रविवार, 4 नवंबर 2007

ब्लोग के नखरे

ये ब्लोग भी अजीब चीज है। सुधारने बैठा जेएनयू वाले अपने पुराने पोस्ट को तो सारा का सारा फिर से पोस्ट हो गया। वह भी बस इसलिए कि कहीं किसी के ब्लोग पर ही पढा कि भाई जब किसी की चर्चा करें तो उससे जुडे हुए लिंक्स देने मे कंजूसी ना करे। वो ही लिंक्स लागने बैठे तो सारा फिर से पोस्ट हो गया। खैर कोई बात नहीं आगे से इसका भी ध्यान रखूंगा। बहरहाल, अब मंहगाई पर रिसर्च कर रह हूँ। अगली पोस्ट शायद वो ही होगी।

तब तक के लिए विदा होता हूँ।

धन्यवाद

चंद्रशेखर, जेएनयू और आज की छात्र राजनीति-3

इस तीसरी कड़ी में कुछ भी नया नहीं है, बस पिछले दो भागों का समापन है। लेकिन संयोगवश इंटरनेट पर सर्च को दौरान आनंद प्रधानजी का एक पुराना लेख छात्र राजनीति पर मिला। इसके लिंक को साथ जोड़ रहा हूं क्योंकि वो ज्यादा सारगर्भित है।

“Any man who is not a communist at the age of twenty is a fool. Any man who is still a communist at the age of thirty is an even bigger fool.” -George Bernard Shaw

.. धीरेःधीरे मेरे बिना किसी कोशिश के मुझे ABVP का मान लिया गया और तभी मैंने Alternative को तलाशा और ABVP से जुड़ गया। विद्यार्थी परिषद की विचारधारा मेरी आज भी नहीं है और जेएनयू के दिनों में भी परिषद के लोगों से मेरी बहस इसी बात पर होती रही। पता नहीं कितने तरीकों से मुझे संघ की विचारधारा से जोड़ने की कोशिशें हुईं और हर बार वे नाकाम रहे। जो मुझे अच्छा
लगता, वो ही मैं करता। लेकिन पार्टी-पॉलिटिक्स का अंग होने से अब मैं निष्पक्ष नहीं रह गया था और मेरी असहमति के बावजूद विद्यार्थी परिषद के फैसलों से मैं खुद को अलग नहीं कर सकता। हालांकि छात्र राजनीति से जुड़ने के अपने निर्णय से मैं कभी संतुष्ट नहीं रहा और इसलिए छात्रसंघ के चुनावों में सिवाय पहली बार के कभी भी किसी को वोट नहीं दिया (हर बार बैलेट पेपर खाली छोड़ कर आया)।

बाद में तो ये एक प्रकार की हॉबी हो गयी कि कैसे SFI-AISF के लोगों को प्रताड़ित कर सकूं ...बाद-विवाद से, चिल्ला कर, हंगामा कर या उनका मजाक बना कर। मारपीट से निजी तौर पर तो मैं दूर रहा लेकिन शायद मार-पीट की संस्कृति को जेएनयू में बड़े पैमाने पर फैलाने का काम विद्यार्थी परिषद और SFI-AISF के लोगों के बीच हुई झड़पों ने किया। यूं तो मेरे कई दोस्त कम्युनिस्ट थे.. हॉस्टल और कैम्पस दोनों में लेकिन ABVP, SFI-AISF एक-दूसरे को झेलने को एकदम तैयार नहीं थी और हर दूसरी चौथी बात पर मार-पीट होना आम बात हो गयी थी। फिर होता ताकत का प्रदर्शन यानी प्रोसेशन-मशाल जुलूस-डाउन-डाउन का दौर ...

जेएनयू को याद करें तो गंगा ढ़ाबा को नहीं भूला जा सकता है, जो सारी गतिविधियों का केंद्र था। दो-दो, तीन-तीन बजे तक हम वहां बहस करते और अक्सर बहस के लिए बहस करते। लेकिन Polititcal Strategies बंद कमरों में ही बनतीं ।

NSUI जेएनयू में तो Non-Existant थी लेकिन DU में विद्यार्थी परिषद और NSUI के बीच ही सीधा मुकाबला होता था। आश्चर्यजनक ढंग से मैंने अपने को जेएनयू के बाहर की गतिविधियों से बचाये रखा लेकिन मैं मानता हूं कि DU में ABVP-NSUI ने जो गंध मचायी उसने वर्तमान छात्र राजनीति की रीढ़ तोड़ कर रख दी। पैसे का खेल तो DU में पहले भी होता था , लेकिन नंगा नाच उसी समय में शायद शुरू हुआ। देश के बाकी हिस्सों की भांति ही DU में कम्युनिस्ट मुट्ठी भर ही हैं और उस समय भी रहे। एक अच्छे नेतृत्व का अभाव या जेएनयू जैसा क्लोज़्ड कैम्पस न होने की विवशता या DU की Elitist Mentality ... वजह बहुत सारे हैं

और इसलिए वहां साम्यवाद नहीं ठहर पाया, जबकि ABVP या NSUI जैसे छात्र संगठनों का छात्र आंदोलन खड़ा करने की कभी नीयत ही नहीं रही। इन्हें बस वोटर्स चाहिए थे जो पैसे के बल पर खरीदे जा सकें।

इन वोट्स के जरिए अपना भविष्य चमकाने का सबसे बेहतर रास्ता था जेएनयू-डीयू का इलेक्शन। जो जीता वो राष्ट्रीय नेताओं की नजरों में आ जाता और उसका राजनीतिक भविष्य चमकदार हो जाता। ये उस समय भी सत्य था और आज भी सच है। यूथ कांग्रेस का प्रेसीडेंट अशोक तंवर है, जो हमारे समय का ही है और अपनी तमाम अयोग्यताओं के बावजूद NSUI का प्रेसीडेंशिएल कैंडीडेट होता रहा। जेएनयू के लिहाज से उसको बोलना भी नहीं आता था लेकिन अपनी ठेठ राजस्थानी अंदाज के लिए ही वो जाना जाता और हर साल 300-400 वोट बटोर लेता।

क्या आपने कभी छोटे शहरों के या राज्यों के विश्वविद्यालयों के नेताओं को किसी छात्र संगठन का अध्यक्ष बना देखा है ? पैसा फेंको, तमाशा देखो ये उस समय भी सच था और आज भी है। अंतर बस इतना है कि उस समय केंद्र में BJP का बोलबाला था तो ABVP की तूती बोलती थी और आज जब कांग्रेस का जमाना है तो NSUI आग मूत रही है।

ये उस समय का भी सच था और आज भी है। सिद्धांत शायद जेएनयू में ही बघारे जाते हैं। कलकत्ता या तिरूअनंतपुरम में आप जैसे CPM-CPI के खिलाफ नहीं बोल सकते, वैसे ही SFI-AISF के खिलाफ भी नहीं।

ये भी एक सच है कि मेरे विद्यार्थी जीवन में कुछ जगहों को छोड़ कर छात्र आंदोलन कभी था ही नहीं, कहीं था ही नहीं। जेएनयू, डीयू, एएमयू, बीएचयू, मैसूर, शायद उत्कल विश्वविद्यालय या ऐसी कुछ और जगहें।

इन जगहों में छात्र संगठन बस दंगा-फसाद खड़ा करना जानते थे और आज भी यही करते हैं। पटना, इलाहाबाद में NSUI, ABVP, AISA, SFI वगैरह हैं तो लेकिन इनकी लोकप्रियता छात्रों के बीच नहीं है। इन जगहों पर या अतीत के इन जैसे गौरवशाली पृष्ठों पर अब बस वो ही लोग छात्र राजनीति से जुड़ते हैं जो जिंदगी में और कुछ नहीं करना चाहते। इनसे आप बहस, वाद-विवाद की उम्मीद नहीं कर सकते.. हां, मारना-काटना, बम फोड़ना हो तो इन्हें बताएं। चाकू-छुरे-कट्टे इनके लिए पुराने हो गए.. इनसे आप बाकायदा रिवॉल्वर की मांग कर सकते हैं।

जेएनयू में बहस की परंपरा थी और खास कर चुनावों के समय तो ये चरम पर होता। प्रेसीडेंशिएल डिबेट को सुनना एक साथ कई अनुभवों से गुजरना होता था। लेकिन जेएनयू की इस गौरवशाली परंपरा के अवसान के चिह्न हमारे समय में ही दिखने लगे थे, जब कैंडीडेट्स बहस के बजाय चिल्लाने ज्यादा लगे थे और जिनकी बातों का कोई सर-पैर नहीं होता था। आज के जेएनयू में यदि आप गल्ती से प्रेसीडेंशिएल डिबेट के दिन चले जाएं तो आप इसे खुद भी परख सकते हैं। फिर भी हमारे जैसे लोग आज भी वहां जाते हैं क्योंकि वो डाउन-डाउन, वो मार्च ऑन-मार्च ऑन आज भी हमारे खून को थोड़ी देर के लिए ही सही पर उबाल देता है। एक दूसरा आकर्षण भी होता है कि अपने समय के लोग मिल जाते हैं और उस जमाने में हम जिसे गाली देते थे, अब उनसे गलबहियां डाल कर चाय पीते हैं। ये कहीं और नहीं होता।

डीयू जैसी जगहों पर जब हम कैम्पेनिंग के लिए जाते तो लोग हमारी और ऐसे देखते कि जैसे हम किसी अजायबघर से उठ कर आए हैं।

लेकिन ये एक सच था आज भी उन यादों को जीना अच्छा लगता है और वे ही बेचैनियां आज भी बेकरार करती रहती हैं।

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फुटनोट

मैं छात्र राजनीति को किसी दिशा देने की वकालत नहीं कर रहा हूं। मुझे साफ-साफ लगता है कि जिस हिसाब से समाज में खुलापन बढ रहा है, उस में हम सब इतने असंवेदनशील होते जा रहे हैं कि हम पर किसी भी बात का फर्क ही नहीं पड़ने वाला। जाहिर तौर पर छात्र भी इसके अपवाद नहीं हैं, बल्कि वे ही इसे पूरे जोर-शोर से आगे बढ़ा रहे हैं।

एक असंवेदनशील समाज की ओर हम सब बढ़ रहे हैं, जिसमें अपनापन बिल्कुल भी नहीं है, दूसरे की बात सुनने का धैर्य नहीं है.. केवल, और केवल अपनी बात हम सब सुनना-सुनाना चाहते हैं। शायद यही वजह है कि मेरी पीढी और मेरे बाद की पीढी के लिए राजनीति अब उतना बड़ा आकर्षण नहीं रह गया है जैसा कभी पहले हुआ करता था। शायद इसीलिए अब जेएनयू जैसी जगहों में भी बहस की परंपरा खत्म हो गई है।

अब तो जेएनयू के प्रेसीडेंशिएल डिबेट में भी कैंडीडेट्स बोलते कम हैं, चिल्लाते ज्यादा हैं (आम जिंदगी के माफिक ही) और जो बातें बातचीत के जरिए हल हो सकती हैं, उस पर हाथ उठाना आम होता जा रहा है। 2 नवंबर को जेएनयू में चुनाव हुए और 31 अक्टूबर को प्रेसीडेंशिएल डिबेट सुनने मैं कई सालों के बाद गया था। उम्मीदवारों का स्तर या भाषण की शैली देख कर वहां से भाग आया। फिर बाद में सुना कि डिबेट के दौरान ही मारपीट हो गयी और पहली बार डिबेट अधूरा छूटा। राम के नाम पर हंगामा करने वाला ब्रिगेड हमारा था यानी ABVP का , जिससे कभी मैं जुड़ा था।

लेकिन हमारे समय से ही लोग भूलने लगे थे कि जेएनयू में छात्रों ने विद्यार्थी परिषद को क्यों आगे बढ़ने का मौका दिया था। मार-पीट हमारे समय की ही देन थी और मेरे जेएनयू छोड़ते-छोड़ते (2002) ABVP का हर सदस्य नेता बन चुका था या अपने को ऐसा दिखाता था। केंद्र में भाजपा की सरकार इसकी एक बड़ी वजह थी। और मेरे जैसे कई लोग ABVP से कटने लगे थे क्योंकि सत्ता ने इसे भी भ्रष्ट कर दिया था और जिन मुद्दों पर हम आगे बढ़े थे, हम उसे भूलने लगे थे या भूल चुके थे।

आख़िर में भी विद्यार्थी परिषद की चर्चा बस इसलिए की ताकि प्रेसीडेंशिएल डिबेट के दौरान हुए पत्थरबाजी की वारदात का बैकग्राउंड समझ में आ सके।

समाप्त

चंद्रशेखर, जेएनयू और आज की छात्र राजनीति-2

इस प्रसंग की दूसरी कड़ी मेरे जेएनयू के राजनीतिक अनुभव हैं, संक्षेप में जेएनयू जैसा मैंने देखा, मैंने जिया (पढ़ाई के अलावा)। ये मेरे अनुभव हैं और इन पर किसी से उलझने की इच्छा भी नहीं है और खुद को ईमानदार दिखाने की कोशिश भी नहीं। बस मैं उस दौर को याद कर रहा हूं.. और कुछ नहीं

भाग-2

AISA द्वारा खाली किए गए प्लेटफॉर्म को भरा ABVP ने। SFI-AISF तो हमेशा से एक तरफ थी और दूसरी तरफ AISA, ABVP, NSUI आते रहे।

खैर, तो हमारा समय वही था, जब AISA मृतप्राय थी और नए लोग, जो कुछ कर गुजरने का जज्बा रखते थे, युवावस्था के आवेश से लबालब थे.. उन्हें ABVP के रूप में एक प्लेटफॉर्म मिला। इसीलिए चंद्रशेखर के शहीद होने के बाद ABVP जेएनयू में इतनी मुखर हो कर आयी और लोग उससे जुड़े भी। देशभर में ABVP चाहे जो भी करती रही हो पर जेएनयू में स्थानीय मुद्दों को वापस ले कर ABVP ही आयी। और ये भी सच है कि ABVP की कुख्यात छवि के चलते ही छात्राएं फिर भी कई सालों तक ABVP के पक्ष में खुल कर आने से डरती रहीं।

ABVP को मैं इतनी जगह दे रहा हूं क्योंकि मेरा दौर वही था। हमारे जैसे लोगों को एक Aletrnative Platform की तलाश थी। कविता कृष्णन से प्रभावित होने के बाद भी जिसे AISA के बाकी लोगों से निराशा ही हाथ लगी थी। हमारे जैसे लोग जो SFI-AISF (CPM-CPI के छात्र संगठन) के दोगलेपन का मुंहतोड़ जबाव देना चाहते थे, वो ABVP से जुड़ गए।

SFI-AISF के लोगों को क्यों मैं दोगला मानता हूं (हो सकता है कि दोगला शब्द के मेरे चयन से लोग सहमत नहीं हों, ये उनकी मर्जी)॥ जेएनयू में मूल रूप से वाम विचारधारा का बोलबाला रहा है और हमारा समय भी उन्हीं में से था। एक तरफ थी चंद्रशेखर की शहादत के बाद विक्षिप्त AISA जो अपने भूत में जी रही थी, दूसरी तरफ थी SFI-AISF और इसके एक बहुत छोटे से तीसरे कोने में हम सब जो SFI-AISF के वर्चस्व को खत्म करना चाहते थे। SFI-AISF के हमारे समय के लीडर कहने को तो कम्युनिस्ट थे लेकिन उनका अंदाज किसी जमींदार से कम नहीं था। अनुशासन के नाम पर छात्रों को डरा-धमका कर रखा जाता था, किसी ने यदि उनके खिलाफ कुछ बोल दिया तो उसे लुम्पेन का खिताब तो वे ऐसे देते थे कि बस .. । और एडमिशन के समय में जो उनका कैडर नहीं बना, उनको उनके प्रोफेसर्स के जरिए भी धमकाने की कोशिशें होती थीं। उन्हें लगता था कि जेएनयू उनकी बपौती है।

मैं जेएनयू में जब आया था तो शुरूआती कुछ महीनों तक किसी भी पार्टी से नहीं जुड़ा, लोगों को और उस कैम्पस को समझने की कोशिश ही कर रहा था। और फिर अचानक एक दिन मुझे लुम्पेन की केटेगरी में डाल दिया गया क्योंकि मारपीट की एक वारदात हुई और मेर कुछ दोस्त/सीनियर्स उसमें शामिल थे। मैं तो उस जगह पर था भी नहीं लेकिन मुझे वो तमगा दे दिया गया। इसकी एक वजह ये भी थी कि हमारा सेंटर ऑफ रशियन स्टडीज़ आम तौर पर ABVP के वोट बैंक के तौर पर गिना जाता था। खैर, उसके बाद से मैं उस तमगे को जब तक जेएनयू में रहा पूरे शान से सीने पर लगाये घूमता रहा।

उस समय मैं AISA को खंगाल रहा था लेकिन कविता के अलावा कोई ऐसा दिखा नहीं जो सही मायने में क्रांतिकारी विचारों को जीवन में भी उतार रहा हो। फिर मुझे मेरे अनजाने में ABVP से जोड़ा जा चुका था और AISA मुझे लेने को तैयार नहीं था।

SFI-AISF के लोगों की राजनीति नाम के लिए तो कम्युनिस्ट थी लेकिन जब चुनाव के दिन आते तो छात्रों को दलित, मुस्लिम के नाम पर जोड़ने की हर संभव कोशिशें होतीं। फतवे जारी किए जाते, वैसे लोगों को चुन-चुन कर पैनल में रखा जाता जो दलित या मुस्लिम होते थे। सेंट्रल पैनल के चार नाम में एक लड़की, एक दलित और एक मुस्लिम नाम जरूर होते थे, जबकि स्कूल पैनल्स में दो मुस्लिम या दो दलित या ऐसा ही कंबीनेशन बनाया जाता। ये कोई अपलिफ्टमेंट के लिए नहीं, एपीज़मेंट के लिए होता था, ताकि वोट खींचे जा सकें। जाहिर तौर पर ये काफी सफल फॉर्मूला था।

लेकिन विचारधारा की बात करने वाले, मार्क्स-एंजेल्स की माला जपने वालों का ये रुप मैं नहीं झेल पाया। एक और बात थी कि SFI-AISF के नेता थे तो कम्युनिस्ट पर जूते एडीडास, रिबॉक या बड़े चमक-दमक वाले पहनते थे, जमींदारों-सा रहन-सहन था, JRF के पैसों से उनके कमरों में 600-800 वॉट के म्यूजिक प्लेयर बड़ी आम बात थी। शुरूआती दिनों में उनका पहनावा वही कुर्ता और जींस होता था, लेकिन 2000 आते-आते ये भी बदल गया और उनके पास अब बाइक होना भी आम हो गया।

मेरे लिए ये मुश्किल था। घर से 1500 रुपये मिलते थे और इतने पैसों में भी बचाने की प्रवृत्ति हावी थी (हालांकि मैं आर्थिक रुप से किसी कमजोर परिवार से नहीं था और जेएनयू में रहने वाले के लिए 1500 रुपये साधारण ढंग से रहने वाले के लिए बहुत थे)। लेकिन फिर भी मुझे आश्चर्य होता था कि ये कैसे संभव है ? लोगों के पास इतने पैसे कहां से आते हैं कि इतने ऐश के साथ रह सकें और साथ ही घिन भी होती सर्वहारा की बात करने वालों के जीवन के रूप देख कर।

संयोगवश ये वे ही दिन थे, जब भारत की अर्थव्यवस्था ने विकास की रफ्तार (आंकड़ों के मुताबिक) पकड़नी शुरू की थी, पब्लिक सेक्टर कंपनियों का बोलबाला समाप्ति पर था, निजी औऱ बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने घरों के दरवाजों पर दस्तक देनी शुरू कर दी थी और टीवी सिनेमा का मजबूत विकल्प बन कर सामने आने लगा था। विदेशों से हमारी नजदीकियां बढ़ने लगीं थी और एमटीवी जैसे चैनल खुलने लगे थे।

जाहिर सी बात है कि दिल्ली के भीतर हो कर भी दिल्ली से कटा रहने वाला जेएनयू भी इससे अछूता नहीं था और बदलाव की ये बयार Day Scholars ला रहे थे यानी वो जो दिल्ली के रहने वाले थे। राजनीतिक रूप से पता नहीं क्यों पर इनमें कोई अपवाद ही होता जो वामपंथियों से जुड़ता और ABVP को जेएनयू में जगह दिलाने में इनका बड़ा योगदान था।

उस समय ABVP दिल्ली यूनिवर्सिटी में भी हावी थी और देश की राजनीति में BJP और वाजपेयी।

चंद्रशेखर, जेएनयू और आज की छात्र राजनीति

पिछ्ले दिनों दिलीपजी और अनिलजी के बीच समकालीन जनमत के जरिए हुआ शास्त्रार्थ। विचारधारा से मेरा तो बाल विवाह नहीं हुआ लेकिन उस पर क्रश जरूर था और आज भी ये बरकरार है। बहरहाल, इसी शास्त्रार्थ के चलते प्रणय कृष्ण का चंद्रशेखर पर लिखा लेख फिर से पढ़ने को मिला और जाहिर तौर पर इसने कुछ पुराने घाव उभार दिए। ऐसे घाव जिन्हें कुरेदना बहुता अच्छा लगता है और अपने सपनों के बारे में सोचने को विवश करता है। चंद्रशेखर के बारे में पढ़ते हुए ये लिखना शुरू किया था और फिर पता चला कि इन दिनों जेएनयू में चुनावों का मौसम चल रहा है। ऐसे में अपने दौर को याद करने का मौका भला कैसे छोड़ा जा सकता है। तो तीन हिस्सों में इसे प्रकाशित कर रहा हूं।

भाग-1


" शहीद हो जाने के बाद भी चंदू ने अपनी आदत छोड़ी नहीं है। चंदू हर रोज हमारी चेतना के थकने का इंतजार करते हैं और अवचेतन की खिड़की में दाखिल हो जाते हैं। हमारा अवचेतन जाने कितने लोगों की मौत हमें बारी-बारी से दिखाता है और चंदू को जिंदा रखता है। "

"चंद्रशेखर बेहद धीरज के साथ स्थितियों को देखते, लेकिन पानी को नाक के ऊपर जाते देख वे बारूद की तरह फट पड़ते। "

मैं कॉमरेड चंद्रशेखर को चंदू नहीं कह सकता क्योंकि मैने उन्हें नहीं देखा, हां उनके बारे में जानने की कोशिशें खूब की हैं। पता नहीं कितने तरह के लोगों से चंद्रशेखर के बारे में जानने की कोशिशें की हैं और उन कोशिशों से बनी समझ तो यही है कि चंद्रशेखर जैसा नेता शायद आजाद भारत को नहीं मिला। ये वो शख्स था, जिसने नेता की अवधारणा को अपने कर्मों से सही कर दिखाया था। प्रणय कृष्ण का चंद्रशेखर वाला लेख पहले भी पढ़ा था और एक बार फिर से इसे पढ़ कर अतीत की कई स्मृतियों ताजा हो गयीं। प्रणय कृष्ण ने बहुत ईमानदारी से चंद्रशेखर को चित्रित किया है। ये शायद चंद्रशेखर के साथ काम करने का परिणाम है या क्या ये नहीं जानता, नहीं मालूम कि प्रणय कृष्ण में आज भी (उन्हीं दिनों जैसी) आग बची हुई है या नहीं, क्योंकि आज के जो AISA (CPI-ML का छात्र संगठन) के लोग हैं, वो तो बस चंद्रशेखर के नाम की माला ही जपते हैं, करते कुछ नहीं ।

ये एक बहुत बड़ा सच है कि चंद्रशेखर के प्रभाव का अवसान उनके जाने के (शहादत के) साथ ही शुरू हो गया था। आज इतने सालों बाद सोचता हूं तो एक अजीब-सा विचार बार-बार कौधता है कि क्या चंद्रशेखर के साथियों ने चंद्रशेखर के साथ दगा नहीं किया ? पता नहीं सच क्या है, लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि चंद्रशेखर जिन विचारों, जिन आदर्शों के लिए लड़े.. उन्हें उनके साथियों ने उनकी मौत के साथ ही तिलांजलि दे दी।

जेएनयू के हिसाब से में उस पीढ़ी का हूं जो चंद्रशेखर के गुजरने के साथ ही जेएनयू में आया। ये मेरा तो दुर्भाग्य था ही कि मुझे चंद्रशेखर से मिलने का मौका नहीं मिला। लेकिन उनके जिन-जिन साथियों से मैं मिल पाया जेएनयू में, सिवाय एक-दो के बाकी सबसे निराश ही हुआ। कुछेक दिन ही हुए थे जेएनयू में जब JNUSU के चुनाव हुए और कविता कृष्णन खड़ीं थीं प्रेसीडेंट के लिए। कसम से मैंने उनके जैसा स्पीकर आज तक नहीं देखा। लोग कहते थे कि चंद्रशेखर को काश तुमने सुना होता लेकिन मैंने अपनी जिंदगी का पहला वोट केवल उस भाषण पर कविता को दिया था। उसके बाद भी केवल कविता को ही मैंने पाया सही मायनों में चंद्रशेखर की विरासत का प्रतिनिधित्व करते हुए। बाकी के तो AISA के जो लोग थे वो कमोबेश उसी हालत मे दिख रहे थे, जैसे कि आजकल भाजपा दिखती है.. सत्ता से बाहर बौखलाए हुए लोगों का झुंड, जिन्हें इतने सालों बाद भी नहीं पता चला कि आखिर वो कैसे सत्ता से बाहर हो गए या जिन्हें लगता है कि सत्ता तो बस उन्हीं का जन्मसिद्ध अधिकार है। जेएनयू में JNUSU का प्रेसीडेंट जिस पार्टी का हो, उसे लगता है कि जैसे वो एक पूरे देश पर राज कर रहे हैं और उनकी शान किसी राजा या प्रधानमंत्री से कहीं कम नहीं होती.. आज भी नहीं।

हमारे समय में तो AISA अर्द्धविक्षिप्त थी जेएनयू में और सिवाय कुछ नारों के (जला दो, मिटा दो या चंदू, भगतसिंह.. वी शैल फाइट, वी शैल विन) के अलावा उनके पास कुछ भी ऐसा नहीं था जिसे सृजनात्मक (CONSTRUCTIVE) कहा जा सके। ये वो पार्टी थी जो लड़ती तो छात्रों के लिए थी लेकिन छात्रों को देने के लिए उसके पास अमेरिकन इंपीरियलिज्म, विश्व बैंक, ग्लोबलाइजेशन या ऐसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर लफ्फाजी के कुछ नहीं था।

शायद यहीं चंद्रशेखर AISA से अलग थे। चंद्रशेखर ने केवल अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को ही नहीं समझा, स्थानीय मुद्दों को भी समझा और इन मुद्दों पर लोगों को अपने से जोड़ा। और इन मुद्दों पर लोगों को साथ लाने के बाद उन्हें देशी-विदेशी बातों से जोड़ा .. समझाया कि इन बातों को जानना क्यों उनके लिए जरूरी है। ऐसे भी जब तक हमारी दैनिक जरूरतें पूरी नहीं होतीं, हम साफ्ताहिक, मासिक या सालाना मुद्दों के बारे में नहीं सोचते.. राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के बारे में हम तभी सोचते हैं जब हमारी स्थानीय आवश्यकताएं पूरी हो जाएं। AISA के लोग, चंद्रशेखर के परवर्ती लोग ये नहीं कर सके। केवल चंद्रशेखर की दुहाई देते रहे, दारू के ग्लास भर-भर कर, आंखें लाल कर-कर के दुनिया-जहान के मुद्दों पर बहस करते रहे। और शायद इसीलिए चंद्रशेखर के बाद AISA जेएनयू में, अपने ही घर में नहीं टिक पायी।