शनिवार, 4 अगस्त 2007

पत्रकार क्यों सरकार के खिलाफ लिखते हैं ?

हमारे एक बेनाम साथी को लगता है कि सरकार के खिलाफ इतनी रिपोर्टिंग राज्य से भरोसा उठाने की कोशिश है और निजी क्षेत्र के बारे में कोई नहीं लिखता। उन्होंने ये बात मोहल्ले को लिखी। असहमति के हर स्वर का स्वागत है। लेकिन उनके मत और मेरे मत में अंतर ये हैं कि उनके द्वारा दिए गए संदर्भों से मैं सहमत नहीं हूं। इसलिए मोहल्ले की गलियों में अपनी बात मैंने पहुंचाई। इसे यहां डालने तक वो अपने जबाव के साथ भी हाजिर हैं और बहस को नया आयाम दे रहे हैं। उन्होंने अपनी बात शुरू की है कि हमारे सामने विकल्प सीमित हैं और अंत करते हैं कि हम सब अभिशप्त हैं इन्हीं दो (सीमित) विकल्पों में चुनाव के लिए। सच्ची बात है कि विकल्प सीमित हैं क्योंकि राजसत्ता और निजी क्षेत्र के बीच एक तीसरा तंत्र खड़ा करने की ईमानदार कोशिश का अभाव है, बहुत कुछ राजनीतिक पार्टियों के तीसरे मोर्चे की तरह। मेरी गुजारिश ये भी है कि कम-से-कम मुझे बाजार का प्रवक्ता न समझें, लेकिन अपनी समझ को रखने की इजाजत भी दें। डर लग रहा है कि ये हमारे-उनके निजी वाद-विवाद में बदल रहा है। किसी की समझ उसके बात की वकालत नहीं हो सकती। वो एक तटस्थ वक्तव्य भी हो सकता है। हालांकि मैं अपने को डिफेंड करने नहीं कर रहा, बल्कि मुझे लगता है कि हम सब अपनी बात अपने-अपने तरीके से कह रहे हैं। लेकिन हम सब सच में अभिशप्त हैं इन्हीं सीमित विकल्पों में चुनने के लिए..


लेकिन ये भी सच है कि सरकार राज्य को चलाता है या यूं कहें कि राज्य को चलाने का तंत्र सरकार के हाथ में है और बहुत हद तक सरकार राज्य का पूरक है। हालांकि पर्यायवाची नहीं है। यूं भी कह सकते हैं कि सरकार हमारे समय की सबसे बड़ी कंपनी है (यदि सबको बाजार के पैमाने पर तौलें तो)


बेनाम के नाम एक ख़त

प्रिय बेनाम मित्र,

साक्षर और शिक्षित की बहस में मैं नहीं जाऊंगा। देसी मीडिया पर हमारे समय की जो मेरी समझ है, वो मैंने रखने की कोशिश की थी। आपने कुछ बड़े महत्वपूर्ण सवाल उठाये हैं। मसलन राज्य से भरोसा उठाने की कोशिश वाली जो बात आप करते हैं, उसमें आपके द्वारा दिये गये संदर्भों से मैं सहमत नहीं हूं। डिस-इनवेस्टमेंट हो या खाद पर सब्सिडी या फॉरवर्ड ट्रेडिंग पर रोक- ज़रा सोचिए कि सरकारी उपक्रमों के विनिवेश की बात क्यों उठी? हमारे सरकारी तंत्र के काम करने की शैली ये है कि एक व्यक्ति 10 बजे ऑफिस पहुंचने के बदले 11 बजे आता है। लंच का समय यदि एक बजे शुरू होता है तो काम-काज 12 बजते-बजते बंद हो जाता है। लंच दो बजे ख़त्म होता है तो वो व्यक्ति ढाई-तीन बजे काम पर लौटता है और चार-साढे चार बजे तक एक्जिट मोड में आ जाता है। हमारे सरकारी तंत्र आज भी ऐसे ही चल रहे हैं और इसमें भ्रष्टाचार का पहलू भी जोड़ दीजिए।

तो बात यही है कि हमारे सरकारी उपक्रम सफेद हाथी बन चुके हैं और हमारे-आपके पैसे का खुलेआम दुरूपयोग जारी है। खाद पर सब्सिडी किसानों को आज तक नहीं मिली, सत्ता तंत्र की वजह से कंपनियां पैसा पीटती रहीं (संदर्भवश आज ही यानी बुधवार को खाद मंत्री पासवान और उनके अधिकारियों ने फिर इस मांग को खारिज कर दिया कि किसानों को सब्सिडी सीधे दी जाय। उनका तर्क है कि इससे खाद पर सरकारी कंट्रोल खत्म हो जाएगा और दाम अनियंत्रित हो जाएंगे। ऐसे में, किसानों को सब्सिडी देने से अल्टीमेटली सरकार को ही पैसे चुकाने होंगे। उनके अनुमान के मुताबिक ये मौजूदा सब्सिडी से ज्यादा होगा। साथ ही, सरकार ये भी कहती है कि उसका अपना ही तंत्र ब्लॉक-अंचल स्तर पर इसमें बाधक बन जाएगा और किसानों की परेशानियां बढ़ जाएंगी)। फॉरवर्ड्स मार्केट की बात यदि करें, तो क्या एक अदना किसान यहां ट्रेडिंग कर सकता है? उनके नाम पर दरअसल बड़े व्यापारी और दलाल क्या कमाई नहीं कर रहे हैं?

तो सरकार/ सरकारी संस्था पर पत्रकार शायद इसलिए इतना लिखते हैं। हमारे 60 साल के शासन तंत्र ने हर छोटी-बड़ी बात के लिए हमें सरकारी की ओर आशाभरी दृष्टि से देखने की आदत लगा रखी है और इसलिए इनके ख़िलाफ इतना लिखा जाता रहा है कि काई कुछ तो हटे।

पत्रकार शायद इसलिए भी लिखते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री आंकड़ों के साथ खेल कर हमें बताते रहते हैं कि हमने सिंचाई के लिए 20 हजार करोड़ रुपये ख़र्च किये, जबकि आज भी हम सिंचाई के लिए मॉनसून की ओर ही टकटकी लगाये रहते हैं। हम देख रहे होते हैं कि अमीर-ग़रीब, हैव्स-हैव्स नॉट के बीच की खाई लगातार बढ़ती ही जा रही है और सरकार के मुखिया 10 फीसदी की रफ्तार से विकास का दावा करते रहते हैं। जनता को फील गुड हो या नहीं, खुद फील गुड करते रहते हैं। महंगाई को नापने के जो मापदंड (थोक मूल्य सूचकांक और कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स) 1973-74 में ही बनाये गये थे और उस समय जिन्हें पैमाना बनाया गया वे ही आज भी चल रहे हैं। क्या हमारे ये भाग्य विधाता हमें आज भी फटा सुथन्ना पहने रखने को विवश नहीं कर रहे और घाव में नमक लगाते हैं कि राष्ट्रगीत भी गाओ। दिलीपजी के पहले राइट अप में इस ओर इशारा था, पर उस पर इतनी बहस ही नहीं हुई।

राज्य पर हम भरोसा क्यों करें? राज्य एक समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, कल्याणकारी राज्य होने का दावा करता है पर शब्दों में गूंथी गयी बातों की माला आज भी संविधान की मूर्ति पर ही टिकी है।

रही बात निजी क्षेत्र पर लिखने के बारे में तो बात सही है कि हमारे मीडिया (प्रिंट और टीवी) में इसके ख़िलाफ लिखने की परंपरा अभी विकसित नहीं हुई है। केवल जब अलाने-फलाने लोन के रेट बढ़ जाते हैं या लोन की किस्त नहीं चुकाने पर बैंक के गुंडे धमकाने पहुंचते हैं, तभी ये ख़बरें छपती हैं। निजी क्षेत्र की पैरोकारी मैं भी नहीं करता पर इसके ख़िलाफ लिखने की शैली को अभी और विकसित होना है, ऐसा मानता हूं।

यूं तो आज के वाम दलों की राजनीति से अक्सर असहमत रहता हूं पर अच्छा लगता है जब देखता हूं कि इनके प्रचंड विरोध के चलते ही एक आदमी की रिटायरमेंट की पूंजी (पी एफ और पेंशन) शेयर बाजार में इनवेस्ट नहीं हो पाती। भले ही वो रकम केवल 5 फीसदी ही क्यों न हो।

कॉरपोरेट और बाज़ार के बारे में मैं इतना फिर कहूंगा कि कॉरपोरेट बाज़ार का हिस्सा है और बाज़ार अपने आप में एक इंस्टीट्यूशन की शक्ल ले चुका है। हमारे समय के सबसे बुद्धिमान लोग इन कॉरपोरेट्स की मदद पर चौबीसों घंटे रहते हैं और लगातार बाज़ार की दिशा को परखते रहते हैं कि बाज़ार कहां और किधर जा रहा है, इसका भविष्य कहां है। उनके ही हिसाब से कॉरपोरेट्स अपने पैसे का निवेश करते हैं। ये बाज़ार के भविष्य को भांप सकते हैं और बाज़ार को उस और जाने को प्रेरित कर सकते हैं पर इसका पर्यायवाची नहीं हैं। यूं भी कह सकते हैं कि बाजार हमारे समय का बिग ब्रदर है ('बिग ब्रदर इज वाचिंग यू' टाइप से) और कॉरपोरेट्स इसकी सत्ता के सबसे मजबूत और समर्थ खिलाड़ी।

इन्हीं कॉरपोरेट्स के एक अंग हमारे कल तक के प्रतिबद्ध पत्रकार और आज के मीडिया मुगल हैं। जब तक इनका हित सधेगा और मुनाफा होता रहेगा, रोज़ाना के कामों में हस्तक्षेप नहीं होगा। और चूंकि अभी तक हित सध रहा है, इसलिए हस्तक्षेप नहीं हो रहा है या कम हो रहा है।

चन्द्रिकाजी, आपकी बात सच है कि मीडिया पूरे देश में है, लेकिन हमारा मीडिया राजधानी दिल्ली में हुए एक बलात्कार को तो राष्ट्रीय ख़बर बना देता है पर जब तक नंदीग्राम में गोली नहीं चलती और कुछ लोग शहीद नहीं होते, वो राष्ट्रीय ख़बर नहीं बनती। लेकिन आज भी नई दुनिया या प्रभात खबर हमारे दिल्ली के अख़बारों/टीवी से ज़्यादा अच्छा काम रहे हैं। लेकिन स्थानीय टीवी मीडिया के बारे में ये नहीं कहा जा सकता। मजेदार तथ्य ये है कि टीवी की हाय-हाय इतना होने के बाद भी अखबारों की प्रसार संख्या घटी नहीं है... और भी बढ़ी ही है।

जातिवाद, क्षेत्रवाद, चेलावाद पर इतना ही कहूंगा कि मेरी समझ में इन तीनों के खात्मे की घंटी कम-से-कम अभी तक तो नहीं बजी है और कोई आहट भी इनके जाने की नहीं सुनाई पड़ रही है।

धन्यवाद

2 टिप्‍पणियां:

Shastri JC Philip ने कहा…

आज पहली बार आपके चिट्ठे पर आया एवं आपकी रचनाओं का अस्वादन किया. आप अच्छा लिखते हैं, लेकिन आपकी पोस्टिंग में बहुत समय का अंतराल है. सफल ब्लागिंग के लिये यह जरूरी है कि आप हफ्ते में कम से कम 3 पोस्टिंग करें. अधिकतर सफल चिट्ठाकार हफ्ते में 5 से अधिक पोस्ट करते हं. -- शास्त्री जे सी फिलिप

मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!

खुश ने कहा…

पत्रकारिता की बात पढ़ी तो कुछ बातें लिखने का मेरा भी मन हुआ, सो लिख रहा हूं।
मित्रों ने जो बातें लिखी हैं, उनमें से बहुत सी सही हैं लेकिन जड़ में जाने की कोशिश किसी ने नहीं की।
और जो लोग यह तमाम बातें उठा रहे हैं, उनमें से कई जब अपने दफ्तर में होते होंगे तो अपने सेठ से कभी तर्क नहीं करते होंगे।
अखबार में पूंजी किसकी है और इन सेठों की प्राथमिकता क्या है। ये सेठ हैं गणेशशंकर विद्यार्थी नहीं। इनको जनजागरण नहीं करना है, इन्हें सिर्फ पूंजी बनानी है और साथ में अपना रुतबा। समीर जैन हों या सुधीर अग्रवाल, संजय गुप्ता हों या अतुल माहेश्वरी, समाज किसकी प्राथमिकता है। इनका जो भी कमिटमेंट दिखाई देता है उसकी लक्ष्मणरेखा ऐड रेवेन्यू ही है।

जिन चीजों का स्यापा आज यहां किया जा रहा है, इसके लिए क्या पत्रकार खुद जिम्मेदार नहीं हैं। सबको जवाब देना पड़ेगा।

सरकार की खिलाफत कौन करता है। कोई नहीं, किसी सेठ को एसईजेड चाहिए तो किसी को संसद की कुर्सी। पत्रकारों को भी मलाई चाहिए, कोई घर-जमीन बना रहा है, कोई ट्रांसफर-पोस्टिंग करा रहा है, कोई नौकरी लगवा रहा है तो कोई पुलिसिया रुतबा गांठ रहा है और कुछ नहीं तो कोई गालियां ही दिए जा रहा है कि कभी तो मछली की आंख वेध ही लूंगा और द्रौपदी मिल जाएगी।

राज्य के खिलाफ रिपोर्टिंग नहीं हो रही, कारण यह नहीं है कि राज्य से भरोसा उठ गया है, कारण यह है कि सेठों को राज्य पर अपना भरोसा जमाना है। अब आप देखिए कितना शातिराना ढंग से अखबार के पहले पन्ने से राजनीति को आउट ही कर दिया गया है। और पट्टी यह पढ़ा दी गई कि आम आदमी राजनीति से ऊब गया है। और सुधी पत्रकारगण इस स्थापना का प्रचार-प्रसार भी कर रहे हैं। लेकिन मेरी समझ में नहीं आ रहा कि वह कौन आम आदमी है जो राजनीति की खबर नहीं पढ़ना चाहता। यह तो बिलकुल वैसी ही साजिश है जैसी सत्तर के दशक में पढ़ने-लिखने वालों वालों को राजनीति से दूर रखने के लिए की गई। यह बात सबको रटा दी गई और आज तक उसी का रट्टा मिडिल क्लास लगा रहा है कि राजनीति गंदी चीज है। मुझे तो ऐसा कोई आम आदमी नहीं मिला जो राजनीतिक गतिविधियों को जानना न चाहता हो। राजनीति जो यह तय करती है कि हम सब्जियां रिलायंस फ्रेश से खरीदेंगे या ठेले वाले से, हम गेहूं आस्ट्रेलिया का खाएंगे या अमेरिका का, हम गांधी को हीरो मानेंगे या बालाजी देवरस को, अपने घोड़े के हिस्से की घास की रोटियां बनाकर खा जाने वाले राणाप्रताप को मूल्यों पर मरने वाला वीर मानेंगे और भगतसिंह को आतंकवादी, लेकिन है गंदी। यही हाल पत्रकारिता का है। पत्रकारों में कितने ऐसे हैं जो अच्छे पत्रकारों की एक पीढ़ी खड़ी करने का प्रयत्न कर रहे हों।

बहुत सारे सवाल हैं मेरे दिमाग में। आप लोग जवाब देंगे तो फिर कुछ सवाल रखूंगा।

हो सकता है मेरे दिमाग में गोबर ही भरा हो लेकिन यदि ऐसा भी है तो मुझे पता लगना चाहिए और इसके लिए जरूरी विद्वान पत्रकार लोग जवाब दें।