह फाड़े खड़ी रहेंगी, लेकिन उन्हें सुलझाने के बजाय हम उनसे कतरा के निकल जाते हैं। मैं उम्मीद लगाए बैठा हूं कि ये शुरूआत एक नव जन-जागरण के रूप में बदले और इसी नव जन-जागरण की जरूरत इस वक्त हमें सबसे ज्यादा है। मैं चाहता हूं कि ये शुरूआत एक नए जन-आंदोलन का रूप ले, पुरानी सारी मान्यताओं, पुरानी सारी परंपराओं को ध्वस्त कर दे। मैं चाहता हूं कि ये एक नई भाषा का सृजन करे, नए समाज की स्थापना करे, नए युग का मार्ग प्रशस्त करे।

लेकिन मैं निराश भी हूं। मेरे अनुभव कहते हैं कि ये मुहिम भले ही सफल हो जाए पर इससे फायदा नहीं होने वाला है। व्यर्थ की आशा रखने से कोई फायदा नहीं होने वाला। मैं दो दिनों से जंतर-मंतर जा रहा हूं, उस नव की तलाश में जिसकी बात मैं कर रहा हूं। मैं दो दिनों से उस नव की एक किरण वहां जाकर ढूंढ़ता रहा हूं, निराश और क्षुब्ध हो कर लौटता रहा हूं।

जंतर-मंतर जाकर लगता है कि ये बस एक भीड़ है, कि यहां कुछ लोग अपने एजेंडे के साथ मौजूद हैं और उसे पूरा करवाने के लिए उन्होंने ये छद्म भेष धारण कर रखा है। मुझे आशा की कोई एक किरण अबतक नहीं दिखी। जंतर-मंतर जाता हूं तो लगता है कि जैसे किसी मेले में चला आया हूं जहां लोग उत्सव मना रहे हैं।

नहीं तो क्या कारण है कि अन्ना हजारे जैसा शख्स, जिसने अपना जीवन लोगों का भला करने में बिता दिया हो, उसे ये आंदोलन करने के लिए दिल्ली आना पड़ता। अन्ना अहमदनगर में होते हुए भी ये आंदोलन कर सकते थे। लेकिन नहीं, तब शायद उन्हें वो प्रसिद्धि, वो विज्ञापन नहीं मिलता जो सत्ता तंत्र के करीब आकर मिल रहा है। दिल्ली में आंदोलन करने का मतलब है कि आप सत्ता तंत्र से जो चाहते हैं, उसको विज्ञापित कर रहे हैं और लोगों को भुलावे में रख कर अपना हित साध रहे हैं।

दिल्ली में सत्ता तंत्र है, मीडिया की चकाचौंध है, खा-खा कर उबे हुए लोगों की फौज है। इन्हें ही तो ये मैसेज दिया जा रहा है कि चाहे जितना खाओ पर नाम के लिए ही सही पर उसे एक कानून के दायरे में लाओ। नहीं तो क्या कारण है कि इस आंदोलन के साथ पूरे देश की जनता आ के खड़ी नहीं हुई। नहीं तो क्या कारण है कि मुहिम के समर्थकों से ज्यादा जंतर-मंतर पर मीडिया और पेज-थ्री-एनजीओ वालों की भीड़ है।

होना तो ये चाहिए था कि अगर अन्ना हजारे साहब आमरण अनशन पर बैठ रहे हैं, तो देश के हर कोने में इस तरह के मुहिम की शुरूआत की जाती। छोटी-छोटी शुरूआत, पांच लोगों से, दस लोगों से। हर राज्य की राजधानी में, हर शहर में, हर कस्बे में छोटे-छोटे जन-आंदोलनों से इसकी शुरूआत की जाती और एक से भले दो, दो से भले चार की तर्ज पर लोगों को जोड़ते हुए इसे एक ऐसा रूप दिया जाता कि अहमदनगर में बैठे अन्ना हजारे से ही सत्ता तंत्र डर जाता।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ, न ही ऐसा होता हुआ दिख रहा है। तभी तो अन्ना साहेब को दिल्ली आना पड़ा। शायद आंदोलन की कमजोर जड़ के कारण ही इस मुहिम के समर्थन में पूरा महाराष्ट्र भी खड़ा हुआ नजर नहीं आता (अन्ना साहेब जहां के रहने वाले हैं)।

होना ये चाहिए था कि इसे एक विशाल जन-आंदोलन की भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया जाता और विभिन्न मुद्दों को एक मंच पर लाने की एक ईमानदार पहल की जाती। लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है, ना ही किसी के मन में ऐसी कोई भावना नजर आ रही है।

ये आंदोलन तो फिलहाल पेज-थ्री-एनजीओज की जकड़ में लगता है, बड़े-बड़े लोग आते हैं, भाषण देते हैं, क्रांति के गीत गाते हैं और चले जाते हैं। मुझे तो ऐसे भी लोग मिले जंतर-मतंर पर पिछले दो दिनों में, जिनके मुंह से दिन में भी शराब की गंध आ रही थी। और ऐसे लोगों की संख्या तो बहुत ज्यादा थी जो मंच के ठीक सामने की दुकानों से पानी खरीद-खरीद कर पी रहे थे और उन्हें वो एक रूपये में एक ग्लास पानी बेचने वाला नजर नहीं आ रहा था। लोग गर्मी को दूर करने के लिए कोक-पेप्सी पी रहे थे। मैं उनकी बात नहीं कर रहा जो मेरी तरह महज तमाशबीन थे, मैं उनकी बात कर रहा हूं जो इस आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता हैं, इस आंदोलन के बैच लगाए घूम रहे हैं या फिर इस आंदोलन से सहानुभूति रखने का दावा कर रहे हैं। इस आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता पोज बना-बना कर टीवी चैनलों को इंटरव्यू दे रहे थे। ऐसे में, एक नई शुरूआत भला खाक होगी।

मैंने कुछ मित्रों को अपने विचारों से अवगत कराने की कोशिश की तो उन्होंने इसे हंस कर टाल देना बेहतर समझा। इस आंदोलन के बारे में मेरी समझ तो यही कहती है कि ये जमीन से जुड़ने के बजाय मीडिया और पेज-थ्री-एनजीओज से ज्यादा जुड़ा हुआ है और इसके जरिए ज्यादातर लोग अपना फायदा सोच रहे हैं। भविष्य की स्पष्ट रूप-रेखा मुझे तो किसी के भी पास नहीं मिली है अबतक।

अपने पत्रकार मित्रों की बात करें तो उनमें बहुत थोड़े हैं जिन्हें इस मुहिम के मकसद से कुछ लेना-देना है। ज्यादातर तो दिन भर चलने वाले तमाशे की कवरेज कर रहे हैं। वे इसे कवर कर रहे हैं, क्योंकि उनका बॉस चाहता है। बॉस चाहता है क्योंकि इससे उसे कुछ दिनों के लिए एक तमाशा मिल रहा है और वो भी बिना मेहनत के। अखबारों के पहले पन्ने से लेकर न्यूज चैनलों के पैकेज और टॉक-शोज़ तक - "आज अन्ना के अनशन का दूसरा दिन है और आप देख रहे हैं कि मंच पर अन्ना लेटे हुए हैं, उनके साथ स्वामी अग्निवेश हैं, दिन में उमा भारती भी आईँ थीं, किरण बेदी और केजरीवाल साहब तो कल से ही यहां डटे हुए हैं।"


मुझे मालूम है कि ये चार दिनों का तमाशा है और उसके बाद सबके ओ.बी वैन चले जाएंगे, इक्का-दुक्का रिपोर्टर बच जाएंगे, ये खबर अखबारों के पहले पन्ने से उतर कर भीतर के पन्नों में कहीं गुम हो जाएगी। खुदा-ना-खास्ता, अगर अनशन 12-13 दिनों से ज्यादा चला तो ये सारा मीडियावर्ग लौट कर आ जाएगा और कहेगा कि "सरकार की बेरूखी की वजह से अन्ना मौत के कगार पर। 12 दिनों से अन्न का एक दाना नहीं लिया है अन्ना हजारे ने और पत्थरदिल सरकार के कान में जूं तक नहीं रेंग रही" । लेकिन इस बीच में कोई नहीं झांकने आएगा, कोई स्टूडियो डिस्कशन इस पर नहीं होगा, कोई संपादकीय इस पर नहीं लिखा जाएगा।

लेकिन फिर भी मैं इस मुहिम का, इस आंदोलन का समर्थन करता हूं। मुझे आशा की एक किरण दिखी है, लोगों को उनकी जड़ता से निकालने का एक बेहतरीन मौका दिख रहा है।

सवाल ये है कि हम इस मौके का कैसे उपयोग करते हैं .. एक व्यापक जन-आंदोलन का रूप देकर या इसे बस एक विषय तक ही लिमिटेड रख कर। अपनी सारी नकारात्मकताओं के बावजूद मैं इसे एक नई और अच्छी शुरूआत मानता हूं, चाहता हूं कि ये शुरूआत एक व्यापक रूप ले और देश के कोने-कोने में फैल जाए। ये होता नहीं दिख रहा है, लेकिन मैं फिर भी उम्मीद लगाए बैठा हूं। ये आशावाद मैं आने वाले दिनों में भी बरकरार रखने की कोशिश करूंगा, हर दिन जंतर-मंतर जाऊंगा उस एक किरण की उम्मीद में, जिसकी आस मैं लगाए बैठा हूं।

और इसीलिए मैं इस मुहिम का समर्थन करता हूं, इसीलिए मैं कहता हूं कि हम सब लोगों को अन्ना हजारे के इस आंदोलन का समर्थन करना चाहिए। महापुरूषों के इस देश में सबसे ज्यादा अकाल इस वक्त महापुरूषों का ही है। हमारे महानायक इस वक्त अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर और एम एस धोनी जैसे लोग हैं, जिन्होंने शायद ही भूख, अकाल और गरीबी देखी होगी।

हम सब अपने-अपने महापुरूष के आने का इंतजार कर रहे हैं। ऐसे में, मैं मानता हूं कि अन्ना हजारे जैसा शख्स हमारे युग का महापुरूष है और अगर ये शख्स भी इस देश को, इस देश के लोगों को जड़ता, किंकर्त्वयविमूढ़ता की स्थिति से बाहर नहीं निकाल पाया तो पता नहीं फिर ऐसे दिन, ऐसे मौके फिर कब लौट कर आएंगे।

केवल कहने से नहीं होगा कि 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है', ऐसा हमें करके दिखाना होगा। तभी इस आंदोलन की सार्थकता साबित होगी और तभी ये आंदोलन जन-मानस को भी भागीदार बना पाएगा। अच्छी हिंदी और उसके उपमाओं का प्रयोग करते हुए पूछना चाहता हूं क्या यज्ञ की इस वेदी पर हम अपनी आहुति देने के लिए तैयार हैं ?