रविवार, 4 नवंबर 2007

चंद्रशेखर, जेएनयू और आज की छात्र राजनीति-3

इस तीसरी कड़ी में कुछ भी नया नहीं है, बस पिछले दो भागों का समापन है। लेकिन संयोगवश इंटरनेट पर सर्च को दौरान आनंद प्रधानजी का एक पुराना लेख छात्र राजनीति पर मिला। इसके लिंक को साथ जोड़ रहा हूं क्योंकि वो ज्यादा सारगर्भित है।

“Any man who is not a communist at the age of twenty is a fool. Any man who is still a communist at the age of thirty is an even bigger fool.” -George Bernard Shaw

.. धीरेःधीरे मेरे बिना किसी कोशिश के मुझे ABVP का मान लिया गया और तभी मैंने Alternative को तलाशा और ABVP से जुड़ गया। विद्यार्थी परिषद की विचारधारा मेरी आज भी नहीं है और जेएनयू के दिनों में भी परिषद के लोगों से मेरी बहस इसी बात पर होती रही। पता नहीं कितने तरीकों से मुझे संघ की विचारधारा से जोड़ने की कोशिशें हुईं और हर बार वे नाकाम रहे। जो मुझे अच्छा
लगता, वो ही मैं करता। लेकिन पार्टी-पॉलिटिक्स का अंग होने से अब मैं निष्पक्ष नहीं रह गया था और मेरी असहमति के बावजूद विद्यार्थी परिषद के फैसलों से मैं खुद को अलग नहीं कर सकता। हालांकि छात्र राजनीति से जुड़ने के अपने निर्णय से मैं कभी संतुष्ट नहीं रहा और इसलिए छात्रसंघ के चुनावों में सिवाय पहली बार के कभी भी किसी को वोट नहीं दिया (हर बार बैलेट पेपर खाली छोड़ कर आया)।

बाद में तो ये एक प्रकार की हॉबी हो गयी कि कैसे SFI-AISF के लोगों को प्रताड़ित कर सकूं ...बाद-विवाद से, चिल्ला कर, हंगामा कर या उनका मजाक बना कर। मारपीट से निजी तौर पर तो मैं दूर रहा लेकिन शायद मार-पीट की संस्कृति को जेएनयू में बड़े पैमाने पर फैलाने का काम विद्यार्थी परिषद और SFI-AISF के लोगों के बीच हुई झड़पों ने किया। यूं तो मेरे कई दोस्त कम्युनिस्ट थे.. हॉस्टल और कैम्पस दोनों में लेकिन ABVP, SFI-AISF एक-दूसरे को झेलने को एकदम तैयार नहीं थी और हर दूसरी चौथी बात पर मार-पीट होना आम बात हो गयी थी। फिर होता ताकत का प्रदर्शन यानी प्रोसेशन-मशाल जुलूस-डाउन-डाउन का दौर ...

जेएनयू को याद करें तो गंगा ढ़ाबा को नहीं भूला जा सकता है, जो सारी गतिविधियों का केंद्र था। दो-दो, तीन-तीन बजे तक हम वहां बहस करते और अक्सर बहस के लिए बहस करते। लेकिन Polititcal Strategies बंद कमरों में ही बनतीं ।

NSUI जेएनयू में तो Non-Existant थी लेकिन DU में विद्यार्थी परिषद और NSUI के बीच ही सीधा मुकाबला होता था। आश्चर्यजनक ढंग से मैंने अपने को जेएनयू के बाहर की गतिविधियों से बचाये रखा लेकिन मैं मानता हूं कि DU में ABVP-NSUI ने जो गंध मचायी उसने वर्तमान छात्र राजनीति की रीढ़ तोड़ कर रख दी। पैसे का खेल तो DU में पहले भी होता था , लेकिन नंगा नाच उसी समय में शायद शुरू हुआ। देश के बाकी हिस्सों की भांति ही DU में कम्युनिस्ट मुट्ठी भर ही हैं और उस समय भी रहे। एक अच्छे नेतृत्व का अभाव या जेएनयू जैसा क्लोज़्ड कैम्पस न होने की विवशता या DU की Elitist Mentality ... वजह बहुत सारे हैं

और इसलिए वहां साम्यवाद नहीं ठहर पाया, जबकि ABVP या NSUI जैसे छात्र संगठनों का छात्र आंदोलन खड़ा करने की कभी नीयत ही नहीं रही। इन्हें बस वोटर्स चाहिए थे जो पैसे के बल पर खरीदे जा सकें।

इन वोट्स के जरिए अपना भविष्य चमकाने का सबसे बेहतर रास्ता था जेएनयू-डीयू का इलेक्शन। जो जीता वो राष्ट्रीय नेताओं की नजरों में आ जाता और उसका राजनीतिक भविष्य चमकदार हो जाता। ये उस समय भी सत्य था और आज भी सच है। यूथ कांग्रेस का प्रेसीडेंट अशोक तंवर है, जो हमारे समय का ही है और अपनी तमाम अयोग्यताओं के बावजूद NSUI का प्रेसीडेंशिएल कैंडीडेट होता रहा। जेएनयू के लिहाज से उसको बोलना भी नहीं आता था लेकिन अपनी ठेठ राजस्थानी अंदाज के लिए ही वो जाना जाता और हर साल 300-400 वोट बटोर लेता।

क्या आपने कभी छोटे शहरों के या राज्यों के विश्वविद्यालयों के नेताओं को किसी छात्र संगठन का अध्यक्ष बना देखा है ? पैसा फेंको, तमाशा देखो ये उस समय भी सच था और आज भी है। अंतर बस इतना है कि उस समय केंद्र में BJP का बोलबाला था तो ABVP की तूती बोलती थी और आज जब कांग्रेस का जमाना है तो NSUI आग मूत रही है।

ये उस समय का भी सच था और आज भी है। सिद्धांत शायद जेएनयू में ही बघारे जाते हैं। कलकत्ता या तिरूअनंतपुरम में आप जैसे CPM-CPI के खिलाफ नहीं बोल सकते, वैसे ही SFI-AISF के खिलाफ भी नहीं।

ये भी एक सच है कि मेरे विद्यार्थी जीवन में कुछ जगहों को छोड़ कर छात्र आंदोलन कभी था ही नहीं, कहीं था ही नहीं। जेएनयू, डीयू, एएमयू, बीएचयू, मैसूर, शायद उत्कल विश्वविद्यालय या ऐसी कुछ और जगहें।

इन जगहों में छात्र संगठन बस दंगा-फसाद खड़ा करना जानते थे और आज भी यही करते हैं। पटना, इलाहाबाद में NSUI, ABVP, AISA, SFI वगैरह हैं तो लेकिन इनकी लोकप्रियता छात्रों के बीच नहीं है। इन जगहों पर या अतीत के इन जैसे गौरवशाली पृष्ठों पर अब बस वो ही लोग छात्र राजनीति से जुड़ते हैं जो जिंदगी में और कुछ नहीं करना चाहते। इनसे आप बहस, वाद-विवाद की उम्मीद नहीं कर सकते.. हां, मारना-काटना, बम फोड़ना हो तो इन्हें बताएं। चाकू-छुरे-कट्टे इनके लिए पुराने हो गए.. इनसे आप बाकायदा रिवॉल्वर की मांग कर सकते हैं।

जेएनयू में बहस की परंपरा थी और खास कर चुनावों के समय तो ये चरम पर होता। प्रेसीडेंशिएल डिबेट को सुनना एक साथ कई अनुभवों से गुजरना होता था। लेकिन जेएनयू की इस गौरवशाली परंपरा के अवसान के चिह्न हमारे समय में ही दिखने लगे थे, जब कैंडीडेट्स बहस के बजाय चिल्लाने ज्यादा लगे थे और जिनकी बातों का कोई सर-पैर नहीं होता था। आज के जेएनयू में यदि आप गल्ती से प्रेसीडेंशिएल डिबेट के दिन चले जाएं तो आप इसे खुद भी परख सकते हैं। फिर भी हमारे जैसे लोग आज भी वहां जाते हैं क्योंकि वो डाउन-डाउन, वो मार्च ऑन-मार्च ऑन आज भी हमारे खून को थोड़ी देर के लिए ही सही पर उबाल देता है। एक दूसरा आकर्षण भी होता है कि अपने समय के लोग मिल जाते हैं और उस जमाने में हम जिसे गाली देते थे, अब उनसे गलबहियां डाल कर चाय पीते हैं। ये कहीं और नहीं होता।

डीयू जैसी जगहों पर जब हम कैम्पेनिंग के लिए जाते तो लोग हमारी और ऐसे देखते कि जैसे हम किसी अजायबघर से उठ कर आए हैं।

लेकिन ये एक सच था आज भी उन यादों को जीना अच्छा लगता है और वे ही बेचैनियां आज भी बेकरार करती रहती हैं।

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फुटनोट

मैं छात्र राजनीति को किसी दिशा देने की वकालत नहीं कर रहा हूं। मुझे साफ-साफ लगता है कि जिस हिसाब से समाज में खुलापन बढ रहा है, उस में हम सब इतने असंवेदनशील होते जा रहे हैं कि हम पर किसी भी बात का फर्क ही नहीं पड़ने वाला। जाहिर तौर पर छात्र भी इसके अपवाद नहीं हैं, बल्कि वे ही इसे पूरे जोर-शोर से आगे बढ़ा रहे हैं।

एक असंवेदनशील समाज की ओर हम सब बढ़ रहे हैं, जिसमें अपनापन बिल्कुल भी नहीं है, दूसरे की बात सुनने का धैर्य नहीं है.. केवल, और केवल अपनी बात हम सब सुनना-सुनाना चाहते हैं। शायद यही वजह है कि मेरी पीढी और मेरे बाद की पीढी के लिए राजनीति अब उतना बड़ा आकर्षण नहीं रह गया है जैसा कभी पहले हुआ करता था। शायद इसीलिए अब जेएनयू जैसी जगहों में भी बहस की परंपरा खत्म हो गई है।

अब तो जेएनयू के प्रेसीडेंशिएल डिबेट में भी कैंडीडेट्स बोलते कम हैं, चिल्लाते ज्यादा हैं (आम जिंदगी के माफिक ही) और जो बातें बातचीत के जरिए हल हो सकती हैं, उस पर हाथ उठाना आम होता जा रहा है। 2 नवंबर को जेएनयू में चुनाव हुए और 31 अक्टूबर को प्रेसीडेंशिएल डिबेट सुनने मैं कई सालों के बाद गया था। उम्मीदवारों का स्तर या भाषण की शैली देख कर वहां से भाग आया। फिर बाद में सुना कि डिबेट के दौरान ही मारपीट हो गयी और पहली बार डिबेट अधूरा छूटा। राम के नाम पर हंगामा करने वाला ब्रिगेड हमारा था यानी ABVP का , जिससे कभी मैं जुड़ा था।

लेकिन हमारे समय से ही लोग भूलने लगे थे कि जेएनयू में छात्रों ने विद्यार्थी परिषद को क्यों आगे बढ़ने का मौका दिया था। मार-पीट हमारे समय की ही देन थी और मेरे जेएनयू छोड़ते-छोड़ते (2002) ABVP का हर सदस्य नेता बन चुका था या अपने को ऐसा दिखाता था। केंद्र में भाजपा की सरकार इसकी एक बड़ी वजह थी। और मेरे जैसे कई लोग ABVP से कटने लगे थे क्योंकि सत्ता ने इसे भी भ्रष्ट कर दिया था और जिन मुद्दों पर हम आगे बढ़े थे, हम उसे भूलने लगे थे या भूल चुके थे।

आख़िर में भी विद्यार्थी परिषद की चर्चा बस इसलिए की ताकि प्रेसीडेंशिएल डिबेट के दौरान हुए पत्थरबाजी की वारदात का बैकग्राउंड समझ में आ सके।

समाप्त

1 टिप्पणी:

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छा है। खासकर फ़ुटनोट!