रविवार, 4 नवंबर 2007

चंद्रशेखर, जेएनयू और आज की छात्र राजनीति

पिछ्ले दिनों दिलीपजी और अनिलजी के बीच समकालीन जनमत के जरिए हुआ शास्त्रार्थ। विचारधारा से मेरा तो बाल विवाह नहीं हुआ लेकिन उस पर क्रश जरूर था और आज भी ये बरकरार है। बहरहाल, इसी शास्त्रार्थ के चलते प्रणय कृष्ण का चंद्रशेखर पर लिखा लेख फिर से पढ़ने को मिला और जाहिर तौर पर इसने कुछ पुराने घाव उभार दिए। ऐसे घाव जिन्हें कुरेदना बहुता अच्छा लगता है और अपने सपनों के बारे में सोचने को विवश करता है। चंद्रशेखर के बारे में पढ़ते हुए ये लिखना शुरू किया था और फिर पता चला कि इन दिनों जेएनयू में चुनावों का मौसम चल रहा है। ऐसे में अपने दौर को याद करने का मौका भला कैसे छोड़ा जा सकता है। तो तीन हिस्सों में इसे प्रकाशित कर रहा हूं।

भाग-1


" शहीद हो जाने के बाद भी चंदू ने अपनी आदत छोड़ी नहीं है। चंदू हर रोज हमारी चेतना के थकने का इंतजार करते हैं और अवचेतन की खिड़की में दाखिल हो जाते हैं। हमारा अवचेतन जाने कितने लोगों की मौत हमें बारी-बारी से दिखाता है और चंदू को जिंदा रखता है। "

"चंद्रशेखर बेहद धीरज के साथ स्थितियों को देखते, लेकिन पानी को नाक के ऊपर जाते देख वे बारूद की तरह फट पड़ते। "

मैं कॉमरेड चंद्रशेखर को चंदू नहीं कह सकता क्योंकि मैने उन्हें नहीं देखा, हां उनके बारे में जानने की कोशिशें खूब की हैं। पता नहीं कितने तरह के लोगों से चंद्रशेखर के बारे में जानने की कोशिशें की हैं और उन कोशिशों से बनी समझ तो यही है कि चंद्रशेखर जैसा नेता शायद आजाद भारत को नहीं मिला। ये वो शख्स था, जिसने नेता की अवधारणा को अपने कर्मों से सही कर दिखाया था। प्रणय कृष्ण का चंद्रशेखर वाला लेख पहले भी पढ़ा था और एक बार फिर से इसे पढ़ कर अतीत की कई स्मृतियों ताजा हो गयीं। प्रणय कृष्ण ने बहुत ईमानदारी से चंद्रशेखर को चित्रित किया है। ये शायद चंद्रशेखर के साथ काम करने का परिणाम है या क्या ये नहीं जानता, नहीं मालूम कि प्रणय कृष्ण में आज भी (उन्हीं दिनों जैसी) आग बची हुई है या नहीं, क्योंकि आज के जो AISA (CPI-ML का छात्र संगठन) के लोग हैं, वो तो बस चंद्रशेखर के नाम की माला ही जपते हैं, करते कुछ नहीं ।

ये एक बहुत बड़ा सच है कि चंद्रशेखर के प्रभाव का अवसान उनके जाने के (शहादत के) साथ ही शुरू हो गया था। आज इतने सालों बाद सोचता हूं तो एक अजीब-सा विचार बार-बार कौधता है कि क्या चंद्रशेखर के साथियों ने चंद्रशेखर के साथ दगा नहीं किया ? पता नहीं सच क्या है, लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि चंद्रशेखर जिन विचारों, जिन आदर्शों के लिए लड़े.. उन्हें उनके साथियों ने उनकी मौत के साथ ही तिलांजलि दे दी।

जेएनयू के हिसाब से में उस पीढ़ी का हूं जो चंद्रशेखर के गुजरने के साथ ही जेएनयू में आया। ये मेरा तो दुर्भाग्य था ही कि मुझे चंद्रशेखर से मिलने का मौका नहीं मिला। लेकिन उनके जिन-जिन साथियों से मैं मिल पाया जेएनयू में, सिवाय एक-दो के बाकी सबसे निराश ही हुआ। कुछेक दिन ही हुए थे जेएनयू में जब JNUSU के चुनाव हुए और कविता कृष्णन खड़ीं थीं प्रेसीडेंट के लिए। कसम से मैंने उनके जैसा स्पीकर आज तक नहीं देखा। लोग कहते थे कि चंद्रशेखर को काश तुमने सुना होता लेकिन मैंने अपनी जिंदगी का पहला वोट केवल उस भाषण पर कविता को दिया था। उसके बाद भी केवल कविता को ही मैंने पाया सही मायनों में चंद्रशेखर की विरासत का प्रतिनिधित्व करते हुए। बाकी के तो AISA के जो लोग थे वो कमोबेश उसी हालत मे दिख रहे थे, जैसे कि आजकल भाजपा दिखती है.. सत्ता से बाहर बौखलाए हुए लोगों का झुंड, जिन्हें इतने सालों बाद भी नहीं पता चला कि आखिर वो कैसे सत्ता से बाहर हो गए या जिन्हें लगता है कि सत्ता तो बस उन्हीं का जन्मसिद्ध अधिकार है। जेएनयू में JNUSU का प्रेसीडेंट जिस पार्टी का हो, उसे लगता है कि जैसे वो एक पूरे देश पर राज कर रहे हैं और उनकी शान किसी राजा या प्रधानमंत्री से कहीं कम नहीं होती.. आज भी नहीं।

हमारे समय में तो AISA अर्द्धविक्षिप्त थी जेएनयू में और सिवाय कुछ नारों के (जला दो, मिटा दो या चंदू, भगतसिंह.. वी शैल फाइट, वी शैल विन) के अलावा उनके पास कुछ भी ऐसा नहीं था जिसे सृजनात्मक (CONSTRUCTIVE) कहा जा सके। ये वो पार्टी थी जो लड़ती तो छात्रों के लिए थी लेकिन छात्रों को देने के लिए उसके पास अमेरिकन इंपीरियलिज्म, विश्व बैंक, ग्लोबलाइजेशन या ऐसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर लफ्फाजी के कुछ नहीं था।

शायद यहीं चंद्रशेखर AISA से अलग थे। चंद्रशेखर ने केवल अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को ही नहीं समझा, स्थानीय मुद्दों को भी समझा और इन मुद्दों पर लोगों को अपने से जोड़ा। और इन मुद्दों पर लोगों को साथ लाने के बाद उन्हें देशी-विदेशी बातों से जोड़ा .. समझाया कि इन बातों को जानना क्यों उनके लिए जरूरी है। ऐसे भी जब तक हमारी दैनिक जरूरतें पूरी नहीं होतीं, हम साफ्ताहिक, मासिक या सालाना मुद्दों के बारे में नहीं सोचते.. राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के बारे में हम तभी सोचते हैं जब हमारी स्थानीय आवश्यकताएं पूरी हो जाएं। AISA के लोग, चंद्रशेखर के परवर्ती लोग ये नहीं कर सके। केवल चंद्रशेखर की दुहाई देते रहे, दारू के ग्लास भर-भर कर, आंखें लाल कर-कर के दुनिया-जहान के मुद्दों पर बहस करते रहे। और शायद इसीलिए चंद्रशेखर के बाद AISA जेएनयू में, अपने ही घर में नहीं टिक पायी।

2 टिप्‍पणियां:

अनिल रघुराज ने कहा…

बात अच्छी बोल रही है। इन तथ्यों पर गौर करने की जरूरत है खासकर उनको जो चंद्रशेखर की विरासत को संभाले हुए हैं।

अनूप शुक्ल ने कहा…

बेहतरीन लेख। तीसरे भाग का इंतजार है।