सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

ब्लॉग की दुनिया में पुनरागमन


लगभग छह महीने पहले लिखा था मैंने आखिरी बार.. चिट्ठों की दुनिया में ही नहीं, अपनी लेखनी की दुनिया में भी। ब्लॉग की दुनिया में एक-दूसरे पर कीचड़ उछाले जाने का एक नया दौर चल रहा था और मन क्षुब्ध था कि अभिव्यक्ति का ये नया माध्यम भी उसी बीमारी का शिकार हो गया जो हमारे जीवन के हर आयाम में है। इसके बाद मैंने निर्णय किया कि बस अब बहुत हुआ, ब्लॉग को टा-टा करने का समय शायद आ गया।

बात शायद यहीं खत्म हो जानी चाहिए थी... लेकिन ऐसा नहीं हुआ। छह महीने होने जा रहे हैं इन बातों को। ब्लॉग से मैंने नाता क्या तोड़ा, लिखना भी बंद हो गया। पढ़ना तो धीरे-धीरे कम होता ही जा रहा था (अखबारों और कुछ ऑल टाइम फेवरिट किताबों के अलावा इन दिनों कुछ भी नहीं पढ़ा).. अब लेखनी भी बंद हो गई।

वजहों की तलाश करें तो कमी नहीं होगी। वो कहते हैं न कि अपने-आप को जस्टीफाइ करने के लिए आदमी तर्क ढूंढ ही लेता है। ..तो तर्कों की कमी नहीं है। मसलन ये छह महीने दफ्तरी कामों के लिहाज से अब तक के सबसे व्यस्त दिनों में रहे .. ये भी कि कॅरियर को लेकर ऊहापोह भरे दिन थे और कुछ नहीं समझ में आता था कि आगे की रूप-रेखा क्या होगी (ये बात और है कि रूप-रेखा का अभी भी पता नहीं है)... ।

शायद अपने-आप से भी मुंह चुराने की भी कोशिश कर रहा था। क्यों? ..क्योंकि अपनी अकर्मण्यता पर गुस्सा बहुत आता था। लिखने को बहुत सारे विषय दिखते थे .. मसलन मेरा पसंदीदा पेट्रोलियम सेक्टर से जुड़े विषय, महंगाई और इसके आयाम, अपने प्रदेश में आई महाप्रलय, बम विस्फोट....... यानि लिखने के लिए विषय की कमी नहीं है.. पहले भी नहीं थी और अभी भी नहीं है। लेकिन जब लिखने बैठता तो 8-10 लाइनों के बाद उंगलियां दर्द करने लगतीं, सिर भारी होने लगता और फिर वो ही आलस सिर चढ़ कर बोलने लगता। छुट्टी के दिन तो बस और बस बिस्तर पर लेटे-लेटे टीवी देखने में ही बीते।

तो उंगलियां दर्द करतीं और फिर मैं उंगलियां चटकाता और लेखनी की हो जाती छुट्टी.. उन दिनों एक सवाल बार-बार मन में कौंधता रहता कि क्या हम सब कलम के बजाय टाइपराइटर के (या यूं कहें कि कंप्यूटर के की-बोर्ड) के सिपाही हो कर रह गए हैं। कलम उठाने पर मेरी (या हमारी?) उंगलियां क्यों दर्द करती हैं ..जबकि हम तो पत्रकार हैं। या कहीं ऐसा तो नहीं कि टीवी वाली मुफ्तखोरी की आदत लग गई कि स्साला.. नोट्स लेने की जरूरत क्या है ..मोटी-मोटी बातें लिख डालो और कैमरे के पीछे खड़े होकर महत्वपूर्ण बाइट्स की काउंटर नोट करते रहो और ऑफिस में स्टोरी की एडिटिंग के दौरान उसको लगा दो। किस्सा खत्म। नोट्स लेने की जरूरत क्या है, यहां तो इतने सोर्स हैं खबरों के। खैर, तो लगता है कि विषयांतर हो गया। हां, तो मैं कह रहा था कि उन दिनों अक्सर मैं अपने-आप से सवाल पूछता कि क्या हम सब कलम के बजाय टाइपराइटर या की-बोर्ड के सिपाही हो गए हैं?

इस सवाल का जबाव तो मेरे पास नहीं है ..लेकिन मन बार-बार यही कहता है कि हम-सब की-बोर्ड के ही सिपाही हो कर रह गए हैं। लेकिन इस पर विस्तृत बात फिर कभी। अभी तो बात ब्लॉग की दुनिया में वापसी की ही।

पिता अक्सर पूछते रहते हैं फोन पर कि इन दिनों क्या लिखा-पढ़ा? फ्रेंड-फिलॉस्फर-गाइड की भूमिका निभाने वाले पिता से झूठ बोलने की हिम्मत नहीं होती है और इसलिए उनके सवाल को हां-हूं करके टालने की ही कोशिश करता रहा हूं। लेकिन अपने-आप से इस सवाल को कैसे दूर किया जाय।

इसका शायद सबसे बेहतर उत्तर यही है कि वापस अपनी उसी दुनिया में लौटा जाय जिसे मैं सबसे ज्यादा जानता हूं। अगर अनजाने का संधान ही करना हो तो जाने को त्याग कर नहीं, उसके साथ बरकरार रह कर। इसलिए फिर लौट रहा हूं अपनी उसी दुनिया में। लिखने-पढ़ने की दुनिया.. जिसे मैं सबसे ज्यादा जानता हूं।

और ब्लॉग तो बस एक माध्यम है .. अभिव्यक्ति का ..जहां खुद को छपवाने के लिए आपको प्रकाशकों के चक्कर नहीं लगाने पड़ते। ये बात और है कि गिने-चुने ही लोग आपको प्रतिक्रिया देते हैं और इनकी प्रतिक्रियाएं इस पूरे तंत्र पर दिखता है। अग्रज सारथी शास्त्रीजी का घोषित लक्ष्य है कि हिंदी में 50 हजार चिट्ठाकार हों और वो भी एक नियत समय के भीतर (ब्लॉग की दुनिया से दूर रहने के चलते ये याद नहीं है कि संख्या 50 हजार है या 10 हजार और समयसीमा क्या है)। इस मंशा पर मुझे कोई शक नहीं है लेकिन भीड़ जुटाने से मुझे कोई फायदा नहीं नजर आता अगर उसका कोई सृजन में योगदान न हो।

लगता है फिर विषय से भटक गया मैं। पिताजी की बात याद आती है जो शायद उपेन्द्रनाथ अश्क को उद्धृत करके कहते थे कि उनके साहित्यकार बनने में बड़ी भूमिका रही उनके अपने विचारों को नोट करने के आदत की.. जो भी बात दिमाग में आए उसे कहीं लिख डालो, भले ही उसका कोई उपयोग नहीं हो। आज सोचने में पिताजी की ये बात बड़ी अच्छी लगती है लेकिन नोट्स लेने की आदत शायद पढ़ाई के साथ ही खत्म हो गई।

खैर इन सब पर बातचीत फिर कभी। अभी तो अपनी दुनिया में वापस आने का जश्न मनाने का समय है। इसलिए ये बात यहीं तक। प्रयास यही रहेगा कि अब नियमित रूप से कुछ-न-कुछ बाहर आता रहे और तकनीक के इस रूप का ज्यादा-से-ज्यादा लाभ उठाया जा सके।

एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।
-दुष्यन्त कुमार

6 टिप्‍पणियां:

Shastri JC Philip ने कहा…

प्रिय अनुज, जश्न आप नहीं हम मनायेंगे -- कि आप वापस आ गये. आज मैं बहुत खुश हूँ!!

अब जरा जम कर लिखो!! पाठकों की संख्या काफी बढ चुकी है. मेरा अनुमान सही था -- सन 2010 तो 10,000 चिट्ठे!! 1015 तक 25,000 एवं 2025 में 100,000 हिन्दी चिट्ठे!!

लिखते रहो!!

Shastri JC Philip ने कहा…

एक अनुरोध -- कृपया वर्ड-वेरिफिकेशन का झंझट हटा दें. इससे आप जितना सोचते हैं उतना फायदा नहीं होता है, बल्कि समर्पित पाठकों/टिप्पणीकारों को अनावश्यक परेशानी होती है. हिन्दी के वरिष्ठ चिट्ठाकारों में कोई भी वर्ड वेरिफिकेशन का प्रयोग नहीं करता है, जो इस बात का सूचक है कि यह एक जरूरी बात नहीं है.

वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिये निम्न कार्य करें: ब्लागस्पाट के अंदर जाकर --

Dahboard --> Setting --> Comments -->Show word verification for comments?

Select "No" and save!!

बस हो गया काम !!

रवि रतलामी ने कहा…

फिर से स्वागत है. इस बार जमे रहिए. रोज लिखिए. शुभकामनाएं

Amit Anand ने कहा…

गुरुजनों का आदेश सर-माथे। शास्त्रीजी, मैंने इसे बदल दिया है। ब्लॉग की दुनिया में ऐसे मार्गदर्शन की मुझे तो बहुत जरुरत है। धन्यवाद

Shastri JC Philip ने कहा…

बहुत अच्छा अनुज कि वर्ड वेरिफिकेशन हटा दिया.

अब जरा जम के लिखो, हर विषय पर वैचारिक कोण से लिखो, कभी थको तो जरा एक ईपत्र मेरे नाम डाल दो!! ऊर्जा का इंतजाम हो जायगा!!

सस्नेह

-- शास्त्री

-- हिन्दीजगत में एक वैचारिक क्राति की जरूरत है. महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)

प्रवीण त्रिवेदी ने कहा…

आ जाने की बधाई!
हलाकि हम जैसे नए नवेलों को डर लग सकता है /
हम को जोड़ने के बारे में सोचियेगा/