बुधवार, 3 दिसंबर 2008

मुंबई पर आतंकवादी हमला

ये मेरी प्रतिक्रिया का पहला हिस्सा है

मेरे कुछ मित्रों की प्रतिक्रिया -


मित्र 1 (गुस्से से भरा हुआ है बिल्कुल एंग्री यंग मैन की तरह.. कि प्रधानमंत्री या कोई
और नेता मिले तो कच्चा चबा जाए, टाइप से। उसके मुताबिक प्रधानमंत्री राष्ट्र को इस संकट
की घड़ी में कैसे संबोधित करेंगे) --

प्रधानमंत्री (दूरदर्शन पर बोलते हुए): प्यारे देशवासियों, इस संकट की घड़ी में आप अपनी, अपने बीवी-बच्चों-परिवारजनों और सामान की सुरक्षा स्वयं कर लें (जैसे कि रेलवे की एनाउंसर कहती है - यात्रीगण, कृप्या अपनी और अपने सामान की सुरक्षा खुद करें)। हमारे जैसे VVIPs के लिए NSG और SPG है।


मित्र 2 : इस हमले से 3 लोग बड़े खुश हुए होंगे - एक तो वे जिन्होंने ये हमला करवाया, दूसरे भाजपा वाले कि आतंक के सहारे 6 राज्यों में हो रहे चुनावों में उनकी नैया पार लग जाएगी और तीसरे टीवी मीडिया वाले कि चलो अब अगले कई दिनों का मसाला मिला॥ न्यूज़ का न्यूज़ और सनसनी अलग से। इसे भावना की चाशनी में मिला कर जब तक चाहो परोसते रहो।


मित्र 3 (27 नवंबर की रात को टीवी देखते हुए) - मुंबई का ELITE CLASS इन हमलों से क्यों दुखी है/क्यों गु्स्से में है? ॥ दरअसल जब-जब शहर में बाढ़ आई तो इन्होंने 5-स्टार होटलों का रूख किया ; जब-जब बिजली गुल हुई तो ये 5-स्टार होटलों की ओर भागे ; जब शहर में दंगे हुए तो इन्हें 5-स्टार होटलों ने बचाया। अबकी तो 5-स्टार होटलों पर ही हमला हो गया तो इन्हें कौन बचाएगा। अब तो इन्हें विदेश में ही बसना पड़ेगा, पर वहां इन्हें पूछेगा कौन?


मैं अपने तीसरे मित्र की बात से पूरी तरह इत्तेफाक नहीं रखता हूं फिर भी मुझे लगता है कि इन तीनों प्रतिक्रियाओं में दम है, गुस्सा है, क्षोभ है इस देश की जनता का। क्या ये पहली बार नहीं है कि आतंकी हमले हो गए और कहीं भी हिंदू-मुस्लिम दंगों की खबर नहीं है या उसकी बात नहीं हो रही है?

इस बार के हमले अलग हैं.. ये अलग हैं उन तमाम बम विस्फोटों से जो अब तक होते आए हैं। इसके सबसे निकट शायद भारतीय संसद पर हमला या 11 सितंबर को वर्ल्ड ट्रेड टावर को उड़ाने की घटनाएं आती हैं। बात ये नहीं है कि 200 से ज्यादा लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी॥बात ये है कि इस बार का हमला आतंक के सबसे विकराल रूप को लेकर आया है.. इस बार के सारे आतंकवादी बिल्कुल मिलिट्री कमांडोज़ की तरह ट्रेंड थे। अपने आत्मघाती अभियान में अधिकतम क्षति का लक्ष्य लेकर तो चले ही थे लेकिन साथ-साथ उन्हें ये भी पता था कि भारतीय कंमाडोज़ के साथ होने वाली लड़ाई में SURVIVE कैसे करना है। कैसे इसे लंबा खींचना है.. मीडिया का कैसे उपयोग करना है।

ये मॉडल कुछ सालों पहले तक बेरूत में होने वाले आतंकी हमलों की याद दिलाता है, जहां इसी तरह रात को सरेआम लोगों पर गोलियां बरसने लगती थीं और किसी बहुत ही महत्वपूर्ण इमारत को पहले बंधक और बाद में उड़ाने की कोशिश की जाती थी।


संकेत साफ हैं कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद संगठित हो रहा है/हो चुका है और बैनर तो एक ही है-

अल-कायदा का। अब उसके तले हम और आप चाहे जितने नाम देते रहें, लश्कर-ए-तय्यबा कहें या हरकत-उल-जिहाद(हूजी)। उद्देश्य सबके एक ही हैं - अंधेरा कायम रहे, आतंकवाद जारी रहे


बहरहाल इस घटना पर मैं कैसे रिएक्ट करूं ये पता नहीं है। मुझे खुद नहीं मालूम कि क्या भरा
पड़ा है मेरे भीतर - गुस्सा, क्षोभ, निराशा, नाराजगी, राजनीतिक तंत्र को फांसी पर लटका दो टाइप के जज्बात। पता नहीं है और अभिव्यक्त भी नहीं कर पा रहा हूं।


जब 26 नवंबर को आतंकवादी हमले की खबर आई, मैं दफ्तर से घर निकलने की तैयारी में था। ज़ी न्यूज़ और दूसरे चैनल इसे दिखाने लगे लेकिन किसी को पता नहीं था कि क्या हुआ/क्या हो रहा है? गैंगवार, बम विस्फोट से लेकर हर तरह की संभावनाएं न्यूज़ चैनल्स तलाश रहे थे। घर पहुंच कर पता चला कि ये आतंकवादी हमला है। थोड़े से अंतराल में 10 जगहों पर हमले हुए।


तब से तीन दिन टीवी पर ये तमाशा देखा.. तमाशा इसलिए क्योंकि हमारे टीवी चैनल्स के लिए लाइव टीवी या रियल्टी टीवी का ये बढिया मौका था और हर चैनल ने इसे जम कर भुनाया। भारत पर हुए हमले को हमारे चैनलों ने एक तमाशे में बदलने की भरपूर कोशिशें की .. जिस रिपोर्टर के मन में जो भी आता, वही बात वो दुहराता और सनसनी की चाशनी में डुबोने की कोशिश करता।


जब तक चैनल्स को ये बात सूझती कि उनका उपयोग किया जा रहा है, तब तक तो देर हो चुकी थी। आतंकियों के सरगना टीवी देख कर अपने गु्र्गों को उनके खिलाफ ली जा रही पोजीशन्स बताते रहे और शायद इसीलिए तीन घंटे की लड़ाई तीन दिन तक चली।

बात सनसनीखेज थी भी। हमने/आजाद भारत ने कभी नहीं देखा था ऐसा हमला। ये केवल मुंबई पर हमला नहीं था.. ये भारत पर हमला था, भारत की संप्रभुता पर हमला था।

इस बात को बीते हुए भी 3 दिन हो चुके हैं, चौथा दिन होने वाला है। लेकिन अभी तक क्षुब्ध हूं। किस से, किस पर ? पता नहीं .. शायद खुद पर/सरकार पर/राजनीतिक तंत्र पर .. पता नहीं है कि किस पर भरोसा किया जाय। क्षुब्धता के इसी दौर में सोमवार को दफ्तर जाने की इच्छा नहीं हुई .. छुट्टी ले ली। मन में एक भय है, आक्रोश है..

जब हमले हुए थे तो मेरी पहली प्रतिक्रिया थी कि इस देश के राजनीतिज्ञों ने हमारे खुफिया तंत्र को निकम्मा बना दिया है/राजनीति की चाशनी में डुबा दिया है। ऐसे में, किस से क्या उम्मीद की जाय? जिसकी जब इच्छा होगी, वो उस वक्त आएगा और हम पर हमला कर के चला जाएगा।


मन में भारी ऊहापोह है। जब अमिताभ बच्चन लिखते हैं कि उन्हें भरा हुआ .32 लाइसेंसी रिवॉल्वर सिरहाने रख कर सोने के बाद भी ढंग की नींद नहीं आई तो इसमें सच्चाई दिखती है। असुरक्षा की भावना इतनी सघन है।


लेकिन इसका जबाव क्या है?

अभी तो नहीं पता..

सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

ब्लॉग की दुनिया में पुनरागमन


लगभग छह महीने पहले लिखा था मैंने आखिरी बार.. चिट्ठों की दुनिया में ही नहीं, अपनी लेखनी की दुनिया में भी। ब्लॉग की दुनिया में एक-दूसरे पर कीचड़ उछाले जाने का एक नया दौर चल रहा था और मन क्षुब्ध था कि अभिव्यक्ति का ये नया माध्यम भी उसी बीमारी का शिकार हो गया जो हमारे जीवन के हर आयाम में है। इसके बाद मैंने निर्णय किया कि बस अब बहुत हुआ, ब्लॉग को टा-टा करने का समय शायद आ गया।

बात शायद यहीं खत्म हो जानी चाहिए थी... लेकिन ऐसा नहीं हुआ। छह महीने होने जा रहे हैं इन बातों को। ब्लॉग से मैंने नाता क्या तोड़ा, लिखना भी बंद हो गया। पढ़ना तो धीरे-धीरे कम होता ही जा रहा था (अखबारों और कुछ ऑल टाइम फेवरिट किताबों के अलावा इन दिनों कुछ भी नहीं पढ़ा).. अब लेखनी भी बंद हो गई।

वजहों की तलाश करें तो कमी नहीं होगी। वो कहते हैं न कि अपने-आप को जस्टीफाइ करने के लिए आदमी तर्क ढूंढ ही लेता है। ..तो तर्कों की कमी नहीं है। मसलन ये छह महीने दफ्तरी कामों के लिहाज से अब तक के सबसे व्यस्त दिनों में रहे .. ये भी कि कॅरियर को लेकर ऊहापोह भरे दिन थे और कुछ नहीं समझ में आता था कि आगे की रूप-रेखा क्या होगी (ये बात और है कि रूप-रेखा का अभी भी पता नहीं है)... ।

शायद अपने-आप से भी मुंह चुराने की भी कोशिश कर रहा था। क्यों? ..क्योंकि अपनी अकर्मण्यता पर गुस्सा बहुत आता था। लिखने को बहुत सारे विषय दिखते थे .. मसलन मेरा पसंदीदा पेट्रोलियम सेक्टर से जुड़े विषय, महंगाई और इसके आयाम, अपने प्रदेश में आई महाप्रलय, बम विस्फोट....... यानि लिखने के लिए विषय की कमी नहीं है.. पहले भी नहीं थी और अभी भी नहीं है। लेकिन जब लिखने बैठता तो 8-10 लाइनों के बाद उंगलियां दर्द करने लगतीं, सिर भारी होने लगता और फिर वो ही आलस सिर चढ़ कर बोलने लगता। छुट्टी के दिन तो बस और बस बिस्तर पर लेटे-लेटे टीवी देखने में ही बीते।

तो उंगलियां दर्द करतीं और फिर मैं उंगलियां चटकाता और लेखनी की हो जाती छुट्टी.. उन दिनों एक सवाल बार-बार मन में कौंधता रहता कि क्या हम सब कलम के बजाय टाइपराइटर के (या यूं कहें कि कंप्यूटर के की-बोर्ड) के सिपाही हो कर रह गए हैं। कलम उठाने पर मेरी (या हमारी?) उंगलियां क्यों दर्द करती हैं ..जबकि हम तो पत्रकार हैं। या कहीं ऐसा तो नहीं कि टीवी वाली मुफ्तखोरी की आदत लग गई कि स्साला.. नोट्स लेने की जरूरत क्या है ..मोटी-मोटी बातें लिख डालो और कैमरे के पीछे खड़े होकर महत्वपूर्ण बाइट्स की काउंटर नोट करते रहो और ऑफिस में स्टोरी की एडिटिंग के दौरान उसको लगा दो। किस्सा खत्म। नोट्स लेने की जरूरत क्या है, यहां तो इतने सोर्स हैं खबरों के। खैर, तो लगता है कि विषयांतर हो गया। हां, तो मैं कह रहा था कि उन दिनों अक्सर मैं अपने-आप से सवाल पूछता कि क्या हम सब कलम के बजाय टाइपराइटर या की-बोर्ड के सिपाही हो गए हैं?

इस सवाल का जबाव तो मेरे पास नहीं है ..लेकिन मन बार-बार यही कहता है कि हम-सब की-बोर्ड के ही सिपाही हो कर रह गए हैं। लेकिन इस पर विस्तृत बात फिर कभी। अभी तो बात ब्लॉग की दुनिया में वापसी की ही।

पिता अक्सर पूछते रहते हैं फोन पर कि इन दिनों क्या लिखा-पढ़ा? फ्रेंड-फिलॉस्फर-गाइड की भूमिका निभाने वाले पिता से झूठ बोलने की हिम्मत नहीं होती है और इसलिए उनके सवाल को हां-हूं करके टालने की ही कोशिश करता रहा हूं। लेकिन अपने-आप से इस सवाल को कैसे दूर किया जाय।

इसका शायद सबसे बेहतर उत्तर यही है कि वापस अपनी उसी दुनिया में लौटा जाय जिसे मैं सबसे ज्यादा जानता हूं। अगर अनजाने का संधान ही करना हो तो जाने को त्याग कर नहीं, उसके साथ बरकरार रह कर। इसलिए फिर लौट रहा हूं अपनी उसी दुनिया में। लिखने-पढ़ने की दुनिया.. जिसे मैं सबसे ज्यादा जानता हूं।

और ब्लॉग तो बस एक माध्यम है .. अभिव्यक्ति का ..जहां खुद को छपवाने के लिए आपको प्रकाशकों के चक्कर नहीं लगाने पड़ते। ये बात और है कि गिने-चुने ही लोग आपको प्रतिक्रिया देते हैं और इनकी प्रतिक्रियाएं इस पूरे तंत्र पर दिखता है। अग्रज सारथी शास्त्रीजी का घोषित लक्ष्य है कि हिंदी में 50 हजार चिट्ठाकार हों और वो भी एक नियत समय के भीतर (ब्लॉग की दुनिया से दूर रहने के चलते ये याद नहीं है कि संख्या 50 हजार है या 10 हजार और समयसीमा क्या है)। इस मंशा पर मुझे कोई शक नहीं है लेकिन भीड़ जुटाने से मुझे कोई फायदा नहीं नजर आता अगर उसका कोई सृजन में योगदान न हो।

लगता है फिर विषय से भटक गया मैं। पिताजी की बात याद आती है जो शायद उपेन्द्रनाथ अश्क को उद्धृत करके कहते थे कि उनके साहित्यकार बनने में बड़ी भूमिका रही उनके अपने विचारों को नोट करने के आदत की.. जो भी बात दिमाग में आए उसे कहीं लिख डालो, भले ही उसका कोई उपयोग नहीं हो। आज सोचने में पिताजी की ये बात बड़ी अच्छी लगती है लेकिन नोट्स लेने की आदत शायद पढ़ाई के साथ ही खत्म हो गई।

खैर इन सब पर बातचीत फिर कभी। अभी तो अपनी दुनिया में वापस आने का जश्न मनाने का समय है। इसलिए ये बात यहीं तक। प्रयास यही रहेगा कि अब नियमित रूप से कुछ-न-कुछ बाहर आता रहे और तकनीक के इस रूप का ज्यादा-से-ज्यादा लाभ उठाया जा सके।

एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।
-दुष्यन्त कुमार

शनिवार, 12 अप्रैल 2008

ब्लॉग स्पेस की गंदगी और जातिवाद

अजब हालत है इन दिनों हिंदी ब्लॉग स्पेस की। कुछेक ब्लॉग्स पर एनॉनिमिटी की आड़ लेकर व्यक्तिगत चरित्रहनन की हर संभव कोशिश हो रही है। मतैक्य नहीं हो.. ये तो ठीक है लेकिन विचारों पर आपत्ति के बजाय व्यक्ति पर हमला किया जाय.. इससे मैं तो सहमत नहीं हूं। क्या हम इतने असहिष्णु हो गए हैं या होते जा रहे हैं कि एक-दूसरे की बात भी न सुनें...विचार का सम्मान मत करिए लेकिन लोगों को अपने विचार रखने का मौका तो दीजिए। दिक्कत यही है कि इसी तर्क की आड़ लेकर विचारों के बहाने एक-दूसरे पर कीचड़ उछाला जा रहा है।

एनॉनिमिटी से मुझे आपत्ति नहीं है लेकिन आपत्ति चरित्रहनन के प्रयासों पर है। अपने को गुमनाम रखने का हर आदमी को हक है, ये भी हक है कि लोकतंत्र में बिना अपने को प्रकट किए अपनी बात रखे। लेकिन इसे अगर निजी जिंदगी या किसी के चरित्र से जोड़ दिया जाए तो मुझे आपत्ति है। विचारों की असहमति का स्वागत है... आखिर पांचों उंगलियां एक जैसी नहीं होती, लेकिन पांचों अगर आपस में ही लड़ने लगे तो हो गया कल्याण हाथ का। कुछ भी करने के लायक नहीं बचेंगे हम। और फिर इतने पढ़े-लिखे होने का कोई फायदा नहीं है (नहीं पढ़े-लिखे होते तो संचार के इस आधुनिकतम माध्यम यानी ब्लॉग का उपयोग तो नहीं ही कर रहे होते ; इक्के-दुक्के अपवाद हो सकते हैं, सब नहीं) ।

एक असंवेदनशील समाज की ओर हम सब बढ़ रहे हैं, जिसमें अपनापन बिल्कुल भी नहीं है, दूसरे की बात सुनने का धैर्य नहीं है.. केवल, और केवल अपनी बात हम सब सुनना-सुनाना चाहते हैं। अपनी बात और दूसरे की जोरू आजकल शायद हम सबको सबसे प्यारी लगने लगी है। और इससे मैं चिंतित भी हूं, परेशान भी।

मुहल्ले ने एक अच्छी बहस करने की कोशिश की थी भारतीय जाति व्यवस्था पर रवीश के लेख के बहाने। लेकिन बहस का रूख अतिवाद की ओर चला गया। मोहल्ले के विरोधियों ने इस बहाने अविनाश और इस मत के लोगों पर हमले शुरू किए तो मोहल्ले ने अपनी गलियों में बहस को कुछ ऐसे मोड़ दिया मानो इस बहाने वो देश से जाति खत्म करके ही रूकेंगे।

सवर्ण होने के बावजूद जातिवाद का मैं समर्थक नहीं हूं और मानता हूं कि भारत के इतिहास में (अगर इसे 5-10 हजार साल पुराना मानें या दो-ढ़ाई हजार साल पुराना) आदमी द्वारा अपने ही जैसे आदमी के खिलाफ रचा गया अब तक का सबसे बड़ा सबसे बड़ा षड्यंत्र था। दिक्कत ये है कि हम अब तक इससे उबर नहीं पाए हैं।

लेकिन मेरे जैसे कई लोग होंगे जिन्हें फिर भी आशा की किरण दिखती है। समाज सुधार के आंदोलनों के चलते आज ये पिछड़ा वर्ग (जिन्हें ब्राह्मणों ने शूद्र करार दिया और हम दलित कहते हैं) अपने हक की लड़ाई लड़ रहा है। आजादी के पहले 40-42 सालों में हो सकता है कि ये इतना मुखर न रहा हो, लेकिन पिछले 18 सालों में तो क्रांतिकारी बदलाव हुए हैं(अगर हम पहले के सालों को पैमाना मानें तो)। हो सकता है कि जितनी बदलाव की अपेक्षा कुछ लोगों ने की हो, वो बदलाव उस हद तक न हुआ हो... लेकिन क्या कुछ भी नहीं बदला है ?

मीडिया में जाति का जो सर्वे जितेंद्रजी, चमड़ियाजी और योगेंद्रजी ने किया वो अपने आप में अद्भुत है और ऐसे कई सर्वे की हमें जरूरत है। हमें सच में ऐसे सर्वे चाहिए जो बता सके कि फलानी जगह, फलाने सेक्टर में किस जाति के कितने लोग हैं। तभी एक सही तस्वीर सामने आ सकेगी और सवर्णों को वर्चस्व भी घटेगा। लेकिन इसके साथ ही ये भी सच है कि भले एक मुट्ठी ही सही लेकिन क्या इतने भी दलित, इतने भी ओबीसी मंडल कमीशन लागू होने से पहले मीडिया में थे ? मुझे लगता है कि जबाव ‘नहीं’ में होगा। इसी तरह क्या जितने पिछड़े वर्ग के लोग आज सरकारी नौकरी में हैं, क्या 1990 में (प्रतिशत के हिसाब से) इतने लोग थे सरकारी नौकरी में ? एक बार फिर मुझे ‘नहीं’ में ही उत्तर दिखता है। तो वजह हम भी जानते हैं कि सवर्णों (ब्राह्मणों) के वर्चस्व के चलते मंडल कमीशन से पहले इस दिशा में इतनी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया।

दलितों को आरक्षण तो संविधान लागू होने के समय से ही मिल रहा है लेकिन आंकड़े उठा कर देख लीजिए... 1990 तक किसी भी साल उनके लिए आरक्षित सीटें आपको पूरी तरह भरी नहीं मिलेगी। सवर्णों या यूं कहें कि सदियों पहले ब्राह्मणों ने ऐसा मजबूत जाल बुना था जातिवाद का जो हम आज तक पूरी तरह नहीं काट पाए हैं।

लेकिन ये कहना भी गलत होगा कि ये पूरी तरह अक्षुण्ण है। बल्कि थोड़ा-बहुत टूटने के चलते ही आकांक्षाएं औऱ भी बढ़ गयी हैं और विरोध और भी प्रबल होता जा रहा है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। और लोग न भी करें, मैं तो स्वागत करता हूं.. ये भी कोशिश करता हूं कि इस जाल का जितना टुकड़ा तोड़ सकूं वो तोड़ता रहूं। अब लोग चाहे जितना गरियायें। भाई, जब बरगद टूटने लगेगा तो कईयों का आसरा, कईयों की जिंदगी छिन ही जाएगी, कईयों की मठाधीशी तो खतरे में पड़ेगी ही।

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और अंत में

वैसे अविनाशजी का मीडिया प्रेमं मुझे हमेशा से चकित करता रहा है। न जाने क्यों वो हर बात को घुमा-फिरा कर मीडिया पर ही ले आते हैं। ये बात और है कि उनके इतने प्रयासों के बाद (अगर हम इसे प्रयास मानें तो) भी परिदृश्य अब तक वैसे का वैसा ही है। ना तो उनके चैनल में कहीं कुछ बदला है और न ही किसी दूसरे चैनल या अखबार में। हां, हमलोगों ने गलथोथी खूब की है, खूब स्यापा किया है। शायद ये मोहल्ले की ही मेहरबानी है कि हिंदी ब्लॉग स्पेस में इस पर लिखने वाले और इससे जुड़े ब्लॉग्स की भरमार हो गयी है और आम जिंदगी के, समाज के कई मुद्दे पीछे छूट गए हैं।

सोमवार, 17 मार्च 2008

पिता की चिता जलाते हुए

दिनेश कुशवाहजी की ये कविता है जो हंस के अप्रैल 2000 के अंक में पढ़ी थी। कई बार चाहा कि उनसे संपर्क करूं और केवल इसी कविता के लिए उनको सराहूं। लेकिन मैं ऐसा कर नहीं पाया और इसकी वजह सिर्फ मेरा आलसी होना रहा है। आज भी मैं उनको इसी कविता से जानता हूं और बिना उनकी इजाजत के इसे यहां डाल रहा हूं। दरअसल अविनाशजी के दिल्ली-दरभंगा से जाना कि रवीशजी के पिताजी नहीं रहे। उन्हें मेरी श्रद्धांजली, रवीशजी और परिवारजनों के लिए मेरी संवेदनाएं। इसी घटना ने मन के कोल्ड स्टोरेज में सहेजी इस कविता की याद दिला दी। और जब ये कविता याद आयी तो बहुत याद आयी। पुरानी फाइलों में से इसे ढूंढ़ कर आज इसे कई बार मैंने पढ़ा॥ खूब पढ़ा। लगा कि सबके साथ इसे बांटना चाहिए, तो इसलिए इसे यहां डाल रहा हूं ताकि अच्छी कविता की महक सब महसूस कर सकें।


पिता की चिता जलाते हुए

कुछ बातें अक्सर कहते थे पिता..

भादों की किसी विकट काली रात में
जब छप्पन कोटि बरसते हों देव
अपने निकट बहने वाली नदी को
उसकी समग्र भयावहता में देखो
और कल्पना करो कि
यमुना को कैसे पार किया होगा वसुदेव ने
एक नवजात बच्चे के साथ !
तुम्हें लेकर जीवन की वैतरणी को
कुछ इसी तरह पार किया है मैंने

अघाए हुए और रिरिआते आदमी की
हंसी में फर्क करना सीखो
अभागा आदमी का बच्चा
जन्मते ही रोना शुरू करता है
जिंदगानी की कहानी उसी समय शुरू हो जाती है
फटी धोती, टूटी झोपड़ी, डंसी देह और कुचली आत्मा ने
गरीब को एक अदद अधम शरीर बना दिया
पंचतत्व तो आज भी अमीरों की चाकरी में लगे हैं।

इसलिए जनता को शास्त्र नहीं / कविता से शिक्षित करो
साधुता को श्रम से जोड़ो / भिक्षा से मुक्त करो
साधुता वहां बसती है / जहां जूता गांठते हैं रैदास
चादर बुनते हैं कबीर ।

बतरस के तो रसिया थे पिता
कोई नहीं मिलता तो / बैलों से ही बोलते-बतियाते
इधर कुछ दिनों से उसी पिता को
देख कर आश्चर्य होता था मुझे
कि दुनिया में आदमी / कैसे रहता है इतना चुपचाप !

विश्वास नहीं होता कि बप्पा सपना हो गए

उन्हें देख कर लगता था कभी
कि गांव-जवार, खेत-खलिहान
इसलिए जवान हैं कि पिता जवान हैं
कुएं का पानी सूख जाएगा
पर पिता की जवानी नहीं खत्म होगी
लेकिन औचक्क चले गए पिता..

पिता के पास एक पुश्तैनी कोट था
जब जंगल और मैदान जाड़े से कांपने लगते
पिता उसे पहन कर आगी तापते थे
गांव से सटकर बहती सरयू के किनारे
कभी आग के फूल की तरह खिले थे पिता
और आज वहीं आग की नदी में नहा रहे थे ।

सबसे पहले पिता के दोनों पांव
जलते हुए झूल गए / जैसे उतान लेटे हुए पिता ने
टांगें बटोर ली हों और कह रहे हों
अब नहीं चल पाऊंगा तुम्हारे साथ ।

लपटों के बीच लाल अंगार पिता
और अस्त होते सूर्य का रंग / एक जैसा दिख रहा था
बस नहीं दिख रहीं थीं तो उनकी आंखें
जिनके तनिक लाल होते ही
हम भाई-बहनों की कंपकपी छूट जाती थी

पचास पार करते ही पिता की वही आंखें
हर भावुक प्रसंग पर डबडबा जाती थीं,

चिरायंध गंध में सना / चिट-चिट का चरचराता शोर
मन में मचे कोहराम में डूब गया था ।

पिता ने जीवन भर चलाया था मन भर का हथौड़ा
लोहे को देते रहे तरह-तरह की शक्ल
पर अब बीड़ी के जले ठूंठ ही उनकी याद दिलाएंगे
कि धौंकनी-सी थी उनकी छाती / थाली में रखा चुटकी भर नमक
और एक हरी मिर्च थी उनकी आंखें ।

भुलाए नहीं भूलेंगे उनके जीवन के दुख
जलते रहेंगे मेरे भीतर दीए की टेम की तरह
भर-भर आएगा मेरा मन जैसे
नाभि में अनायास भरती है कपास
जब भी सूखेंगे मेरे होंठ
पिता के पपड़ाए खेत याद आएंगे ।

- दिनेश कुशवाह