शनिवार, 16 जून 2007

ज्ञानेंद्रपति की तीन कविताएँ

ज्ञानेंद्रपति की ये कविताएं बीबीसी हिन्दी के वेबसाइट पर पढ़ी थी। दिल में उतर गयी, उतरने लायक हैं भी। कम शब्दों में अपनी बात कहना एक बहुत बड़ी कला है और ये कविता इसका एक बढ़िया उदाहरण है। बहरहाल ज्ञानेंद्रपति से अपना कोई परिचय नहीं है, कवि और पाठक के रिश्ते के अलावा। बिना उनकी इजाजत के ये कविताएं यहां पोस्ट कर रहा हूं। क्षमा याचित है लेकिन मेरे इस विश्वास से शायद वो भी सहमत होंगे कि अच्छी चीजें लोगों तक पहुंचनी चाहिए। हालांकि इसका आर्थिक पक्ष ये है कि मुफ्त में ही क्यों ... पर ये एक अलग बहस है, जिस पर बात फिर कभी


[ 1 ]

क्यों न क्यों न कुछ निराला लिखें
इक नई देवमाला लिखें
अंधेरे का राज चौतरफ़
एक तीली उजाला लिखें
सच का मुँह चूम कर
झूठ का मुँह काला लिखें
कला भूल, कविता कराला लिखें
न आला लिखें, निराला लिखें
अमरित की जगह विष-प्याला लिखें
इक नई देवमाला लिखें
खल पोतें दुन्या पर एक ही रंग
हम बैनीआहपीनाला लिखें

--# दुन्या - दुनिया
#बैनीआहपीनाला - इंद्रधनुष के सात रंग

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हिंदी के लेखक के घर

न हो नगदी कुछ ख़ास
न हो बैंक बैलेंस भरोसेमंद
हिंदी के लेखक के घर, लेकिन
शाल-दुशालों का
जमा हो ही जाता है ज़ख़ीरा
सूखा-सूखी सम्मानित होने के अवसर आते ही रहते हैं
(और कुछ नहीं तो हिंदी-दिवस के सालाना मौके पर ही)
पुष्प-गुच्छ को आगे किए आते ही रहते हैं दुशाले
महत्त्व-कातर महामहिम अंगुलियों से उढ़ाए जाते सश्रद्ध
धीरे-धीरे कपड़ों की अलमारी में उठ आती है एक टेकरी दुशालों की
हिंदी के लेखक के घर
शिशिर की जड़ाती रात में
जब लोगों को कनटोप पहनाती घूमती है शीतलहर
शहर की सड़कों पर
शून्य के आसपास गिर चुका होता है तापमान,
मानवीयता के साथ मौसम का भी
हाशिए की किकुड़ियाई अधनंगी ज़िंदगी के सामने से
निकलता हुआ लौटता है लेखक
सही-साबुत. और कंधों पर से नर्म-गर्म दुशाले को उतार,
एहतियात से चपत
दुशालों की उस टेकरी पर लिटाते हुए
ख़ुद को ही कहता है
मन-ही-मन
हिंदी का लेखक
कि वह अधपागल ‘निराला’ नहीं है बीते ज़माने का
और उसकी ताईद में बज उठती है
सेल-फ़ोन की घंटी

उसकी छाती पर
ग़रूर और ग्लानि के मिले-जुले
अजीबोग़रीब
एक लम्हे की दलदल से
उसे उबारती हुई

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एक टूटता हुआ घर


एक टूटते हुए घर की चीख़ें
दूर-दूर तक सुनी जाती हैं
कान दिए लोग सुनते हैं.
चेहरे पर कोफ़्त लपेटे

नींद की गोलियाँ निगलने पर भी
वह टूटता हुआ घर
सारी-सारी रात जगता है
और बहुत मद्धिम आवाज़ में कराहता है
तब, नींद के नाम पर एक बधिरता फैली होती है ज़माने पर
बस वह कराह बस्ती के तमाम अधबने मकानों में
जज़्ब होती रहती है चुपचाप
सुबह के पोचारे से पहले तक

****** ज्ञानेंद्रपति
बी-3/12, अन्नपूर्णा नगर
विद्यापीठ मार्ग
वाराणसी-221002
फोन-0542-2221039

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