शनिवार, 16 जून 2007

मैं, तुम और फिल्म

यह मेरी अपनी कविता है ... खालिस अपनी । इसे लिखा तो कई वर्षों पहले था और पहली बार जब ब्लॉग की दुनिया से जुड़ा था तो इसे ही पोस्ट किया था । यह कविता आज भी www.hastakshep.multiply.com पर मौजूद है। यह अलग बात है कि उसकी कुंजी खुद भूल चूका हूँ । बहरहाल, इस ब्लॉग पर भी अपनी रचना के साथ पहली उपस्थिति इसी कविता के जरिये हो रही है। लेकिन यह महज एक संयोग से ज्यादा कुछ भी नहीं है क्योंकि इसे पुराने ब्लॉग से सीधे कट कर यहां पेस्ट कर रहा हूं। कविता लिखने के क्रम में ही एक बार ये भी लिखी गयी थी, दिल से में इसकी कोई विशेष जगह की बात बिल्कुल भी नहीं है। दिल से जुड़ीं कवितायेँ तो कुछ और ही हैं , जिसे फिर कभी पोस्ट करुंगा


मैं अमिताभ बच्चन नहीं हूं
कि गाता चलूं
" मैं और मेरी तन्हाई ॰॰॰"
पर अपने एकाकी पलों में
मैं भी कुछ ऐसा ही सोचता हूं
चाहता हूं कि
काश ! तुम मेरे पास होतीं
मुझसे बातें करतीं
और मैं तुम्हें निहारता रहता
अपलक ॰॰॰॰॰

फिल्मी लग रहा है न मेरा अंदाज ?
क्या करोगी
आजकल सामान्य भारतीय
सिनेमाई अंदाज में ही
हंसता-गाता-रोता-जीता है

मैंने कहा न
मैं अमिताभ बच्चन नहीं हूं
वो एंग्री यंगमैन था
सारी दुनिया से लड़ कर अपनी प्रेमिका को पा सकता था,
मैं नहीं ॰॰॰

मैं दिलीप कुमार भी नहीं हूं कि
गम में तुम्हारे
टेसूए बहाता चलूं
अरे॰॰ तुम नहीं तो कोई और सही
वो भी नहीं तो
कोई तीसरी सही ॰॰॰

हां, शाहरुख खान की एनर्जी और
अगंभीरता
मुझे प्रभावित करती है
मैं भी वैसा ही बनना चाहता हूं
ताकि विपरीत समय में भी हंसता रहूं

विषयांतर हो गया लगता है॰॰॰ नहीं ?
कहां-कहां की बातें कर बैठा
पर क्या करूं ?
जानता हूँ
कि तुम्हें पाने की कीमत देनी होगी

पद-पैसा-प्रतिष्ठा के बिना आदमी का कोई मोल नहीं होता

इसी 'प' अक्षर को पाने में लगा हूँ
इंतज़ार करो तब तक
यदि कर सको तो ॰॰?

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