शनिवार, 16 जून 2007

शहरोज़ की एक कविता

मुझे नहीं मालूम कि शहरोज़ कौन हैं, लेकिन कविता अच्छी लिखते हैं ( हालांकि उन्हें मेरे सर्टिफिकेट की जरुरत नहीं है) । ये कविता बीबीसी हिन्दी के साइट से उठायी है... अपनी-सी लगती है। कम शब्दों में इतने अच्छे से उस बात को कह गए हैं वो, जो शायद हमारी पीढ़ी की सबसे बड़ी इच्छा रही औऱ अब सबसे बड़ी पीड़ा है।


दिल्ली आकर

गाँव में थे
क़स्बे से आए व्यक्ति को
घूर-घूर कर देखते।

क़स्बे में थे
शहर से आए उस रिक्शे के पीछे-पीछे भागते
जिस पर सिनेमा का पोस्टर चिपका होता।

शहर में आए
महानगर का सपना देखते।

दिल्ली आकर
गाँव जाने का ख़ूब जी करता है।

- शहरोज़
ई-11, सादतपुर,
दिल्ली-110094

1 टिप्पणी:

shahroz ने कहा…

bhai aapka aabhar! achanak aaj kya sujhi ki google par apna nam hindi me type kar enter dabaya..is tarah yahan tak pahuncha.....kabhi nahin socha tha ki yeh kavita logon ko pasand aayegi.

kin lafzon mein shukriya ada karun.

shahroz, sherghati magadh se chalkar chattisgarh pahuncha.wahan se dashak bhar bad filwaqt jharkhand ki rajdhani mein ek hindi dainik ki chakri.