सोमवार, 17 मार्च 2008

पिता की चिता जलाते हुए

दिनेश कुशवाहजी की ये कविता है जो हंस के अप्रैल 2000 के अंक में पढ़ी थी। कई बार चाहा कि उनसे संपर्क करूं और केवल इसी कविता के लिए उनको सराहूं। लेकिन मैं ऐसा कर नहीं पाया और इसकी वजह सिर्फ मेरा आलसी होना रहा है। आज भी मैं उनको इसी कविता से जानता हूं और बिना उनकी इजाजत के इसे यहां डाल रहा हूं। दरअसल अविनाशजी के दिल्ली-दरभंगा से जाना कि रवीशजी के पिताजी नहीं रहे। उन्हें मेरी श्रद्धांजली, रवीशजी और परिवारजनों के लिए मेरी संवेदनाएं। इसी घटना ने मन के कोल्ड स्टोरेज में सहेजी इस कविता की याद दिला दी। और जब ये कविता याद आयी तो बहुत याद आयी। पुरानी फाइलों में से इसे ढूंढ़ कर आज इसे कई बार मैंने पढ़ा॥ खूब पढ़ा। लगा कि सबके साथ इसे बांटना चाहिए, तो इसलिए इसे यहां डाल रहा हूं ताकि अच्छी कविता की महक सब महसूस कर सकें।


पिता की चिता जलाते हुए

कुछ बातें अक्सर कहते थे पिता..

भादों की किसी विकट काली रात में
जब छप्पन कोटि बरसते हों देव
अपने निकट बहने वाली नदी को
उसकी समग्र भयावहता में देखो
और कल्पना करो कि
यमुना को कैसे पार किया होगा वसुदेव ने
एक नवजात बच्चे के साथ !
तुम्हें लेकर जीवन की वैतरणी को
कुछ इसी तरह पार किया है मैंने

अघाए हुए और रिरिआते आदमी की
हंसी में फर्क करना सीखो
अभागा आदमी का बच्चा
जन्मते ही रोना शुरू करता है
जिंदगानी की कहानी उसी समय शुरू हो जाती है
फटी धोती, टूटी झोपड़ी, डंसी देह और कुचली आत्मा ने
गरीब को एक अदद अधम शरीर बना दिया
पंचतत्व तो आज भी अमीरों की चाकरी में लगे हैं।

इसलिए जनता को शास्त्र नहीं / कविता से शिक्षित करो
साधुता को श्रम से जोड़ो / भिक्षा से मुक्त करो
साधुता वहां बसती है / जहां जूता गांठते हैं रैदास
चादर बुनते हैं कबीर ।

बतरस के तो रसिया थे पिता
कोई नहीं मिलता तो / बैलों से ही बोलते-बतियाते
इधर कुछ दिनों से उसी पिता को
देख कर आश्चर्य होता था मुझे
कि दुनिया में आदमी / कैसे रहता है इतना चुपचाप !

विश्वास नहीं होता कि बप्पा सपना हो गए

उन्हें देख कर लगता था कभी
कि गांव-जवार, खेत-खलिहान
इसलिए जवान हैं कि पिता जवान हैं
कुएं का पानी सूख जाएगा
पर पिता की जवानी नहीं खत्म होगी
लेकिन औचक्क चले गए पिता..

पिता के पास एक पुश्तैनी कोट था
जब जंगल और मैदान जाड़े से कांपने लगते
पिता उसे पहन कर आगी तापते थे
गांव से सटकर बहती सरयू के किनारे
कभी आग के फूल की तरह खिले थे पिता
और आज वहीं आग की नदी में नहा रहे थे ।

सबसे पहले पिता के दोनों पांव
जलते हुए झूल गए / जैसे उतान लेटे हुए पिता ने
टांगें बटोर ली हों और कह रहे हों
अब नहीं चल पाऊंगा तुम्हारे साथ ।

लपटों के बीच लाल अंगार पिता
और अस्त होते सूर्य का रंग / एक जैसा दिख रहा था
बस नहीं दिख रहीं थीं तो उनकी आंखें
जिनके तनिक लाल होते ही
हम भाई-बहनों की कंपकपी छूट जाती थी

पचास पार करते ही पिता की वही आंखें
हर भावुक प्रसंग पर डबडबा जाती थीं,

चिरायंध गंध में सना / चिट-चिट का चरचराता शोर
मन में मचे कोहराम में डूब गया था ।

पिता ने जीवन भर चलाया था मन भर का हथौड़ा
लोहे को देते रहे तरह-तरह की शक्ल
पर अब बीड़ी के जले ठूंठ ही उनकी याद दिलाएंगे
कि धौंकनी-सी थी उनकी छाती / थाली में रखा चुटकी भर नमक
और एक हरी मिर्च थी उनकी आंखें ।

भुलाए नहीं भूलेंगे उनके जीवन के दुख
जलते रहेंगे मेरे भीतर दीए की टेम की तरह
भर-भर आएगा मेरा मन जैसे
नाभि में अनायास भरती है कपास
जब भी सूखेंगे मेरे होंठ
पिता के पपड़ाए खेत याद आएंगे ।

- दिनेश कुशवाह