शनिवार, 16 जून 2007

शहरोज़ की एक कविता

मुझे नहीं मालूम कि शहरोज़ कौन हैं, लेकिन कविता अच्छी लिखते हैं ( हालांकि उन्हें मेरे सर्टिफिकेट की जरुरत नहीं है) । ये कविता बीबीसी हिन्दी के साइट से उठायी है... अपनी-सी लगती है। कम शब्दों में इतने अच्छे से उस बात को कह गए हैं वो, जो शायद हमारी पीढ़ी की सबसे बड़ी इच्छा रही औऱ अब सबसे बड़ी पीड़ा है।


दिल्ली आकर

गाँव में थे
क़स्बे से आए व्यक्ति को
घूर-घूर कर देखते।

क़स्बे में थे
शहर से आए उस रिक्शे के पीछे-पीछे भागते
जिस पर सिनेमा का पोस्टर चिपका होता।

शहर में आए
महानगर का सपना देखते।

दिल्ली आकर
गाँव जाने का ख़ूब जी करता है।

- शहरोज़
ई-11, सादतपुर,
दिल्ली-110094

मैं, तुम और फिल्म

यह मेरी अपनी कविता है ... खालिस अपनी । इसे लिखा तो कई वर्षों पहले था और पहली बार जब ब्लॉग की दुनिया से जुड़ा था तो इसे ही पोस्ट किया था । यह कविता आज भी www.hastakshep.multiply.com पर मौजूद है। यह अलग बात है कि उसकी कुंजी खुद भूल चूका हूँ । बहरहाल, इस ब्लॉग पर भी अपनी रचना के साथ पहली उपस्थिति इसी कविता के जरिये हो रही है। लेकिन यह महज एक संयोग से ज्यादा कुछ भी नहीं है क्योंकि इसे पुराने ब्लॉग से सीधे कट कर यहां पेस्ट कर रहा हूं। कविता लिखने के क्रम में ही एक बार ये भी लिखी गयी थी, दिल से में इसकी कोई विशेष जगह की बात बिल्कुल भी नहीं है। दिल से जुड़ीं कवितायेँ तो कुछ और ही हैं , जिसे फिर कभी पोस्ट करुंगा


मैं अमिताभ बच्चन नहीं हूं
कि गाता चलूं
" मैं और मेरी तन्हाई ॰॰॰"
पर अपने एकाकी पलों में
मैं भी कुछ ऐसा ही सोचता हूं
चाहता हूं कि
काश ! तुम मेरे पास होतीं
मुझसे बातें करतीं
और मैं तुम्हें निहारता रहता
अपलक ॰॰॰॰॰

फिल्मी लग रहा है न मेरा अंदाज ?
क्या करोगी
आजकल सामान्य भारतीय
सिनेमाई अंदाज में ही
हंसता-गाता-रोता-जीता है

मैंने कहा न
मैं अमिताभ बच्चन नहीं हूं
वो एंग्री यंगमैन था
सारी दुनिया से लड़ कर अपनी प्रेमिका को पा सकता था,
मैं नहीं ॰॰॰

मैं दिलीप कुमार भी नहीं हूं कि
गम में तुम्हारे
टेसूए बहाता चलूं
अरे॰॰ तुम नहीं तो कोई और सही
वो भी नहीं तो
कोई तीसरी सही ॰॰॰

हां, शाहरुख खान की एनर्जी और
अगंभीरता
मुझे प्रभावित करती है
मैं भी वैसा ही बनना चाहता हूं
ताकि विपरीत समय में भी हंसता रहूं

विषयांतर हो गया लगता है॰॰॰ नहीं ?
कहां-कहां की बातें कर बैठा
पर क्या करूं ?
जानता हूँ
कि तुम्हें पाने की कीमत देनी होगी

पद-पैसा-प्रतिष्ठा के बिना आदमी का कोई मोल नहीं होता

इसी 'प' अक्षर को पाने में लगा हूँ
इंतज़ार करो तब तक
यदि कर सको तो ॰॰?

ज्ञानेंद्रपति की तीन कविताएँ

ज्ञानेंद्रपति की ये कविताएं बीबीसी हिन्दी के वेबसाइट पर पढ़ी थी। दिल में उतर गयी, उतरने लायक हैं भी। कम शब्दों में अपनी बात कहना एक बहुत बड़ी कला है और ये कविता इसका एक बढ़िया उदाहरण है। बहरहाल ज्ञानेंद्रपति से अपना कोई परिचय नहीं है, कवि और पाठक के रिश्ते के अलावा। बिना उनकी इजाजत के ये कविताएं यहां पोस्ट कर रहा हूं। क्षमा याचित है लेकिन मेरे इस विश्वास से शायद वो भी सहमत होंगे कि अच्छी चीजें लोगों तक पहुंचनी चाहिए। हालांकि इसका आर्थिक पक्ष ये है कि मुफ्त में ही क्यों ... पर ये एक अलग बहस है, जिस पर बात फिर कभी


[ 1 ]

क्यों न क्यों न कुछ निराला लिखें
इक नई देवमाला लिखें
अंधेरे का राज चौतरफ़
एक तीली उजाला लिखें
सच का मुँह चूम कर
झूठ का मुँह काला लिखें
कला भूल, कविता कराला लिखें
न आला लिखें, निराला लिखें
अमरित की जगह विष-प्याला लिखें
इक नई देवमाला लिखें
खल पोतें दुन्या पर एक ही रंग
हम बैनीआहपीनाला लिखें

--# दुन्या - दुनिया
#बैनीआहपीनाला - इंद्रधनुष के सात रंग

***********************************

हिंदी के लेखक के घर

न हो नगदी कुछ ख़ास
न हो बैंक बैलेंस भरोसेमंद
हिंदी के लेखक के घर, लेकिन
शाल-दुशालों का
जमा हो ही जाता है ज़ख़ीरा
सूखा-सूखी सम्मानित होने के अवसर आते ही रहते हैं
(और कुछ नहीं तो हिंदी-दिवस के सालाना मौके पर ही)
पुष्प-गुच्छ को आगे किए आते ही रहते हैं दुशाले
महत्त्व-कातर महामहिम अंगुलियों से उढ़ाए जाते सश्रद्ध
धीरे-धीरे कपड़ों की अलमारी में उठ आती है एक टेकरी दुशालों की
हिंदी के लेखक के घर
शिशिर की जड़ाती रात में
जब लोगों को कनटोप पहनाती घूमती है शीतलहर
शहर की सड़कों पर
शून्य के आसपास गिर चुका होता है तापमान,
मानवीयता के साथ मौसम का भी
हाशिए की किकुड़ियाई अधनंगी ज़िंदगी के सामने से
निकलता हुआ लौटता है लेखक
सही-साबुत. और कंधों पर से नर्म-गर्म दुशाले को उतार,
एहतियात से चपत
दुशालों की उस टेकरी पर लिटाते हुए
ख़ुद को ही कहता है
मन-ही-मन
हिंदी का लेखक
कि वह अधपागल ‘निराला’ नहीं है बीते ज़माने का
और उसकी ताईद में बज उठती है
सेल-फ़ोन की घंटी

उसकी छाती पर
ग़रूर और ग्लानि के मिले-जुले
अजीबोग़रीब
एक लम्हे की दलदल से
उसे उबारती हुई

***********************************

एक टूटता हुआ घर


एक टूटते हुए घर की चीख़ें
दूर-दूर तक सुनी जाती हैं
कान दिए लोग सुनते हैं.
चेहरे पर कोफ़्त लपेटे

नींद की गोलियाँ निगलने पर भी
वह टूटता हुआ घर
सारी-सारी रात जगता है
और बहुत मद्धिम आवाज़ में कराहता है
तब, नींद के नाम पर एक बधिरता फैली होती है ज़माने पर
बस वह कराह बस्ती के तमाम अधबने मकानों में
जज़्ब होती रहती है चुपचाप
सुबह के पोचारे से पहले तक

****** ज्ञानेंद्रपति
बी-3/12, अन्नपूर्णा नगर
विद्यापीठ मार्ग
वाराणसी-221002
फोन-0542-2221039

हँसती रहने देना

बहुत सीधे-सपाट शब्दों में लिखी गयी ये कविता है, जो अज्ञेय की खासियत शायद नहीं है। अगर मैं गलत हूं तो हिन्दी वाले कृपया मुझे माफ करें। लेकिन पत्नी को इतना अच्छा संबोधन इतने कम शब्दों में .... एक बार तो पढ़ना लाजिमी है


जब आवे दिन
तब देह बुझे या टूटे
इन आँखों को हँसती रहने देना!

हाथों ने बहुत अनर्थ किये
पग ठौर-कुठौर चले
मन के
आगे भी खोटे लक्ष्य रहे
वाणी ने (जाने अनजाने) सौ झूठ कहे

पर आँखों ने
हार, दुःख, अवसान, मृत्यु का
अँधकार भी देखा तो
सच-सच देखा

इस पार
उन्हें जब आवे दिन
ले जावे
पर उस पार
उन्हें
फिर भी आलोक कथा
सच्ची कहने देना
अपलक
हँसती रहने देना
जब आवे दिन!

- अज्ञेय

यह दीप अकेला

अज्ञेय की इस कविता के कृपया बोल्ड किए हुए अंश देखें। प्रेरित करता है कुछ करते रहने को ... ठीक 'एकला चलो रे' के माफिक



यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता
पर इसको भी पंक्ति को दे दो

यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा?
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा
यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो

यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय
यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
इस को भी शक्ति को दे दो

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो

यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो

- अज्ञेय

ब्राह्म मुहूर्त

पिताजी अक्सर ये कविता सुनाते थे ... औऱ अनकहे ही बहुत सारी बातें कह जाते थे । उनकी आकांक्षाएं, पीड़ा, वेदना ... सब सिर-माथे। इस की पंक्तियां तो लगता है जैसे कि दिमाग में चित्रित हैं। शायद उनसे न सुनता तो अर्थ कुछ दूसरे होते या देर से समझ आते। मेरी सर्वकालिक पसंदीदा कविताओं में से एक



जियो उस प्यार में
जो मैने तुम्हें दिया है
उस दुख में नहीं
जिसे बेझिझक मैंने पिया है

उस गान में जियो
जो मैंने तुम्हें सुनाया है
उस आह में नहीं
जिसे मैंने तुम से छिपाया है

उस द्वार से गुज़रो
जो मैंने तुम्हारे लिये खोला है
उस अंधकार के लिये नहीं
जिसकी गहराई को बार-बार
मैंने तुम्हारी रक्षा की
भावना से टटोला है

वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं असीसों से बुनता हूँ, बुनूँगा
वे काँटे गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूँ, चुनूँगा

वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे लिये बनाता हूँ बनाता रहूँगा
मैं जो रोड़ा हूँ उसे हथौड़े से तोड़ तोड़
मैं जो कारीगर हूँ करीने से
सँवारता सजाता हूँ, सजाता रहूंगा

सागर के किनारे तक
तुम्हें पहुँचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो
फिर वहाँ जो लहर हो तारा हो
सोन तरी हो अरुण सवेरा हो
वह सब ओ मेरे वर्य!

तुम्हारा हो, तुम्हारा हो, तुम्हारा हो!

- अज्ञेय

नया कवि : आत्म-स्वीकार

ये कविता बहुत हद तक मेरे ही जैसों के लिए है, जो उभरना चाहते हैं, खुशफहमी में रहते हैं... वगैरह-वगैरह । ईमानदारी से ये मेरे लिए ही है


किसी का सत्य था,
मैंने संदर्भ में जोड़ दिया ।
कोई मधुकोष काट लाया था,
मैंने निचोड़ लिया ।

किसी की उक्ति में गरिमा थी
मैंने उसे थोड़ा-सा संवार दिया,
किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था
मैंने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया ।

कोई हुनरमन्द था:
मैंने देखा और कहा, 'यों!
'थका भारवाही पाया -
घुड़का या कोंच दिया, 'क्यों!'

किसी की पौध थी,
मैंने सींची और बढ़ने पर अपना ली।
किसी की लगाई लता थी,
मैंने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली ।

किसी की कली थी
मैंने अनदेखे में बीन ली,
किसी की बात थी
मैंने मुँह से छीन ली ।

यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ:
काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ?
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें ।
पर प्रतिमा--अरे, वह तो
जैसी आप को रुचे आप स्वयं गढ़ें ।

- अज्ञेय

उड़ चल हारिल

अज्ञेय की कुछ रचनाएं मेरी 'ऑल टाइम फेवरिट' है औऱ ये कविता उन्हीं में से एक है

उड़ चल हारिल लिये हाथ में
यही अकेला ओछा तिनका
उषा जाग उठी प्राची में
कैसी बाट, भरोसा किन का!

शक्ति रहे तेरे हाथों में
छूट न जाय यह चाह सृजन की
शक्ति रहे तेरे हाथों में
रुक न जाय यह गति जीवन की!

ऊपर ऊपर ऊपर ऊपर
बढ़ा चीरता चल दिग्मण्डल
अनथक पंखों की चोटों से
नभ में एक मचा दे हलचल!

तिनका तेरे हाथों में है
अमर एक रचना का साधन
तिनका तेरे पंजे में है
विधना के प्राणों का स्पंदन!

काँप न यद्यपि दसों दिशा में
तुझे शून्य नभ घेर रहा है
रुक न यद्यपि उपहास जगत का
तुझको पथ से हेर रहा है!

तू मिट्टी था, किन्तु आज मिट्टी को
तूने बाँध लिया है
तू था सृष्टि किन्तु सृष्टा का गुर
तूने पहचान लिया है!

मिट्टी निश्चय है यथार्थ पर
क्या जीवन केवल मिट्टी है?
तू मिट्टी, पर मिट्टी से
उठने की इच्छा किसने दी है?

आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का
तू है दुर्निवार हरकारा
दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह तिनका
सूने पथ का एक सहारा!

मिट्टी से जो छीन लिया है
वह तज देना धर्म नहीं है
जीवन साधन की अवहेला
कर्मवीर का कर्म नहीं है!

तिनका पथ की धूल स्वयं तू
है अनंत की पावन धूली
किन्तु आज तूने नभ पथ में
क्षण में बद्ध अमरता छू ली!

ऊषा जाग उठी प्राची में
आवाहन यह नूतन दिन का
उड़ चल हारिल लिये हाथ में
एक अकेला पावन तिनका!

- अज्ञेय

दुष्यन्त की शाइरी - 1

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

- दुष्यन्त कुमार

दुष्यन्त की शाइरी - 2

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

- दुष्यन्त कुमार

एक आशीर्वाद / दुष्यन्त कुमार की कविता

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद-तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना-मचलना सीखें।

हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।

हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

- दुष्यन्त कुमार

मंगलवार, 12 जून 2007

आम्र-बौर का गीत

क्या आपने कनुप्रिया पढ़ी है। कनु यानी कृष्ण की प्रिया कनुप्रिया या राधा। पसंद आपकी। लेकिन इन पंक्तियों को जरा पढ़ें। प्रेम की एक नई परिभाषा धर्मवीर भारती कनुप्रिया के जरिए देते हैं। इसका एक और अंश 'तुम मेरे कौन हो कनु' भी जल्दी ही पोस्ट करूंगा।



यह जो मैं कभी-कभी चरम साक्षात्कार के क्षणों में
बिलकुल जड़ और निस्पन्द हो जाती हूँ
इस का मर्म तुम समझते क्यों नहीं मेरे साँवरे!

तुम्हारी जन्म-जन्मान्तर की रहस्य्मयी लीला की एकान्त संगिनी मैं
इन क्षणों में अकस्मात
तुम से पृथक नहीं हो जाती हूँ मेरे प्राण,
तुम यह क्यों नहीं समझ पाते
कि लाज
सिर्फ जिस्म की नहीं होती
मन की भी होती है
एक मधुर भय
एक अनजाना संशय,
एक आग्रह भरा गोपन,
एक निर्व्याख्या वेदना,
उदासी,
जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी
अभिभूत कर लेती है।
भय,
संशय,
गोपन,
उदासी
ये सभी ढीठ, चंचल, सरचढ़ी सहेलियों की तरह
मुझे घेर लेती हैं,
और मैं कितना चाह कर भी
तुम्हारे पास ठीक उसी समय
नहीं पहुँच पाती जब आम्र मंजरियों के नीचे
अपनी बाँसुरी में मेरा नाम भर कर तुम बुलाते हो!

उस दिन तुम उस बौर लदे आम की
झुकी डालियों से टिके कितनी देर मुझे वंशी से टेरते रहे
ढलते सूरज की उदास काँपती किरणें
तुम्हारे माथे मे मोरपंखों से बेबस विदा माँगने लगीं
-मैं नहीं आयी

गायें कुछ क्षण तुम्हें अपनी भोली आँखों से
मुँह उठाये देखती रहीं और फिर
धीरे-धीरे नन्दगाँव की पगडण्डी पर
बिना तुम्हारे अपने-आप मुड़ गयीं
-मैं नहीं आयी

यमुना के घाट पर
मछुओं ने अपनी नावें बाँध दीं
और
कन्धों पर पतवारें रख चले गये
-मैं नहीं आयी

तुम ने वंशी होठों से हटा ली थी
और उदास, मौन, तुम आम्र-वृक्ष की जड़ों से टिक कर
बैठ गये थे
और बैठे रहे, बैठे रहे, बैठे रहे

- मैं नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी

तुम अन्त में उठे
एक झुकी डाल पर खिला एक बौर तुम ने तोड़ा
और धीरे-धीरे चल दिये
अनमने तुम्हारे पाँव पगडण्डी पर चल रहे थे
पर जानते हो तुम्हारे अनजान में ही तुम्हारी उँगलियाँ
क्या कर रही थीं!

वे उस आम्र मंजरी को चूर-चूर कर
श्यामल वनघासों में बिछी उस
माँग-सी उजली पगडण्डी पर
बिखेर रही थीं

.....यह तुमने क्या किया प्रिय!
क्या अपने अनजाने में ही
उस आम के बौर से
मेरी क्वाँरी उजली पवित्र माँग
भर रहे थे साँवरे?
पर मुझे देखो कि मैं
उस समय भी तो माथा नीचा कर
इस अलौकिक सुहाग से प्रदीप्त हो कर
माथे पर पल्ला डाल कर
झुक कर तुम्हारी चरणधूलि ले कर
तुम्हें प्रणाम करने

- नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी!

**

पर मेरे प्राण
यह क्यों भूल जाते हो कि मैं वही
बावली लड़की हूँ न जो - कदम्ब के नीचे बैठ कर
जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को
तोड़ कर, मसल कर, उन की लाली से मेरे पाँव को
महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हो
तो मैं लाज से धनुष की तरह दोहरी हो जाती हूँ
अपनी दोनों बाँहों में अपने घुटने कस
मुँह फेर कर निश्चल बैठ जाती हूँ
पर शाम को जब घर आती हूँ तो
निभॄत एकान्त में दीपक के मन्द आलोक में
अपनी उन्हीं चरणों को
अपलक निहारती हूँ
बावली-सी उन्हें बार-बार प्यार करती हूँ
जल्दी-जल्दी में अधबनी महावर की रेखाओं को
चारों ओर देख कर धीमे-से
चूम लेती हूँ।

***

रात गहरा आयी है
और तुम चले गये हो
और मैं कितनी देर तक बाँह से
उसी आम्र डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हूँ
जिस पर टिक कर तुम मेरी प्रतीक्षा करते हो

और मैं लौट रही हूँ,
हताश,
और निष्फल
और ये आम के बौर के कण-कण
मेरे पाँव मे बुरी तरह साल रहे हैं।
पर तुम्हें यह कौन बतायेगा साँवरे
कि देर ही में सही
पर मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी
और माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखरे
ये मंजरी-कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो
इसी लिए न कि इतना लम्बा रास्ता
कितनी जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है
और काँटों और काँकरियों से
मेरे पाँव किस बुरी तरह घायल हो गये हैं!

यह कैसे बताऊँ तुम्हें
कि चरम साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी
जो कभी-कभी मेरे हाथ से छूट जाते हैं
तुम्हारी मर्म-पुकार जो कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती
तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती
तो मेरे साँवरे -लाज मन की भी होती है
एक अज्ञात भय,
अपरिचित संशय,
आग्रह भरा गोपन,
और सुख के क्षणमें भी
घिर आने वाली निर्व्याख्या उदासी

-फिर भी उसे चीर कर
देर में ही आऊँगी प्राण,
तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी
चन्दन-बाहों में भर कर बेसुध नहीं
कर दोगे?

- धर्मवीर भारती

समापन

क्या तुम ने उस वेला मुझे बुलाया था कनु?
लो, मैं सब छोड़-छाड़ कर आ गयी!

इसी लिए तब
मैं तुम में बूँद की तरह विलीन नहीं हुई थी,
इसी लिए मैं ने अस्वीकार कर दिया था
तुम्हारे गोलोक का
कालावधिहीन रास,

क्योंकि मुझे फिर आना था!

तुम ने मुझे पुकारा था न
मैं आ गयी हूँ कनु!

और जन्मान्तरों की अनन्त पगडण्डी के
कठिनतम मोड़ पर खड़ी हो कर
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ।
कि इस बार इतिहास बनाते समय
तुम अकेले न छूट जाओ!

सुनो मेरे प्यार!
प्रगाढ़ केलिक्षणों में अपनी अन्तरंगसखी को
तुम ने बाहों में गूँथा
पर उसे इतिहास में गूँथने से हिचक क्यों गये प्रभू?

बिना मेरे कोई भी अर्थ कैसे निकल पाता
तुम्हारे इतिहास का
शब्द, शब्द, शब्द ....
राधा के बिना
सब
रक्त के प्यासे
अर्थहीन शब्द!

सुनो मेरे प्यार!
तुम्हें मेरी जरूरत थी न, लो मैं सब छोड़ कर आ गयी हूँ
ताकि कोई यह न कहे
कि तुम्हारी अन्तरंग केलिसखी
केवल तुम्हारे साँवरे तन के नशीले संगीत की
लय बन कर रह गयी .........

मैं आ गयी हूँ प्रिय!
मेरी वेणी में अग्निपुष्प गुँथने वाली
तुम्हारी उँगलियाँ
अब इतिहास में अर्थ क्यों नहीं गूँथतीं?

तुम ने मुझे पुकारा था न!

मैं पगडण्डी के कठिनतम मोड़ पर
तुम्हारी प्रतीक्षा में
अडिग खड़ी हूँ, कनु मेरे!


- धर्मवीर भारती