शनिवार, 12 अप्रैल 2008

ब्लॉग स्पेस की गंदगी और जातिवाद

अजब हालत है इन दिनों हिंदी ब्लॉग स्पेस की। कुछेक ब्लॉग्स पर एनॉनिमिटी की आड़ लेकर व्यक्तिगत चरित्रहनन की हर संभव कोशिश हो रही है। मतैक्य नहीं हो.. ये तो ठीक है लेकिन विचारों पर आपत्ति के बजाय व्यक्ति पर हमला किया जाय.. इससे मैं तो सहमत नहीं हूं। क्या हम इतने असहिष्णु हो गए हैं या होते जा रहे हैं कि एक-दूसरे की बात भी न सुनें...विचार का सम्मान मत करिए लेकिन लोगों को अपने विचार रखने का मौका तो दीजिए। दिक्कत यही है कि इसी तर्क की आड़ लेकर विचारों के बहाने एक-दूसरे पर कीचड़ उछाला जा रहा है।

एनॉनिमिटी से मुझे आपत्ति नहीं है लेकिन आपत्ति चरित्रहनन के प्रयासों पर है। अपने को गुमनाम रखने का हर आदमी को हक है, ये भी हक है कि लोकतंत्र में बिना अपने को प्रकट किए अपनी बात रखे। लेकिन इसे अगर निजी जिंदगी या किसी के चरित्र से जोड़ दिया जाए तो मुझे आपत्ति है। विचारों की असहमति का स्वागत है... आखिर पांचों उंगलियां एक जैसी नहीं होती, लेकिन पांचों अगर आपस में ही लड़ने लगे तो हो गया कल्याण हाथ का। कुछ भी करने के लायक नहीं बचेंगे हम। और फिर इतने पढ़े-लिखे होने का कोई फायदा नहीं है (नहीं पढ़े-लिखे होते तो संचार के इस आधुनिकतम माध्यम यानी ब्लॉग का उपयोग तो नहीं ही कर रहे होते ; इक्के-दुक्के अपवाद हो सकते हैं, सब नहीं) ।

एक असंवेदनशील समाज की ओर हम सब बढ़ रहे हैं, जिसमें अपनापन बिल्कुल भी नहीं है, दूसरे की बात सुनने का धैर्य नहीं है.. केवल, और केवल अपनी बात हम सब सुनना-सुनाना चाहते हैं। अपनी बात और दूसरे की जोरू आजकल शायद हम सबको सबसे प्यारी लगने लगी है। और इससे मैं चिंतित भी हूं, परेशान भी।

मुहल्ले ने एक अच्छी बहस करने की कोशिश की थी भारतीय जाति व्यवस्था पर रवीश के लेख के बहाने। लेकिन बहस का रूख अतिवाद की ओर चला गया। मोहल्ले के विरोधियों ने इस बहाने अविनाश और इस मत के लोगों पर हमले शुरू किए तो मोहल्ले ने अपनी गलियों में बहस को कुछ ऐसे मोड़ दिया मानो इस बहाने वो देश से जाति खत्म करके ही रूकेंगे।

सवर्ण होने के बावजूद जातिवाद का मैं समर्थक नहीं हूं और मानता हूं कि भारत के इतिहास में (अगर इसे 5-10 हजार साल पुराना मानें या दो-ढ़ाई हजार साल पुराना) आदमी द्वारा अपने ही जैसे आदमी के खिलाफ रचा गया अब तक का सबसे बड़ा सबसे बड़ा षड्यंत्र था। दिक्कत ये है कि हम अब तक इससे उबर नहीं पाए हैं।

लेकिन मेरे जैसे कई लोग होंगे जिन्हें फिर भी आशा की किरण दिखती है। समाज सुधार के आंदोलनों के चलते आज ये पिछड़ा वर्ग (जिन्हें ब्राह्मणों ने शूद्र करार दिया और हम दलित कहते हैं) अपने हक की लड़ाई लड़ रहा है। आजादी के पहले 40-42 सालों में हो सकता है कि ये इतना मुखर न रहा हो, लेकिन पिछले 18 सालों में तो क्रांतिकारी बदलाव हुए हैं(अगर हम पहले के सालों को पैमाना मानें तो)। हो सकता है कि जितनी बदलाव की अपेक्षा कुछ लोगों ने की हो, वो बदलाव उस हद तक न हुआ हो... लेकिन क्या कुछ भी नहीं बदला है ?

मीडिया में जाति का जो सर्वे जितेंद्रजी, चमड़ियाजी और योगेंद्रजी ने किया वो अपने आप में अद्भुत है और ऐसे कई सर्वे की हमें जरूरत है। हमें सच में ऐसे सर्वे चाहिए जो बता सके कि फलानी जगह, फलाने सेक्टर में किस जाति के कितने लोग हैं। तभी एक सही तस्वीर सामने आ सकेगी और सवर्णों को वर्चस्व भी घटेगा। लेकिन इसके साथ ही ये भी सच है कि भले एक मुट्ठी ही सही लेकिन क्या इतने भी दलित, इतने भी ओबीसी मंडल कमीशन लागू होने से पहले मीडिया में थे ? मुझे लगता है कि जबाव ‘नहीं’ में होगा। इसी तरह क्या जितने पिछड़े वर्ग के लोग आज सरकारी नौकरी में हैं, क्या 1990 में (प्रतिशत के हिसाब से) इतने लोग थे सरकारी नौकरी में ? एक बार फिर मुझे ‘नहीं’ में ही उत्तर दिखता है। तो वजह हम भी जानते हैं कि सवर्णों (ब्राह्मणों) के वर्चस्व के चलते मंडल कमीशन से पहले इस दिशा में इतनी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया।

दलितों को आरक्षण तो संविधान लागू होने के समय से ही मिल रहा है लेकिन आंकड़े उठा कर देख लीजिए... 1990 तक किसी भी साल उनके लिए आरक्षित सीटें आपको पूरी तरह भरी नहीं मिलेगी। सवर्णों या यूं कहें कि सदियों पहले ब्राह्मणों ने ऐसा मजबूत जाल बुना था जातिवाद का जो हम आज तक पूरी तरह नहीं काट पाए हैं।

लेकिन ये कहना भी गलत होगा कि ये पूरी तरह अक्षुण्ण है। बल्कि थोड़ा-बहुत टूटने के चलते ही आकांक्षाएं औऱ भी बढ़ गयी हैं और विरोध और भी प्रबल होता जा रहा है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। और लोग न भी करें, मैं तो स्वागत करता हूं.. ये भी कोशिश करता हूं कि इस जाल का जितना टुकड़ा तोड़ सकूं वो तोड़ता रहूं। अब लोग चाहे जितना गरियायें। भाई, जब बरगद टूटने लगेगा तो कईयों का आसरा, कईयों की जिंदगी छिन ही जाएगी, कईयों की मठाधीशी तो खतरे में पड़ेगी ही।

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और अंत में

वैसे अविनाशजी का मीडिया प्रेमं मुझे हमेशा से चकित करता रहा है। न जाने क्यों वो हर बात को घुमा-फिरा कर मीडिया पर ही ले आते हैं। ये बात और है कि उनके इतने प्रयासों के बाद (अगर हम इसे प्रयास मानें तो) भी परिदृश्य अब तक वैसे का वैसा ही है। ना तो उनके चैनल में कहीं कुछ बदला है और न ही किसी दूसरे चैनल या अखबार में। हां, हमलोगों ने गलथोथी खूब की है, खूब स्यापा किया है। शायद ये मोहल्ले की ही मेहरबानी है कि हिंदी ब्लॉग स्पेस में इस पर लिखने वाले और इससे जुड़े ब्लॉग्स की भरमार हो गयी है और आम जिंदगी के, समाज के कई मुद्दे पीछे छूट गए हैं।