शनिवार, 28 जुलाई 2007

मैं, मेरा समय और आज की पत्रकारिता

आज-कल हमारे मित्र अविनाशजी के मोहल्ले में एक गर्मा-गर्म बहस चल रही है हमारे समय की मीडिया, खास कर टीवी पत्रकारिता पर। आवाज के दिलीप मंडलजी ने मधुमक्खी के इस छत्ते को छेड़ा तो हम सब को इसका दंश लगा। कईयों ने लिखा है, मैंने भी कोशिश की है। तो नीचे लिखे गए उद्गार वही हैं, जो अविनाशजी के मोहल्ले की बहस पर लिखा।

प्रिय अविनाशजी,

बधाई॥ काफी दिनों बाद मोहल्ले में एक अच्छी बहस शुरु हुई है। मीडिया विमर्श के इस मंथन में कुछ अच्छा निकलने और कुछ सार्थक होने की उम्मीद बंधती है। दिलीपजी ने मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ दिया है। अपनी बात उन्होंने ऐसी जगह ले जाकर छोड़ दी है कि कभी-कभी लगता है कि जैसे दुनिया लड़े-कटे और हम तमाशा देखें। हालांकि ये सच नहीं है। दिलीपजी और उनके बाद छपी कई और बातों ने लिखने के लिए मुझे भी उकसाया और वही आपको भेज रहा हूं। किसी की व्यक्तिगत आलोचना करने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। साथ ही, कई जगह मेरी बातों में विरोधाभास झलक सकता है और अपनी ही बातों का दुहराव दिख सकता है। इस पर मेरा कंट्रोल नहीं है। पर मुझे लगता है कि ये विरोधाभास न केवल हमारे समय के समाचार तंत्र में है, बल्कि हमारे समाज और हमारे व्यक्तित्व में भी है। हम कई मुखौटे ले कर चलते हैं और जरूरत के मुताबिक उसे लगा लेते हैं। इस बीच में अनामदासजी और एक गुमनाम की चिठ्ठी भी आपने छापी है। दोनों की भाषा काफी सधी हुई है और दोनों लगभग वही बात कहते हैं जो मैं आगे कहने जा रहा हूं अपनी बेलगाम भाषा में।

अपनी बात की शुरूआत दिलीपजी की चेलावाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद वाली बात से करता हूं। दिलीपजी कहते हैं कि पुराने दौर में जिस तरह का चेलावाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद था वो अब चल नहीं सकता। .... बाजार उसे एक हद से ज्यादा जातिवादी होने की इजाजत नहीं देगा। इस बात से मैं असहमत हूं। क्या दिलीपजी ईमानदारी से कह रहे हैं कि चेलावाद कम-से-कम टीवी न्यूज चैनल्स से खत्म हो गया या हो रहा है या उन्हें इसकी आहट सुनाई दे रही है..? जातिवाद और क्षेत्रवाद हो सकता है कि अपने आखिरी चरण में हो पर क्या चेलावाद खत्म हो रहा है ? हमारी समझ में तो ऐसा नहीं है बल्कि ये अभी और मुखर हो कर सामने आ रहा है। इसे पेटी के नीचे का प्रहार न समझा जाय लेकिन दिलीपजी, क्या आपने खुद कभी कोई ऐसी कोशिश की है कि खुद आपके चैनल में ही नियुक्तियों का एक ऐसा इंस्टीट्यूशन विकसित हो, जो इतनी पारदर्शी हो कि दूर से ही झलके और लोगों को शिकायत का मौका न मिले। चेलावाद फिलहाल अपने चरम पर है और सेंसेक्स की तर्ज पर नित नयी ऊंचाईयां चढ़ता ही दिख रहा है।
सच्चाई ये है कि हम सब इस हम्माम में अपनी नंगई ढंकने से ज्यादा दूसरे की उघाड़ने में लगे रहते हैं।

मैं सत्येंद्रजी की इस बात से भी सहमत नहीं हूं कि हमारा समाचार तंत्र कॉरपोरेट मीडिया का रूप ले चुका है। कॉरपोरेट की जगह यदि बाजार का उपयोग करें तो बात बहुत हद तक सुलझती दिखती है, क्योंकि मोटे तौर पर आज भी कोई कॉरपोरेट हमारे चैनल्स या अखबार की सामान्य दिनचर्या में हस्तक्षेप नहीं करता है। बल्कि हमारे संपादक और बीते जमाने के प्रतिबद्ध पत्रकार आज के न्यू एज मीडिया मुगल होते जा रहे हैं। उनकी कंपनियां लिमिटेड कंपनी बन रही है और आज की नई दुनिया के अंबानी-मित्तल उसमें कुछ हिस्सा खरीदते जा रहे हैं (लेकिन तिमाही-छमाही-सालाना नतीजों के अलावा उनका कोई प्रत्यक्ष इंटरेस्ट आज भी नहीं दिखता है)। ये वही मीडिया मुगल हैं जो कल के प्रतिबद्ध पत्रकार थे और आज की नयी पीढ़ी को जिनके नाम की चाशनी हर लेक्चर के साथ पिलायी जाती है।

प्रतिबद्धता की बात करें तो हमारे आज के समाचार तंत्र में ये केवल इंडियन एक्सप्रेस और हिंदू में दिखती है। जनसत्ता के संपादकीय पन्नों के अलावा और क्या छपता है ये हम सब जानते हैं।

मेरी समझ में हमारे समय का समाचार तंत्र (अखबार और खबरिया चैनल्स, दोनों) बहुत कुछ शेयर बाजार की तरह काम कर रहा है। ये हर दिन कुछ खबरें उछालता है, कुछ गिराता है। इसका सूचकांक आदमी की भावनाएं हैं, जिनसे ये खेलता है। ये दरअसल बाजार का लोकतंत्र है। ये हमारे टीवी समाचारों में भी दिखता है और अखबारों में भी। टीवी में ज्यादा हो सकता है पर क्या अखबार किसी खबर को नहीं उछालते और दूसरे-तीसरे-चौथे दिन उससे संबंधित खबरें पहले पन्ने पर नहीं छपतीं ? इन दूसरे-तीसरे-चौथे दिन की खबरों को गौर से जरा पढ़ें, क्या इनके पहले-दूसरे पैराग्राफ को छोड़ कर बाकी केवल बैकग्राउंड मैटीरियल नहीं होता ?

टीवी समाचारों की बात करें तो जाहिर-सी बात है कि बाजार का समाजशास्त्र इसके पीछे काम करता है। एक खबर को उछाला तो कई घंटे तक उछालते रहे औऱ फिर अगले दिन वो खबर कहां गयी, इसका कोई पता नहीं। निश्चित रूप से ये टीआरपी का खेल (जो खुद एक विवादित विषय है ॥ कि 1।15 अरब लोगों के देश के कुछ हजार लोगों का ही ये प्रतिनिधित्व करता है)। लेकिन इसी टीआरपी पर चलना संपादकों की मजबूरी भी है (इससे अच्छा विकल्प फिलहाल उनके पास नहीं है। डीटीएच के जरिए दर्शकों को नापने का मैकेनिज्म विकसित होने में अभी समय लगेगा), क्योंकि ये ही तय करता है कि चैनल्स को विज्ञापन कहां से मिलेंगे, पैसा कहां से आएगा। पर क्या ये सच नहीं है कि अखबार भी ऐसे ही नहीं हैं। नहीं तो क्यों अखबार पूरे पृष्ठों का विज्ञापन छापते हैं या क्यों पहले पन्ने का एक कोना विज्ञापन के लिए रिजर्व रखा जाता है। या फिर क्यों आईआरएस के नतीजे आने पर अखबार नंबर-1, नंबर-2 का शोर मचाते रहते हैं। ये बाजार का ही लोकतंत्र है कि हमारे समय के बिजनेस चैनल कंपनियों के चेयरमैन को प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद पहले अपने चैनल पर लाने के लिए लड़ते रहते हैं। यदि एक कंपनी का चेयरमैन एक बिजनेस चैनल पर पहले दिख गया तो दूसरा बिजनेस चैनल उस चेयरमैन का बायकॉट कर देता है क्योंकि दोनों चैनल्स जानते हैं कि चेयरमैन के पहली बार दिखने पर ही उस कंपनी का शेयर स्टॉक मार्केट में उछलेगा या गिरेगा। दूसरी बार में नहीं। दिलीपजी, आप भी इस बात से अवगत होंगे कि एक चेयरमैन या सीईओ यदि एनडीटीवी प्रॉफिट पर दिखता है तो सीएनबीसी और आवाज उसका बायकॉट कर देते हैं और अविनाशजी आपके लिए कि ठीक ऐसा ही एनडीटीवी प्रॉफिट भी करता है ... कि फील्ड में उस स्थान पर मौजूद चैनल्स के रिपोर्टर्स ऐसा सीन क्रिएट करते हैं कि एक भला आदमी वहां से हटने में ही भलाई समझता है।

प्रिंट और टीवी न्यूज की बात करें तो क्या ये नहीं है कि टीवी न्यूज में दिखाए जाने वाले क्रिकेट, सिनेमा, क्राइम और सेक्स अखबारों द्वारा शुरू की गयी परंपरा का विस्तार नहीं है। क्या अखबारों ने इसकी शुरूआत नहीं की ? अंग्रेजी अखबारों में शुरू हुआ ये सिलसिला क्या अब हिंदी अखबारों से अछूता रह गया है जहां रंगीन पन्नों में हीरोइनों, मॉडल्स की अधनंगी तस्वीरें प्रमुखता से छपतीं हैं। रवीशजी ने ठीक ही सवाल उठाया है(जो शायद उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा था) कि अखबारों में क्यों केवल लड़कियों की तस्वीरें ही छपती हैं ॥ बारिश हो तो भीगती लड़की, धूप हो तो छाते में लड़की ...। क्या ये खबरों को बेचने का तरीका नहीं है ? क्या टीवी में दिखने वाले अपराध, हिंसा, बलात्कार की खबरें अखबारों की ओरिजिनल पेज-तीन पर छपने वाले लूट-मार, हत्या, बलात्कार की खबरों का विस्तार नहीं है ? क्या अखबारों ने इस परंपरा की शुरूआत नहीं की थी या क्या अखबारों ने आज इसे प्रमुखता देना बंद कर दिया है ? कई स्थानीय अखबार तो आज भी इन्हीं की बदौलत चलते हैं और क्या इसकी वजह से ही राष्ट्रीय अखबारों ने अपने स्थानीय संस्करण को भी एक ही राज्य के भीतर कई टुकड़ों में नहीं तोड़ दिया ? क्या भूत-प्रेत की खबरें अखबारों के परिशिष्ट के आखिरी पन्नों पर आज भी प्रमुखता से नहीं छपतीं ? या क्या अखबारों ने खेल के पन्नों को केवल और केवल क्रिकेट की खबरों से नहीं रंगा ?

अंतर बस इतना है कि अखबार दिन में केवल एक बार छपते हैं, टीवी चौबीसों घंटे दिखता है। टीवी ज्यादा प्रभावी है क्योंकि दृश्य मीडियम है और विजुअल्स आंखों में अनजाने में भी समा ही जाते हैं॥ अखबारों की खबरों को कल्पना के जरिए साकार करना पड़ता है। पर क्या ये सभ्यता के विकास की चिरंतन परंपरा नहीं है जो आदिमानव से मानव और जंगल से शहर/महानगर तक लाती है ? तो रोना उस वक्त रोएं जब अखबार खुद पाक साफ हों। टीवी में स्थानीय खबरों की प्रमुखता भी अखबारों की ही देन है और राजधानी दिल्ली की छोटी खबरों को बड़ा बनाना भी।

हां, ये जरूर है कि कई बार या अक्सर टीवी न्यूज अति की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है। लेकिन टीवी न्यूज चैनल्स भी वक्त के साथ बड़े हो रहे हैं और विकसित हो रहे हैं। लेकिन इसमें समय लगेगा। ये न्यूज चैनल्स के लिए ट्रांजीशन का दौर है॥ एक चोला उतार कर दूसरे को अपनाने की, उसमें समाने की तैयारी हो रही है। पर क्या ऐसा ही हमारे समाज के साथ नहीं है ? टीवी ने समाज को बदला है तो समाज ने टीवी को भी बदला है और दोनों एक-दूसरे को निरंतर बदल रहे हैं। जब ताली बजती है तो ये बताना मुश्किल होता है कि बांए हाथ का योगदान ज्यादा रहा या दाएं हाथ का। टीवी और समाज के साथ भी ऐसा ही है। ठेठ भाषा में कहें तो दूरदर्शन के दिनों को गिन कर ये टीवी समाचारों के गदह-पचीसी के दिन हैं और निजी चैनल्स के आने के समय से जोड़ें तो बचपना है। हम सब इसे बदलने को इतने साकांक्ष हैं पर हम सब में से किसी ने भी इस बदलाव के लिए अभी तक अपनी कोई योजना नहीं दी, अपना कोई मॉडल नहीं दिया है। हम सब केवल अतीत और एस पी को याद कर के स्यापा कर रहे हैं।

क्यों न्यूज चैनल्स द्वारा किए जा रहे मीडिया ट्रायल्स को लोग देख रहे हैं या और बेशर्म हो कर कहें तो क्यों इन ट्रायल्स को टीआरपी मिल रही है ? (टीआरपी पर चाहे जितना विवाद हो, पर इसका मतलब है कि कुछ लोग तो इसे देख रहे हैं)। मैं इनकी पैरवी नहीं कर रहा लेकिन क्या ये हमारी न्याय व्यवस्था पर टिप्पणी नहीं है ? उम्र बीत जाती है, पीढ़ी-दर-पीढ़ी लगी रहती है कोर्ट केस को निपटाने में। ऐसे में, क्या मीडिया ट्रायल्स लोगों को एक विकल्प नहीं देते या थोड़ी देर के लिए ही सही पर खुशी नहीं देते ? हम सब डरते हैं पुलिस के पास जाने से कि कहीं हम ही न फंस जाएं और टीवी न्यूज चैनल्स लोगों के इसी भय को एक्सप्लॉइट कर रहे हैं। फिर भी लोग आ रहे हैं क्योंकि लोगों को एक इंस्टैंट जस्टिस की उम्मीद बंधती है।

मीडिया ऑर्गनाइजेशन के भीतर की बात करें तो क्या वो सारी बातें अखबारों के दफ्तरों में नहीं होती जो टीवी चैनल्स के न्यूज रूम के भीतर होती है। अखबारों में छह बजे शाम से संस्करण निकलने तक की जो रोजाना का तरीका है, वो क्या चौबीसों घंटे चलने वाले न्यूज चैनल्स के न्यूज रूम से कितना अलग है ? क्या अखबारों में इंटर्न्स का शोषण नहीं होता ? कम या ज्यादा, ये तुलना करने का विषय हो सकता है।

दिलीपजी ठीक कहते हैं कि जैसी पत्रकारिता अब होती है, वैसी पहले नहीं होती थी। अब ये हम पर है कि हम इसे किस तरह के चश्मे से देखते हैं। 50 साल पहले की बात करेंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी क्योंकि संदर्भ बदल गए हैं, परिभाषाएं बदल गयी हैं, मुहावरे बदल गए हैं और परिवेश बदल गया है। हमारा मीडिया हमारे समय का आईना है और हमारा समय हमारे मीडिया का आईना है। दोनों ही बातें सच हैं।

इस बहस में पड़ने का कोई तुक नहीं है कि पत्रकारिता का स्वर्णकाल कब था या कब होगा ? वर्तमान में जीने की आदत हमें होनी चाहिए और वर्तमान ही हमारा स्वर्णकाल हो सकता है। 50 साल पहले की परिभाषाएं हमारे समय पर फिट नहीं बैठतीं। अपने समय के लिए परिभाषाएं हमें खुद गढ़नी होगी और ये ही हमारा स्वर्णकाल हो सकता है। अतीत का रोना रोते रहना विकल्प नहीं है। हमें वर्तमान में जीने की आदत होनी चाहिए और भविष्य के लिए रास्ता तैयार करना चाहिए। नहीं तो एह एकालाप करते रहेंगे, दुनिया आगे निकल जाएगी।

ये भी सत्य है कि हमारे समय की पीढ़ी, जिसे आप नयी पीढ़ी कह सकते हैं, वो आज मीडिया में, टीवी न्यूज में प्रतिबद्धता के लिए नहीं, नौकरी के लिए आती है। यहां हम मान कर चलते हैं कि हमें कम-से-कम 12-13 घंटे की नौकरी करनी है ताकि हम अपने लिए (किसी दूसरी नौकरी के माफिक ही) सुख-सुविधा के साधन जुटा सकें। टीवी में दिखना एक एडेड ग्लैमर है। न्यूज चैनल में काम करना हमारी पीढ़ी के लिए एक नौकरी ही है और यदि कोई किसी चीज के लिए प्रतिबद्ध है तो इस नौकरी से प्रतिबद्धता कहीं कम नहीं होती। यदि कोई कहता है कि वो टीवी में किसी प्रतिबद्घता के साथ, किसी मिशन के तहत आया है, तो वो या तो पथभ्रष्ट देवता है(जिसकी यहां जरुरत नहीं है) या फिर झूठ बोल रहा है। और आज नौकरी के हर क्षेत्र में कमोबेश ऐसी ही बात है। नहीं तो प्रतिबद्धता का ढोल पीटने वाले हजारों एनजीओज के बावजूद इस देश में केवल एक ही मेधा पाटकर, एक ही बाबा आम्टे, एक ही अन्ना हजारे, एक ही सुनीता नारायण, एक ही अरविंद केजरीवाल, एक ही एस पी सिंह और एक ही राजेंद्र माथुर क्यों उभर कर आते हैं ?

आज टीवी में काम करने के लिए आने वाली नयी पीढ़ी इस ग्लैमर के लिए आ रही है, जो उन्हें विद्यार्थी जीवन में दिखता है और जिसकी बदौलत वो रातों-रात दीपक चौरसिया या राजदीप सरदेसाई या रवीश कुमार बनने का सपना देखते हैं। फिर जब जमीनी सच्चाई का सामना करना पड़ता है, तो कोई उसमें से राह निकाल लेता है, कोई नियति मान कर स्वीकार कर लेता है, तो कोई भगोड़ा बन बैठता है। क्या ये सच नहीं है कि आज के बहुत-से पत्रकार इस दुनिया में उस वक्त आए, जब वो सरकारी नौकरी के लायक नहीं रहे और प्राइवेट सेक्टर ने उन्हें लिया नहीं.. मां-बाप से आंख मिलाने की हिम्मत नहीं रही तो कोई सेटिंग की, कोई कोर्स किया और पत्रकार बन गए। क्या ये चेलावाद का अप्रतिम नमूना नहीं है।

अब जो नयी पीढी पत्रकारिता जगत में आ रही है, उसके लिए ये केवल नौकरी है, जिसे वो कॉलेज से निकलने के बाद / कोर्स खत्म करने के बाद शुरू करता है। इस पीढी ने एस पी को नहीं देखा है और देखना भी नहीं चाहता है क्योंकि आज की पत्रकारिता में नियुक्ति की प्रक्रिया इतनी धुंधली है कि युवावस्था के जोश में जो भी थोड़े-बहुत सपने होते हैं या तथाकथित प्रतिबद्धता होती है, वो मिट्टी में मिल जाती है। इस पीढ़ी के पास एस पी की यादें या तो बिल्कुल नहीं हैं या फिर थोड़ी-बहुत धुंधली यादें हैं। इन धुंधली यादों में केवल इतना है कि एक दाढ़ी वाले शख्स थे, जो आधे घंटे के समाचार पढ़ते थे पर उनके तेवर तत्कालीन दूरदर्शनी समाचारों के तेवर से बिल्कुल अलग थे। वो मोनोटोनस नहीं थे, बोर नहीं करते थे। उनको केवल आधे घंटे देखने के बाद ये कसक उठती थी कि दूरदर्शनी/आकाशवाणी के समाचारों से अलग दिखने वाला ये शख्स और क्यों नहीं दिखता ? पर इसके पीछे के समाजशास्त्र से हमारी पीढ़ी को कोई लेना-देना नहीं रहा, ये तो बस भावनाओं की बात थी/है। और इसलिए हमारी पीढ़ी के लिए पत्रकारिता एक ऐसी नौकरी है, जिसमें कॉल सेंटर, प्राइवेट सेक्टर या सरकारी नौकरी से ज्यादा ग्लैमर है और रातों-रात प्रसिद्ध होने की संभावनाएं बहुत ज्यादा है। ये अलग बात है कि हकीकत का साक्षात्कार होते ही आधे लोग भाग खड़े होते हैं॥ कि ये करियर के तौर पर भी उतना ही डिमान्डिंग है, जितना कि एमबीए करके कोई नौकरी करना।

मैं दिलीपजी की इस बात से भी असहमत हूं कि नया नायक या खलनायक कौन है, इसे दर्शकों का लोकतंत्र तय करता है। दर्शकों के च्वाइस की जो बात दिलीपजी करते हैं वो भी एक हद तक ही सही है। ये दर्शकों को रिजेक्ट करने की स्वतंत्रता भी नहीं दे रहा है और न ही अच्छा और गंदा देखने की च्वाइस। ये बाजार का लोकतंत्र है जो दर्शकों को मानों चार ऑप्शन दे रहा है कि इनमें से जो पसंद है उसे चुन लो पर चलेंगे इन्ही में से। दर्शक जब जिसे चाहे उसकी छुट्टी नहीं कर सकता। आपको बस इनमें से चुनने की स्वतंत्रता है। बाजार के इस लोकतंत्र में सभी चीजें तय हैं, आप जिसे चाहे चुन लें पर अपनी तरफ से कुछ नहीं जोड़ सकते। कभी जुड़ी भी तो वो नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह जाएगी और उसका मोल भी बाजार के लोकतंत्र में उतना ही है।

रोने से कोई हल नहीं निकलने वाला। टीवी न्यूज की अगंभीरता अखबारी खबरों का ही विस्तार है जो मौलिक पेज-तीन पर छपती रही हैं और जहां आज भी हिंसा-लूट-पाट-हत्या-बलात्कार की खबरों का ही वर्चस्व और बाहुल्य है।

सिद्धांत और आदर्श की बात करें तो क्या ईमानदारी से कोई बताएगा कि आजादी के बाद की अखबारी पत्रकारिता कितने सिद्धांतों, कितने आदर्शों पर चली और कितनी चाटुकारिता पर ? क्या मुख्यधारा के अखबारों का सत्ता तंत्र को समर्थन नहीं रहा या अखबारों ने दंगे भड़काने में योगदान नहीं दिया। आडवाणी की पहली रथ यात्रा के दौरान तो टीवी न्यूज के नाम पर बस दूरदर्शन था, फिर इतने लोग एक छद्म मंदिर के नाम पर कैसे भ्रमित कर दिए गए ? ये सरकारी रिपोर्ट ही है जो कहती है कि 2002 में गुजरात में दंगे भड़काने में सबसे बड़ा हाथ वहां के कुछ स्थानीय अखबारों की बायज्ड रिपोर्टिंग का था। टीवी मीडिया ने तो इसके खिलाफ इतना शोर मचाया कि संसद का विशेष सत्र वाजपेयीजी को बुलाना पड़ गया।

तो कहना यही है कि सब के अपने पक्ष और विपक्ष हैं और हम सब अपनी जरूरतों के मुताबिक तर्क गढ़ लेते हैं जो हमारे ईगो को संतोष पहुंचाता है।

तो कुल मिला कर ये ही है कि हमारे समय की पत्रकारिता हमारे ही समय का प्रतिनिधित्व करती है। जैसा समाज है, वैसी पत्रकारिता है और ये भी सच है कि पत्रकारिता का समाज पर यदि असर है तो समाज पर भी पत्रकारिता का खासा असर है।

तो सच ये भी है कि टीवी पत्रकारिता अखबारी पत्रकारिता का ही एक्सटेंशन है और इसने अपने मानक, मॉडल सभी अखबारों से ही गढ़े हैं। ये अखबारों की ही अगली कड़ी है। इसने सब कुछ अखबार से ही उठाया और अब उसे एक नया आयाम दे रही है (गलत भी, सही भी)।

तो सच ये भी है कि
... टीवी पत्रकारिता का ये बचपन या कैशोर्यावस्था का दौर है और अभी इसे और विकसित होना है।
... इस पूत ने पालने में ही पैर दिखा दिए हैं
... पत्रकारिता के स्तर पर स्यापा करने से कुछ नहीं होने वाला, हम सब इस हम्माम में नंगे हैं
... एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने से कुछ नहीं मिलने वाला और न ही गलबहियां डाल कर रोने से परिदृश्य बदलने वाला है। या तो हम-आप-वो मिल कर इसे बदलने में लगें या फिर समय के अनुकूल बन कर अपना मुंह बंद रखें और तमाशा देखें। च्वाइस हमारी होगी कि हम क्या करेंगे ?
... चेलावाद की अखबारी परंपरा टीवी न्यूज में उग्रतर होती जा रही है

और सच ये भी है कि हमारे समाचार तंत्र में आम आदमी कहीं नहीं है। ये तंत्र बाजार के लोकतंत्र से चलता है, जिसमें हमको-आपको चुनने के लिए कुछ ऑपशंस हैं, पर अलग से कुछ नया जोड़ने की इजाजत नहीं है। आपको इन्हीं में से पसंद और नापसंद करना होगा।

धन्यवाद।

4 टिप्‍पणियां:

अजय रोहिला ने कहा…

bahi maan gaye aapne to patrkarita ke pant hi khol kar radh di...kadvi saccchhai hai Avinash ji ko bhi swikar karne me jijhak nahi honi chahiye...great observation and satik writing...keep it up!!

Unknown ने कहा…

go for the kill

KUMAR ASHISH ने कहा…

जातिवाद, क्षेत्रवाद, चेलावाद पर इतना ही कहूंगा कि मेरी समझ में इन तीनों के खात्मे की घंटी कम-से-कम अभी तक तो नहीं बजी है और कोई आहट भी इनके जाने की नहीं सुनाई पड़ रही है।
अमित जी आप की ये बात जर्नालिजम मे होने वाली विल्कुल सही घटना को दर्सती है ओर हम आप की बातो से सहमत हे |
kumar ashish

KUMAR ASHISH ने कहा…

amit sir aap ka vechar patrakarita ke bare me belkul hin hamare mat se sahi hi.ye jatebad or chelawad se to ye chetra ata pra hi......... es ke bare me jetna kha jye mere samajh se km hin hi.
kumar ashish