शनिवार, 16 जून 2007

नया कवि : आत्म-स्वीकार

ये कविता बहुत हद तक मेरे ही जैसों के लिए है, जो उभरना चाहते हैं, खुशफहमी में रहते हैं... वगैरह-वगैरह । ईमानदारी से ये मेरे लिए ही है


किसी का सत्य था,
मैंने संदर्भ में जोड़ दिया ।
कोई मधुकोष काट लाया था,
मैंने निचोड़ लिया ।

किसी की उक्ति में गरिमा थी
मैंने उसे थोड़ा-सा संवार दिया,
किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था
मैंने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया ।

कोई हुनरमन्द था:
मैंने देखा और कहा, 'यों!
'थका भारवाही पाया -
घुड़का या कोंच दिया, 'क्यों!'

किसी की पौध थी,
मैंने सींची और बढ़ने पर अपना ली।
किसी की लगाई लता थी,
मैंने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली ।

किसी की कली थी
मैंने अनदेखे में बीन ली,
किसी की बात थी
मैंने मुँह से छीन ली ।

यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ:
काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ?
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें ।
पर प्रतिमा--अरे, वह तो
जैसी आप को रुचे आप स्वयं गढ़ें ।

- अज्ञेय

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