किसकी होगी अगली सरकार उर्फ आईए चुनाव-चुनाव खेलते हैं..
शायद इस सवाल का जबाव हम सब (एक अरब से ज्यादा भारतीय) जानना चाहते हैं .. कौन बनाएगा सरकार .. किसके हाथ आएगी दिल्ली की गद्दी ? इस का उत्तर जानने की जल्दी हमारे नेताओं के अलावा शायद हमारे मीडिया (प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों को) है। काश ! कि कोई अलादीन का चिराग होता, हम रगड़ते .. एक जिन्न निकलता .. हम पूछते और वो कहता अभी लो मेरे आका .. फिर हमारे सामने होते 2009 के आम चुनावों के नतीजे और सरकार के मुखिया का नाम ।
तो इस सवाल का जबाव जानने की कोशिश सभी कर रहे हैं और जाहिर तौर पर मैं भी उनसे अलग नहीं हूं। अपनी राजनीतिक समझ के अनुसार मैंने भी चुनावी नतीजों का एक अनुमानित परिदृश्य तय किया है .. चाहे तो इसे आप मेरी भविष्यवाणियां भी कह सकते हैं।
खैर पहले मेरे अनुमान और फिर अपना विश्लेषण आपके सामने रखूंगा :
चुनावी नतीजे - 2009
राजनीतिक दल | अनुमानित सीटें |
130-135 | |
120-130 | |
40-44 | |
28-31 | |
20-22 | |
16-18 | |
16-18 | |
16-17 | |
14-15 | |
13-14 | |
11-12 | |
08-09 | |
06-08 | |
05-06 | |
05-06 | |
06-09 | |
05 | |
04-05 | |
04-05 | |
03-04 | |
03-04 | |
03-04 | |
03-04 | |
05-07 | |
02-03 | |
03 | |
03 | |
03 | |
03-04 | |
01 |
ये एक विस्तृत विश्लेषण के आधार पर है। संक्षेप में ये कि इनका आधार राज्यवार है और मुझे लगता है कि राज्यों के अपने मुद्दे इस बार के चुनावों में भी सबसे बड़ी भूमिका निभाएंगे। मतलब ये कि जल-जोरू-जमीन या बिजली-सड़क-पानी .. जैसे भी आप समझना चाहें, समझ लें। आतंकवाद .. मंदी जैसे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों का असर तो होगा लेकिन बहुत-थोड़ा। मतलब ये इन्द्रधनुषी नतीजे बहुत मजेदार गुल खिला सकते हैं।
भाजपा या कांग्रेस में से किसी को भी 135 से ज्यादा सीटें नहीं मिलने वाली हैं और इसका मतलब ये कि 16 मई से अगले पंद्रह दिनों तक कई तरह के राजनीतिक परिवर्तन होंगे। एक-दूसरे को गाली देने वाली पार्टियां गलबहियां डाले घूमेंगी और गलबहियां डाले घूम रही पार्टियां अखाड़े में एक-दूसरे के खिलाफ ताल ठोकतीं नजर आ सकती हैं।
मतलब ये कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार या पीएम इन वेटिंग (ये अच्छा व्यंग्य भाजपा ने अपने सर्वकालिक महान नेता के साथ किया है) लालकृष्ण आडवाणी का सपना सपना ही बना रह सकता है। प्रधानमंत्री की कुर्सी के साथ आडवाणीजी की धूप-छांह बरकरार ही रहने वाली है। लालूजी के शब्दों में कहें तो ‘आडवाणीजी राज कैसे करिहें, जब उनके हाथ में राजयोग ही नहीं है’ ।
मेरा तो ये भी मानना है कि इन इन्द्रधनुषी नतीजों का अनुमान कांग्रेस ने भी लगा लिया है। और शायद इसी वजह से युवराज राहुल गांधी की ताजपोशी का ऐलान इस बार के चुनावों में नहीं किया गया। मतलब ये भी कि बिहार और उत्तर प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला और इन-इन राज्यों में खोई जमीन फिर पाने के लिए संघर्ष का रास्ता इसीलिए अख्तियार किया गया।
अब चाहे इसे कांग्रेस पार्टी ने भांपा हो या फिर उसके युवराज ने, लेकिन मुझे लगता है कि इस बार के चुनावों से ही कांग्रेस ने अगले चुनावों (2011 या उसके बाद कभी भी) की तैयारी भी शुरू कर दी है। इस बार के अनुमानित खिचड़ी नतीजों के चलते ऐसा लगता है कि कांग्रेस के रणनीतिज्ञ ये मानते हैं कि इस बार की सरकार 2 साल से ज्यादा नहीं चलने वाली। ऐसे में अगर युवराज की ताजपोशी करनी है तो जमीन अभी से तैयार करनी होगी।
तो इस बार के अनुमानित खिचड़ी बहुमत के चलते 1996 की देवेगौड़ा सरकार जैसा प्रयोग दुहराया जाने वाला है। इस बार भी कोई ऐसा नाम सामने आ सकता है जिसकी हम उम्मीद नहीं कर रहे। और ये नाम किसी का भी हो सकता है .. शरद पवार, मायावती, नवीन पटनायक, नीतिश कुमार या कोई और ..। नाम का अनुमान लगाना तो लगभग असंभव है और शायद भारतीय राजनीति की यही खूबी है। 16 मई के बाद क्या होगा, इसके लिए अभी से खून क्यों जलाएं .. वो भी तब जब एक भी वोट नहीं डाले गए हों।
हां, कुछ अनुमान जरूर लगाए जा सकते हैं। मसलन ऐसी खिचड़ी नतीजों के बाद, भाजपा विरोध के नाम पर सभी गैर कांग्रेस पार्टियां एक जुट हो सकती हैं या भाजपा को समर्थन देने से इनकार कर सकती हैं। ऐसे में, शायद भाजपा का सरकार बनाने का सपना अधूरा ही रह जाय। या फिर भाजपा छोटी पार्टियों की सरकार को बाहर से समर्थन दे। या फिर 1996 में बनी बसपा-भाजपा की उत्तर प्रदेश का प्रयोग दुहराया जाय .. मतलब ये कि एक साल के लिए प्रधानमंत्री तुम्हारा हो, फिर एक साल के लिए प्रधानमंत्री हमारा हो टाइप।
हालांकि मुझे सबसे ज्यादा संभावना इस बात की लगती है कि जो सरकार बनेगी उसमें कांग्रेस और वामपंथी दल, दोनों बड़ी भूमिका निभाएंगे। भूमिका ही नहीं निभाएंगे बल्कि दोनों साथ भी आएंगे और सरकार में अपने लिए बड़े रोल के लिए सौदेबाजी भी करेंगे। मतलब ये कि भानुमति का कुनबा यानी तीसरा मोर्चा (कांग्रेस, भाजपा के अलावा बाकी के दल) कांग्रेस से सौदेबाजी करेगा। ऐसा हो सकता है कि तीसरा मोर्चा कांग्रेस से कहे कि यूपीए सरकार में हमने आपका प्रधानमंत्री देख लिया, अब हमारी बारी है। कांग्रेस से ये कहा जा सकता है कि हमारे प्रधानमंत्री को आप समर्थन दें और हमारी सरकार में आप भी शामिल हों जाय .. या चाहें तो बाहर से ही समर्थन दें पर प्रधानमंत्री हमारा ही होगा। सबसे ज्यादा संभावना इस बात की है कि कांग्रेस सरकार में शामिल होगी और कुछ बड़े मंत्रालयों के लिए सौदेबाजी करेगी (गठबंधन के सबसे बड़े दल के नाते)।
इतना ही नहीं, वामपंथी दल भी 1996 की ऐतिहासिक भूल नहीं दुहराएंगे और सरकार में शामिल हो जाएंगे। जाहिर तौर पर इनमें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लोग भी होंगे। ऐसा मुमकिन होगा .. माकपा महासचिव प्रकाश करात साहब के धुरजोर विरोध के बावजूद ऐसा होगा। मेरा अनुमान ये है कि केरल में वामपंथियों को करारी शिकस्त मिलने वाली है और उनकी ज्यादातर सीटें पश्चिम बंगाल से ही आने वाली हैं। ऐसे में माकपा की बंगाल लॉबी करात के विरोध पर भारी पड़ सकती है। ये भी हो सकता है कि बुद्धदेव भट्टाचार्य को प्रधानमंत्री बनाने के नाम पर आम सहमति बन जाय और दो अलग-अलग ध्रुवों पर खड़े कांग्रेस और वामदल साथ-साथ आ जाएं।
मुझे तो ये भी लगता है कि प्रधानमंत्री बनने की हर संभव कोशिशों के बावजूद मायावती की दूरी इस गद्दी से अभी बरकरार रहेगी। 40-44 सीटों के बावजूद ऐसा हो सकता है क्योंकि मायावती ब्रांड की राजनीति को इतनी जल्दी अगर प्रधानमंत्रित्व दे दिया गया तो कई दलों की दुकानदारी बंद हो सकती है या ज्यादा सभ्य शब्दों में कहें तो उनके अस्तित्व पर संकट आ सकता है।
शरद पवार जैसे नेताओं के लिए तो ये चुनाव जीवन-मरण की तरह हैं और अभी नहीं तो कभी नहीं वाली बात है। उम्र उनके खिलाफ है और शायद ये उनके लिए आखिरी मौका है। तो इस देश की सबसे बड़ी गद्दी पाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं (या फिर हार मान लें और जितना मिल रहा है, उतने पर ही संतोष कर लें)। हालांकि इनके नाम पर आमसहमति बनने के आसार कम ही दिखते हैं।
लालूजी-पासवानजी जैसे नेता अपनी-अपनी करते रहेंगे और केंद्र में बनने वाली सरकार में मंत्री बने रहेंगे। हां, उनकी सौदेबाजी की ताकत यूपीए सरकार के दिनों वाली नहीं रहेगी।
तो मुलायम सिंह यादव कहां होंगे? ये लाख टके का सवाल है क्योंकि नई सरकार में मायावती की बड़ी भूमिका हो सकती है। ऐसे में मुलायम का रोल केंद्र में बनने वाली सरकार में क्या होगा, ये कहना बहुत मुश्किल है। लेकिन ये भी बात है कि संयुक्त मोर्चा सरकार के बाद से मुलायम केंद्र की सरकार से बाहर हैं .. और इस बार तो उत्तर प्रदेश से भी बाहर हैं। ऐसे में केंद्र में एक सार्थक भूमिका की तलाश मुलायम को है और इसीलिए उनकी भूमिका का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है।
नीतिश जैसे नेता तो शायद अभी अपनी बारी आने का इंतजार करेंगे और इतनी जल्दी अपने पत्ते खोलने से परहेज करेंगे। मुझे काफी समय से ये लगता रहा है कि नीतिश बिना धीरज खोये लंबे संघर्ष की तैयारी कर रहे होते हैं, वो भी बिना किसी शोर-गुल के। तो प्रधानमंत्रित्व के लिए अपना दावा भी वो समय आने पर ही करेंगे .. शायद 2011 या उसके बाद होने वाले चुनावों के दौरान।
मुझे तो नवीन पटनायक भी लंबी रेस के घोड़े लगते हैं। भाजपा का दामन छोड़ने के बावजूद भी वो अपने पत्ते इतनी जल्दी नहीं खोलेंगे और उचित समय का इंतजार करेंगे। तब तक के लिए केंद्र में कुछ मंत्रालयों की गद्दी से उन्हें ऐतराज नहीं दिखता।
लेकिन जैसा मैं लगातार कह रहा हूं कि ये सब राजनीतिक गणित है और इनका अनुमान लगाना, बेवजह अपना खून जलाने जैसा है। तो हम सबों को 16 मई और उसके बाद पंद्रह दिनों तक चलने वाले तमाशे का इंतजार करना चाहिए। उस समय के राजनीतिक दोस्त-दुश्मन-समीकरण बड़े चौंकाने वाले हो सकते हैं।
एक आखिरी बात और .. मैं ना तो राजनीतिज्ञ हूं, ना ही कोई चुनाव विश्लेषक और मेरे अनुमान सौ फीसदी गलत भी हो सकते हैं। शायद मुझे इस बात से ज्यादा खुशी होगी, अगर कोई ऐसी सरकार बने जो पांच साल चले (मतलब ये कि उसके केंद्र में भाजपा या कांग्रेस हो)। मंदी के इस दौर में देश में राजनीतिक स्थिरता की जरूरत है, ताकि प्रगति के पथ पर उठे हमारे कदम आगे बढ़ते रहें।
लेकिन आम भारतीय जनमानस को हल्के में हमें नहीं लेना चाहिए। जो भी दल ऐसा करता है, करेगा .. उसका 'भारत अस्त' हो जाएगा। आखिरकार इसी जनता ने इंदिरा गांधी जैसी सर्वशक्तिमान और शायद आजाद भारत की अब तक की सबसे ताकतवर नेता को भी धूल चटा दी थी। इसलिए जय उसकी होगी/होनी चाहिए जो जनता के बीच जाएगा .. जनता के लिए काम करता दिखेगा .. जल-जोरू-जमीन के लिए संघर्ष करेगा, चाहे उसका राजनीतिक आधार या पार्टी जो भी हो। तो 16 मई तक इंतजार कीजिए, एक सरप्राइज पैकेज आने वाला है।