बुधवार, 7 अप्रैल 2010

राम के बहाने रामकथा और भारतीय इतिहास का पुनर्पाठ - कुछ प्रश्न

जनतंत्र में मुकेशजी ने रामनवमी के मौके पर राम के चरित्र की अपनी तरह से व्याख्या की। और विवाद तो उठना ही था क्योंकि एक अरब बीस करोड़ लोगों के देश में एक कहावत है कि अपनी अक्ल और दूसरे की जोरू सबको प्यारी लगती है। मुझे भी अपनी अक्ल प्यारी लगती है। लिहाजा मैंने भी अपनी प्रतिक्रिया लिख डाली। उसी का थोड़ा संशोधित संस्करण यहां डाल रहा हूं। एक अरसे के बाद ब्लॉग पर कुछ पोस्ट करना अच्छा लग रहा है।

" राम के बहाने रामकथा, भारतीय इतिहास का पुनर्पाठ - कुछ प्रश्न? "

पहले तो ये तय किया जाय कि राम थे या नहीं ... उनकी ऐतिहासिकता कितनी प्रमाणित की जा सकती है / कैसे प्रमाणित की जा सकती है .. लोकगाथा के अंग वे कैसे बने .. क्या कई सारे व्यक्तित्वों को मिला कर एक आदर्श तो नहीं गठित किया गया या श्रुति परंपरा के दिनों में कई बातें समय के साथ यूं ही तो नहीं जुड़ती गईं ?

इस तरह के न जाने कितने प्रश्न हो सकते हैं ... राम कथा इतिहास है, साहित्य है , दोनों का मिश्रण है या सदियों तक विकसित होते-होते आज के रूप में पहुंचा ... ये भी तय करना पड़ेगा कि किस राम को मानें - वाल्मीकि के राम को, तुलसी के राम को या हमारे समय की कुछ व्याख्याओं को - नरेंद्र कोहली के राम को, भगवान सिंह के अपने-अपने राम को ...।

राम के ऊपर इतना लिखा जा चुका है कि पहले ये तो तय करना पड़ेगा कि किसके राम, किस समय के राम ? जिस किसी के राम को मानें उसकी प्रामाणिकता को परखेंगे कैसे? राम के किस पाठ को मानें और उस पाठ की प्रामाणिकता कौन तय करेगा?

केवल अपने पुरखों से, समाज से सुन कर मैं उसे आंखें बंद करके मान लूं तो लानत मेरे सोचने-समझने की शक्ति पर है।

धर्म मेरे लिए निजी आस्था का विषय है, नरेंद्र कोहली ने अपना रामकथा में राम के व्यक्तित्व को जो रुप दिया है, जिस तरह से विकसित किया है ... उसके आधार पर मैं राम को मर्यादा पुरूषोत्तम या महानायक मानने के तैयार हूं। इसमें राम का मानवीय रूप बहुत अच्छे से विकसित होता है। इस किताब को मैंने पचासों बार पढ़ा है.. जब भी पढ़ता हूं राम से प्रेरित होता हूं .. जब भी किसी मुसीबत में होता हूं रामकथा का यही पाठ/यही विश्लेषण याद आता है, प्रेरित करता है मुसीबतों का सामना करने के लिए।

लेकिन न तो वाल्मीकि के राम को और न ही तुलसी के राम को मैं मानवीय, महानायक या मर्यादा पुरूषोत्तम मानने को तैयार हूं। दोनों ही किताबें इतिहास कम, साहित्य ज्यादा हैं।

कुछ मित्र कहते हैं कि राम का रूप मानवीय था और विष्णु के इस अवतार ने मानवीय रूप में काम किया, चमत्कारों का प्रदर्शन नहीं किया। मुझे तो ठीक इसके उल्टा दिखता है ... जरा वाल्मीकि रामायण या तुलसी का रामचरितमानस फिर से पढ़िए .. बचपन में राम कौशल्या को अपने मुंह में ब्रह्मांड का दर्शन कराते हैं ... अहिल्या को पैर से छूकर पत्थर से औरत बना देते हैं (जिसके चलते केवट पहले राम को पैर धोने को कहता है)... ये कहीं भी वर्णित नहीं है कि आखिर किस मानवीय शक्ति से राम ने सीता स्वयंवर में भगवान शिव का धनुष तोड़ने में सफलता पायी (इस धनुष को उस समय का सबसे शक्तिशाली आदमी रावण भी नहीं तोड़ पाया था) .. विज्ञान के तहत विकसित वो कौन सा बाण था कि मारीच को सिद्धाश्रम से दूर लंका के पास गिरा गया .. किस मानवीय शक्ति के तहत राम खर-दूषण की चौदह सहस्त्र सेना को अकेले ही खत्म कर देते हैं (लक्ष्मण ने इस युद्ध में भाग नहीं लिया था और इसके चलते ही सीता ने कर्तव्यच्युत होने का वो ताना दिया कि लक्ष्मण रेखा खींचने को विवश हो कर सोनमृग की तलाश कर रहे राम की सहायता के लिए जाने को लक्ष्मण विवश हुए) ... वो भी दृश्य याद करें जब समुद्र पार करने का रास्ता तलाश पाने में विफल होने पर राम अपने रौद्र रूप में आ कर अपने बाण से समुद्र को सुखा डालने और वरूण का नामो-निशान मिटाने का ऐलान करते हैं और फिर पत्थर पर रामनाम लिखने से वो समुद्र में नहीं डूबता है ...।

वाल्मीकि और तुलसी के राम तो हर कदम पर चमत्कार करते दिखते हैं और हम कहते हैं कि राम का रूप तो मानवीय था। वाह!!!

इस देश के इतिहास के पुनर्पाठ की अतिसख्त आवश्यकता है .. वेदों से लेकर आज तक के इतिहास की। ऐसा क्यों है कि महामानव, भगवान के अवतार, दुनिया भर के महापुरूष केवल इसी देश में पैदा हुए और हमारे पास उनका एक भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है ? वेदों को हम दुनिया की सबसे पुरानी किताब कहते हैं और उन वेदों में से किसी का भी उपयोग हम अपनी किसी पूजा में, किसी मंदिर में नहीं करते हैं। गीता और रामायण को कहीं ज्यादा लोग जानते हैं और पूजते हैं। क्यों भई?

मुद्राराक्षस की एक किताब है - धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ । इसे जरूर पढ़ना चाहिए, इतिहास की इस किताब की व्याख्या से आप पूरी तरह सहमत न हों ये मुमकिन है, लेकिन उनकी कई बातों को आप मानने के लिए तैयार होंगे। ... ऐसी कितनी कोशिशें इस देश में हुई हैं अपने इतिहास का मूल्यांकन करने के लिए?

राम जन्मभूमि आंदोलन आजाद भारत के तीन-चार सबसे बड़े आंदोलनों में था, बाबरी मस्जिद गिरा भी, सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर पुरात्तत्ववेत्ताओं ने उस साइट की खुदाई भी की। कुछेक अवशेष जरूर मिले कि वहां मंदिर रहा होगा (हालांकि अभी भी ये संदिग्ध है), लेकिन ऐसे प्रमाण तो आज भी नहीं हैं जो बता सकें कि राम का जन्म उसी स्थान पर, उसी गर्भगृह में या उतनी ही दूरी पर कहीं हुआ।
राम तो राजकुमार थे, वाल्मीकि/तुलसी कहते हैं कि राम राजकुमार थे, अयोध्या के राजा दशरथ के बेटे थे और राजा लोग महलों में रहते थे। मतलब ये कि राम का जन्म तो महल में ही हुआ होगा (लव-कुश की तरह जंगल में नहीं)। तो फिर वो महल कहां गए ? अगर राम तीन-चार-पांच हजार साल पहले थे, तो उतने पुराने अवशेष आज की अयोध्या में तो होने ही चाहिए (आखिर आज की ही अयोध्या को हमने राम की भी अयोध्या माना है)। लेकिन आज तक ऐसा कोई भी पुरातात्विक अवशेष नहीं मिला। अयोध्या में जो भी मिला है वो पांच सौ से पंद्रह सौ साल पुराना है। मतलब ईसा के जन्म के बाद और हमारे धर्मग्रंथों की मानें तो राम तो ईसा से कई सौ या हजार साल पहले थे। मतलब क्या आज की अयोध्या सही है या हमारे धर्मग्रंथ किसी और अयोध्या की बात करते हैं। पहले इसे स्थापित कर लीजिए, ऐतिहासिक और पुरातात्विक सबूतों के आधार पर। फिर ये तय करिए कि बाबरी मस्जिद का वो विवादित ढ़ांचा जिसे हम राम का जन्मस्थान मानते हैं, वो सही है या गलत।
ब्रह्मा-विष्णु-महेश में आखिर महेश ही क्यों पहाड़ पर रहते हैं..विष्णु की तरह क्षीरसागर या ब्रह्मा के ब्रह्मलोक की तरह उनका कोई लोक क्यों नहीं है .. क्यों उन्हें स्वर्ग नसीब नहीं है .. शिव ही क्यों विष पीते हैं, ब्रह्मा-विष्णु क्यों नहीं (आखिर वो भी तो सृष्टि के तीन शीर्षस्थ पुरूषों में थे) .. ?
दरअसल ऐसी जानें कितनी बातें हमने जनश्रुति के आधार पर माना है और समय के साथ इनमें न जाने कितने बदलाव हुए। फिर हम आज क्यों इन्हें अक्षर सत्य मानना चाहते हैं?

ऐसे हजारों अनुत्तरित प्रश्न हैं .. इनकी चर्चा करना इस देश में मधुमक्खी के छत्ते पर ढेला मारने के समान है क्योंकि जहां इन्हें छेड़िये, बस लोग तैयार हो जाते हैं शब्दों के चाकू-तलवार-भाला-त्रिशूल लेकर।
अद्भुत सवाल खड़े किए जाते हैं -- मसलन क्या आप ईसा या पैगंबर मुहम्मद के बारे में भी यही या ऐसी बात कर सकते हैं .. वगैरह-वगैरह। अब इस बात का कैसे मैं जबाव दूं .. मैं अगर ये कहूं कि इस देश की बहुसंख्यक आबादी में मैं पैदा हुआ हूं, लिहाजा उसके इतिहास पुरूषों, उसकी संसकृति को ज्यादा आसानी से मैं समझ सकता हूं बनिस्बत दूसरे धर्मों या संस्कृतियों के। लेकिन लोग उम्मीद करते हैं कि सतही जानकारी के आधार पर टिप्पणी की जाय और हम में से अधिकांश ऐसा ही करते हैं। हम वैसे लोग हैं जो दूसरे धर्म के लोगों को पड़ोसी बनाने को तो तैयार नहीं होते, लेकिन उनके जीवन और संस्कृति पर अपनी सतही जानकारी के जरिए एक्सपर्ट कमेंट करने को तैयार रहते हैं।