रविवार, 4 नवंबर 2007

चंद्रशेखर, जेएनयू और आज की छात्र राजनीति-2

इस प्रसंग की दूसरी कड़ी मेरे जेएनयू के राजनीतिक अनुभव हैं, संक्षेप में जेएनयू जैसा मैंने देखा, मैंने जिया (पढ़ाई के अलावा)। ये मेरे अनुभव हैं और इन पर किसी से उलझने की इच्छा भी नहीं है और खुद को ईमानदार दिखाने की कोशिश भी नहीं। बस मैं उस दौर को याद कर रहा हूं.. और कुछ नहीं

भाग-2

AISA द्वारा खाली किए गए प्लेटफॉर्म को भरा ABVP ने। SFI-AISF तो हमेशा से एक तरफ थी और दूसरी तरफ AISA, ABVP, NSUI आते रहे।

खैर, तो हमारा समय वही था, जब AISA मृतप्राय थी और नए लोग, जो कुछ कर गुजरने का जज्बा रखते थे, युवावस्था के आवेश से लबालब थे.. उन्हें ABVP के रूप में एक प्लेटफॉर्म मिला। इसीलिए चंद्रशेखर के शहीद होने के बाद ABVP जेएनयू में इतनी मुखर हो कर आयी और लोग उससे जुड़े भी। देशभर में ABVP चाहे जो भी करती रही हो पर जेएनयू में स्थानीय मुद्दों को वापस ले कर ABVP ही आयी। और ये भी सच है कि ABVP की कुख्यात छवि के चलते ही छात्राएं फिर भी कई सालों तक ABVP के पक्ष में खुल कर आने से डरती रहीं।

ABVP को मैं इतनी जगह दे रहा हूं क्योंकि मेरा दौर वही था। हमारे जैसे लोगों को एक Aletrnative Platform की तलाश थी। कविता कृष्णन से प्रभावित होने के बाद भी जिसे AISA के बाकी लोगों से निराशा ही हाथ लगी थी। हमारे जैसे लोग जो SFI-AISF (CPM-CPI के छात्र संगठन) के दोगलेपन का मुंहतोड़ जबाव देना चाहते थे, वो ABVP से जुड़ गए।

SFI-AISF के लोगों को क्यों मैं दोगला मानता हूं (हो सकता है कि दोगला शब्द के मेरे चयन से लोग सहमत नहीं हों, ये उनकी मर्जी)॥ जेएनयू में मूल रूप से वाम विचारधारा का बोलबाला रहा है और हमारा समय भी उन्हीं में से था। एक तरफ थी चंद्रशेखर की शहादत के बाद विक्षिप्त AISA जो अपने भूत में जी रही थी, दूसरी तरफ थी SFI-AISF और इसके एक बहुत छोटे से तीसरे कोने में हम सब जो SFI-AISF के वर्चस्व को खत्म करना चाहते थे। SFI-AISF के हमारे समय के लीडर कहने को तो कम्युनिस्ट थे लेकिन उनका अंदाज किसी जमींदार से कम नहीं था। अनुशासन के नाम पर छात्रों को डरा-धमका कर रखा जाता था, किसी ने यदि उनके खिलाफ कुछ बोल दिया तो उसे लुम्पेन का खिताब तो वे ऐसे देते थे कि बस .. । और एडमिशन के समय में जो उनका कैडर नहीं बना, उनको उनके प्रोफेसर्स के जरिए भी धमकाने की कोशिशें होती थीं। उन्हें लगता था कि जेएनयू उनकी बपौती है।

मैं जेएनयू में जब आया था तो शुरूआती कुछ महीनों तक किसी भी पार्टी से नहीं जुड़ा, लोगों को और उस कैम्पस को समझने की कोशिश ही कर रहा था। और फिर अचानक एक दिन मुझे लुम्पेन की केटेगरी में डाल दिया गया क्योंकि मारपीट की एक वारदात हुई और मेर कुछ दोस्त/सीनियर्स उसमें शामिल थे। मैं तो उस जगह पर था भी नहीं लेकिन मुझे वो तमगा दे दिया गया। इसकी एक वजह ये भी थी कि हमारा सेंटर ऑफ रशियन स्टडीज़ आम तौर पर ABVP के वोट बैंक के तौर पर गिना जाता था। खैर, उसके बाद से मैं उस तमगे को जब तक जेएनयू में रहा पूरे शान से सीने पर लगाये घूमता रहा।

उस समय मैं AISA को खंगाल रहा था लेकिन कविता के अलावा कोई ऐसा दिखा नहीं जो सही मायने में क्रांतिकारी विचारों को जीवन में भी उतार रहा हो। फिर मुझे मेरे अनजाने में ABVP से जोड़ा जा चुका था और AISA मुझे लेने को तैयार नहीं था।

SFI-AISF के लोगों की राजनीति नाम के लिए तो कम्युनिस्ट थी लेकिन जब चुनाव के दिन आते तो छात्रों को दलित, मुस्लिम के नाम पर जोड़ने की हर संभव कोशिशें होतीं। फतवे जारी किए जाते, वैसे लोगों को चुन-चुन कर पैनल में रखा जाता जो दलित या मुस्लिम होते थे। सेंट्रल पैनल के चार नाम में एक लड़की, एक दलित और एक मुस्लिम नाम जरूर होते थे, जबकि स्कूल पैनल्स में दो मुस्लिम या दो दलित या ऐसा ही कंबीनेशन बनाया जाता। ये कोई अपलिफ्टमेंट के लिए नहीं, एपीज़मेंट के लिए होता था, ताकि वोट खींचे जा सकें। जाहिर तौर पर ये काफी सफल फॉर्मूला था।

लेकिन विचारधारा की बात करने वाले, मार्क्स-एंजेल्स की माला जपने वालों का ये रुप मैं नहीं झेल पाया। एक और बात थी कि SFI-AISF के नेता थे तो कम्युनिस्ट पर जूते एडीडास, रिबॉक या बड़े चमक-दमक वाले पहनते थे, जमींदारों-सा रहन-सहन था, JRF के पैसों से उनके कमरों में 600-800 वॉट के म्यूजिक प्लेयर बड़ी आम बात थी। शुरूआती दिनों में उनका पहनावा वही कुर्ता और जींस होता था, लेकिन 2000 आते-आते ये भी बदल गया और उनके पास अब बाइक होना भी आम हो गया।

मेरे लिए ये मुश्किल था। घर से 1500 रुपये मिलते थे और इतने पैसों में भी बचाने की प्रवृत्ति हावी थी (हालांकि मैं आर्थिक रुप से किसी कमजोर परिवार से नहीं था और जेएनयू में रहने वाले के लिए 1500 रुपये साधारण ढंग से रहने वाले के लिए बहुत थे)। लेकिन फिर भी मुझे आश्चर्य होता था कि ये कैसे संभव है ? लोगों के पास इतने पैसे कहां से आते हैं कि इतने ऐश के साथ रह सकें और साथ ही घिन भी होती सर्वहारा की बात करने वालों के जीवन के रूप देख कर।

संयोगवश ये वे ही दिन थे, जब भारत की अर्थव्यवस्था ने विकास की रफ्तार (आंकड़ों के मुताबिक) पकड़नी शुरू की थी, पब्लिक सेक्टर कंपनियों का बोलबाला समाप्ति पर था, निजी औऱ बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने घरों के दरवाजों पर दस्तक देनी शुरू कर दी थी और टीवी सिनेमा का मजबूत विकल्प बन कर सामने आने लगा था। विदेशों से हमारी नजदीकियां बढ़ने लगीं थी और एमटीवी जैसे चैनल खुलने लगे थे।

जाहिर सी बात है कि दिल्ली के भीतर हो कर भी दिल्ली से कटा रहने वाला जेएनयू भी इससे अछूता नहीं था और बदलाव की ये बयार Day Scholars ला रहे थे यानी वो जो दिल्ली के रहने वाले थे। राजनीतिक रूप से पता नहीं क्यों पर इनमें कोई अपवाद ही होता जो वामपंथियों से जुड़ता और ABVP को जेएनयू में जगह दिलाने में इनका बड़ा योगदान था।

उस समय ABVP दिल्ली यूनिवर्सिटी में भी हावी थी और देश की राजनीति में BJP और वाजपेयी।

4 टिप्‍पणियां:

अनूप शुक्ल ने कहा…

आगे पढ़ने का मन है। अच्छा लिखा। :)

अनूप शुक्ल ने कहा…

आगे पढ़ने का मन है। अच्छा लिखा। :)

राजेश कुमार ने कहा…

कॉलेज में चुनाव ही नहीं होने चाहिये।

ALOK PURANIK ने कहा…

प्यारे दुकानें हैं भांति भांति की। इसकी चिरकुटई से थक जाओ, तो वहां चले जाओ। हमाम में सारे नंगे हैं, कुछ कम हैं कुछ ज्यादा हैं। बहुत ज्यादा उम्मीद लगाकर नाउम्मीदी ही होती है।
जेएनयू में कुछ बात है जरुर। वहां की हवा में कुछ बात है जरुर। एक से एक चिरकुट, एक से एक जीनियस, एक से एक विकट, एक से एक फ्राड सारे वहां पे देखे जा सकते हैं। अपने एक्सट्रीम पर, डीयू में एक्सट्रीम नहीं दिखते, हिसाबी किताबी दिखते हैं। पर अगले दस सालों में जेएनयू भी डीयू जैसा हो लेगा।