शनिवार, 16 जून 2007

हँसती रहने देना

बहुत सीधे-सपाट शब्दों में लिखी गयी ये कविता है, जो अज्ञेय की खासियत शायद नहीं है। अगर मैं गलत हूं तो हिन्दी वाले कृपया मुझे माफ करें। लेकिन पत्नी को इतना अच्छा संबोधन इतने कम शब्दों में .... एक बार तो पढ़ना लाजिमी है


जब आवे दिन
तब देह बुझे या टूटे
इन आँखों को हँसती रहने देना!

हाथों ने बहुत अनर्थ किये
पग ठौर-कुठौर चले
मन के
आगे भी खोटे लक्ष्य रहे
वाणी ने (जाने अनजाने) सौ झूठ कहे

पर आँखों ने
हार, दुःख, अवसान, मृत्यु का
अँधकार भी देखा तो
सच-सच देखा

इस पार
उन्हें जब आवे दिन
ले जावे
पर उस पार
उन्हें
फिर भी आलोक कथा
सच्ची कहने देना
अपलक
हँसती रहने देना
जब आवे दिन!

- अज्ञेय

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