गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे का समर्थन क्यों जरूरी है?

मैं कोई क्रांतिकारी नहीं हूं, क्रांतिद्रष्टा कवि नहीं हूं, टाटा-बिड़ला-अंबानी के घर पैदा नहीं हुआ। इस देश का एक अदना सा नागरिक हूं और धर्म, जाति, राजनीति - ये सब मेरे लिए निजी आस्था-अनास्था का विषय है। मैं इन सब पर बात भी नहीं करना चाहता हूं। फिर भी, मुझे लगता है कि मुझे अन्ना हजारे की मुहिम का समर्थन करना चाहिए।


क्यों?

ये एक ऐसा सवाल है जिससे मैं जूझ रहा हूं, उत्तर नहीं है मेरे पास। बहुत ऊहापोह है मन में। फिर भी लगता है कि मुझे समर्थन करना चाहिए। मुझे पता है कि अन्ना साहेब ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक जन लोकपाल विधेयक को सरकारी स्वीकृति दिलाने के लिए आमरण अनशन शुरू किया है और इस बात को बीते दो दिन हो चुके हैं। मुझे ये भी मालूम है कि सरकारी तंत्र, राजनीतिक तंत्र इससे बौखलाया हुआ है। मुझे ये भी मालूम है कि मीडिया को अगले कुछ दिनों के लिए बढ़िया मसाला मिल गया है और चैनलों से लेकर अखबारों तक, अखबारों से लेकर इंटरनेट जैसे न्यू मीडिया माध्यमों तक ये तमाशा अगले कुछ दिनों तक चलता रहेगा।


लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि मुझे इस मुहिम का समर्थन करना चाहिए। न केवल इस मुहिम का, बल्कि अन्याय और अत्याचार के खिलाफ चलने वाले हर मुहिम का। चाहे वो किसी भी रंग-रूप में सामने आए पर अगर मुझे लग
ता है तो लगता है। मैं करूंगा, जरूर समर्थन करूंगा, कर रहा हूं, करता रहूंगा।

अन्ना हजारे साहब भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं, हो सकता है कि उनका भी अपना कोई एजेंडा हो और उसके तहत वो काम कर रहे हों (नहीं तो इतने दिनों बाद दिल्ली में अनशन करने की उन्हें एकाएक क्यों सूझी?)। अपने कुछ मित्रों की दलील दूं तो इस आंदोलन से अन्ना क्या उखाड़ लेंगे? भ्रष्टाचार तो यूं ही बना रहेगा, भले ही प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति उसके दायरे में आ जाएं। बात सही है। फिर भी मैं समर्थन करता हूं इस मुहिम का।

क्यों? इसलिए कि इसमें मुझे एक शुरूआत दिखती है .. शुरूआत दिखती है देश की समस्याओं से लड़ने के प्रति। हम सब इतने जड़ हो गए हैं कि हमारा दायरा अपने-आप तक सीमित होता चला गया है, मैं..मेरी पत्नी..बच्चे..परिवारजन..मित्र वर्ग..दफ्तर। हमारी दुनिया यहीं तक सीमित हो गयी है .. इससे आगे हम सोच ही नहीं पाते।

हम देख रहे हैं कि हमारे सामने कुछ गलत हो रहा है और हम उसके खिलाफ आवाज नहीं उठाते। हम प्रतीक्षा में बैठे हैं कि कोई महापुरूष आएंगे और हमारी सारी व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक समस्याओं का समाधान कर देंगे। शायद तभी इस देश में महापुरूषों की संख्या कुछ ज्यादा ही हैं और शायद इसीलिए भगवानों ने भी कई अवतार लिए। व्यक्तिपूजा की परंपरा वाले इस देश में अभी भी यही तो चल रहा है, भले ही उसका स्वरूप कुछ अलग हो गया हो।

लेकिन मैं केवल शुरूआत तक रूकना नहीं चाहता। मेरी आंकाक्षाएं इससे कई ज्यादा गुनी बड़ी हैं। मैं चाहता हूं कि भ्रष्टाचार के नाम पर शुरू हुई ये मुहिम और व्यापक रूप ले, इतना व्यापक बने कि ये ब्लैक होल बन जाए और समस्याएं इस ब्लैक होल में विलीन हो जाएं। समस्याएं तो यूं ही सुरसा की तरह अपना मुंह फाड़े खड़ी रहेंगी, लेकिन उन्हें सुलझाने के बजाय हम उनसे कतरा के निकल जाते हैं। मैं उम्मीद लगाए बैठा हूं कि ये शुरूआत एक नव जन-जागरण के रूप में बदले और इसी नव जन-जागरण की जरूरत इस वक्त हमें सबसे ज्यादा है। मैं चाहता हूं कि ये शुरूआत एक नए जन-आंदोलन का रूप ले, पुरानी सारी मान्यताओं, पुरानी सारी परंपराओं को ध्वस्त कर दे। मैं चाहता हूं कि ये एक नई भाषा का सृजन करे, नए समाज की स्थापना करे, नए युग का मार्ग प्रशस्त करे।

लेकिन मैं निराश भी हूं। मेरे अनुभव कहते हैं कि ये मुहिम भले ही सफल हो जाए पर इससे फायदा नहीं होने वाला है। व्यर्थ की आशा रखने से कोई फायदा नहीं होने वाला। मैं दो दिनों से जंतर-मंतर जा रहा हूं, उस नव की तलाश में जिसकी बात मैं कर रहा हूं। मैं दो दिनों से उस नव की एक किरण वहां जाकर ढूंढ़ता रहा हूं, निराश और क्षुब्ध हो कर लौटता रहा हूं।

जंतर-मंतर जाकर लगता है कि ये बस एक भीड़ है, कि यहां कुछ लोग अपने एजेंडे के साथ मौजूद हैं और उसे पूरा करवाने के लिए उन्होंने ये छद्म भेष धारण कर रखा है। मुझे आशा की कोई एक किरण अबतक नहीं दिखी। जंतर-मंतर जाता हूं तो लगता है कि जैसे किसी मेले में चला आया हूं जहां लोग उत्सव मना रहे हैं।

नहीं तो क्या कारण है कि अन्ना हजारे जैसा शख्स, जिसने अपना जीवन लोगों का भला करने में बिता दिया हो, उसे ये आंदोलन करने के लिए दिल्ली आना पड़ता। अन्ना अहमदनगर में होते हुए भी ये आंदोलन कर सकते थे। लेकिन नहीं, तब शायद उन्हें वो प्रसिद्धि, वो विज्ञापन नहीं मिलता जो सत्ता तंत्र के करीब आकर मिल रहा है। दिल्ली में आंदोलन करने का मतलब है कि आप सत्ता तंत्र से जो चाहते हैं, उसको विज्ञापित कर रहे हैं और लोगों को भुलावे में रख कर अपना हित साध रहे हैं।

दिल्ली में सत्ता तंत्र है, मीडिया की चकाचौंध है, खा-खा कर उबे हुए लोगों की फौज है। इन्हें ही तो ये मैसेज दिया जा रहा है कि चाहे जितना खाओ पर नाम के लिए ही सही पर उसे एक कानून के दायरे में लाओ। नहीं तो क्या कारण है कि इस आंदोलन के साथ पूरे देश की जनता आ के खड़ी नहीं हुई। नहीं तो क्या कारण है कि मुहिम के समर्थकों से ज्यादा जंतर-मंतर पर मीडिया और पेज-थ्री-एनजीओ वालों की भीड़ है।

होना तो ये चाहिए था कि अगर अन्ना हजारे साहब आमरण अनशन पर बैठ रहे हैं, तो देश के हर कोने में इस तरह के मुहिम की शुरूआत की जाती। छोटी-छोटी शुरूआत, पांच लोगों से, दस लोगों से। हर राज्य की राजधानी में, हर शहर में, हर कस्बे में छोटे-छोटे जन-आंदोलनों से इसकी शुरूआत की जाती और एक से भले दो, दो से भले चार की तर्ज पर लोगों को जोड़ते हुए इसे एक ऐसा रूप दिया जाता कि अहमदनगर में बैठे अन्ना हजारे से ही सत्ता तंत्र डर जाता।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ, न ही ऐसा होता हुआ दिख रहा है। तभी तो अन्ना साहेब को दिल्ली आना पड़ा। शायद आंदोलन की कमजोर जड़ के कारण ही इस मुहिम के समर्थन में पूरा महाराष्ट्र भी खड़ा हुआ नजर नहीं आता (अन्ना साहेब जहां के रहने वाले हैं)।

होना ये चाहिए था कि इसे एक विशाल जन-आंदोलन की भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया जाता और विभिन्न मुद्दों को एक मंच पर लाने की एक ईमानदार पहल की जाती। लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है, ना ही किसी के मन में ऐसी कोई भावना नजर आ रही है।

ये आंदोलन तो फिलहाल पेज-थ्री-एनजीओज की जकड़ में लगता है, बड़े-बड़े लोग आते हैं, भाषण देते हैं, क्रांति के गीत गाते हैं और चले जाते हैं। मुझे तो ऐसे भी लोग मिले जंतर-मतंर पर पिछले दो दिनों में, जिनके मुंह से दिन में भी शराब की गंध आ रही थी। और ऐसे लोगों की संख्या तो बहुत ज्यादा थी जो मंच के ठीक सामने की दुकानों से पानी खरीद-खरीद कर पी रहे थे और उन्हें वो एक रूपये में एक ग्लास पानी बेचने वाला नजर नहीं आ रहा था। लोग गर्मी को दूर करने के लिए कोक-पेप्सी पी रहे थे। मैं उनकी बात नहीं कर रहा जो मेरी तरह महज तमाशबीन थे, मैं उनकी बात कर रहा हूं जो इस आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता हैं, इस आंदोलन के बैच लगाए घूम रहे हैं या फिर इस आंदोलन से सहानुभूति रखने का दावा कर रहे हैं। इस आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता पोज बना-बना कर टीवी चैनलों को इंटरव्यू दे रहे थे। ऐसे में, एक नई शुरूआत भला खाक होगी।

मैंने कुछ मित्रों को अपने विचारों से अवगत कराने की कोशिश की तो उन्होंने इसे हंस कर टाल देना बेहतर समझा। इस आंदोलन के बारे में मेरी समझ तो यही कहती है कि ये जमीन से जुड़ने के बजाय मीडिया और पेज-थ्री-एनजीओज से ज्यादा जुड़ा हुआ है और इसके जरिए ज्यादातर लोग अपना फायदा सोच रहे हैं। भविष्य की स्पष्ट रूप-रेखा मुझे तो किसी के भी पास नहीं मिली है अबतक।

अपने पत्रकार मित्रों की बात करें तो उनमें बहुत थोड़े हैं जिन्हें इस मुहिम के मकसद से कुछ लेना-देना है। ज्यादातर तो दिन भर चलने वाले तमाशे की कवरेज कर रहे हैं। वे इसे कवर कर रहे हैं, क्योंकि उनका बॉस चाहता है। बॉस चाहता है क्योंकि इससे उसे कुछ दिनों के लिए एक तमाशा मिल रहा है और वो भी बिना मेहनत के। अखबारों के पहले पन्ने से लेकर न्यूज चैनलों के पैकेज और टॉक-शोज़ तक - "आज अन्ना के अनशन का दूसरा दिन है और आप देख रहे हैं कि मंच पर अन्ना लेटे हुए हैं, उनके साथ स्वामी अग्निवेश हैं, दिन में उमा भारती भी आईँ थीं, किरण बेदी और केजरीवाल साहब तो कल से ही यहां डटे हुए हैं।"


मुझे मालूम है कि ये चार दिनों का तमाशा है और उसके बाद सबके ओ.बी वैन चले जाएंगे, इक्का-दुक्का रिपोर्टर बच जाएंगे, ये खबर अखबारों के पहले पन्ने से उतर कर भीतर के पन्नों में कहीं गुम हो जाएगी। खुदा-ना-खास्ता, अगर अनशन 12-13 दिनों से ज्यादा चला तो ये सारा मीडियावर्ग लौट कर आ जाएगा और कहेगा कि "सरकार की बेरूखी की वजह से अन्ना मौत के कगार पर। 12 दिनों से अन्न का एक दाना नहीं लिया है अन्ना हजारे ने और पत्थरदिल सरकार के कान में जूं तक नहीं रेंग रही" । लेकिन इस बीच में कोई नहीं झांकने आएगा, कोई स्टूडियो डिस्कशन इस पर नहीं होगा, कोई संपादकीय इस पर नहीं लिखा जाएगा।

लेकिन फिर भी मैं इस मुहिम का, इस आंदोलन का समर्थन करता हूं। मुझे आशा की एक किरण दिखी है, लोगों को उनकी जड़ता से निकालने का एक बेहतरीन मौका दिख रहा है।

सवाल ये है कि हम इस मौके का कैसे उपयोग करते हैं .. एक व्यापक जन-आंदोलन का रूप देकर या इसे बस एक विषय तक ही लिमिटेड रख कर। अपनी सारी नकारात्मकताओं के बावजूद मैं इसे एक नई और अच्छी शुरूआत मानता हूं, चाहता हूं कि ये शुरूआत एक व्यापक रूप ले और देश के कोने-कोने में फैल जाए। ये होता नहीं दिख रहा है, लेकिन मैं फिर भी उम्मीद लगाए बैठा हूं। ये आशावाद मैं आने वाले दिनों में भी बरकरार रखने की कोशिश करूंगा, हर दिन जंतर-मंतर जाऊंगा उस एक किरण की उम्मीद में, जिसकी आस मैं लगाए बैठा हूं।

और इसीलिए मैं इस मुहिम का समर्थन करता हूं, इसीलिए मैं कहता हूं कि हम सब लोगों को अन्ना हजारे के इस आंदोलन का समर्थन करना चाहिए। महापुरूषों के इस देश में सबसे ज्यादा अकाल इस वक्त महापुरूषों का ही है। हमारे महानायक इस वक्त अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर और एम एस धोनी जैसे लोग हैं, जिन्होंने शायद ही भूख, अकाल और गरीबी देखी होगी।

हम सब अपने-अपने महापुरूष के आने का इंतजार कर रहे हैं। ऐसे में, मैं मानता हूं कि अन्ना हजारे जैसा शख्स हमारे युग का महापुरूष है और अगर ये शख्स भी इस देश को, इस देश के लोगों को जड़ता, किंकर्त्वयविमूढ़ता की स्थिति से बाहर नहीं निकाल पाया तो पता नहीं फिर ऐसे दिन, ऐसे मौके फिर कब लौट कर आएंगे।

केवल कहने से नहीं होगा कि 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है', ऐसा हमें करके दिखाना होगा। तभी इस आंदोलन की सार्थकता साबित होगी और तभी ये आंदोलन जन-मानस को भी भागीदार बना पाएगा। अच्छी हिंदी और उसके उपमाओं का प्रयोग करते हुए पूछना चाहता हूं क्या यज्ञ की इस वेदी पर हम अपनी आहुति देने के लिए तैयार हैं ?

7 टिप्‍पणियां:

sushant jha ने कहा…

grt article...!

shyamanand choudhary ने कहा…

bahut sunder lekhan hai.hum sabhi ANNA ke sath hain.Akhir kab tak hum chupchap baithe kisi Avtar ya Chamtkar ki pratiksha karte rahenge? sabhi ko apna apna dayitwa samjhana parega aur BHRASTRACHAR ke khilaf apna shankhnad kar.....lambi ladai larna hogi.

shyamanand choudhary ने कहा…

kahan gayee meri tippany?.....Hum sabANNA kesath hain.akhir kab tak kisi Awatar ya Chamtkar ki pratiksha hogi? hum sab ko apna apna shankhnad kar BHRASHTRACHAR ke ees Mahabharat me Anna ka sath dena hi hoga....ladai lambi hogi..matra 18 din me hi samapan ho..yah jaruri nahi....Taiyyar ho jaeeye.. awaj dijeeye mukabla jari hai...

shyamanand choudhary ने कहा…

MERE SINE ME NA SAHI............ TERE SINE ME SAHI HO KANHI BHI AAG, ...........LEKIN AAG JALANI CHAHIYE hahiye.

shyamanand choudhary ने कहा…

WAITING FFFOR GODOT?NO COME, JOIN, INTROSPECT,FIGHT NOT ONLY CORRUPTION BUTALL EVILS OF HUMANITY

विवेक ध्यानी ने कहा…

बहुत खूब भाईसाहब

विवेक ध्यानी

Sanjeev ने कहा…

अमितजी, बहुत अच्छा और पूरी मासूमियत से लिखा आपने . कई प्रश्न पटल पे रखे आन्दोलन के विषय में, पर हजारे जी एक आगाज़ लाये इस लिए आप साथ हैं अच्छा लगा. मैं हजारे जी के साथ नहीं हूँ क्योंकी मैं उनके साथ के जमघट को आदर नहीं दे पा रहा हूँ. फिर मैं इस लिए भी उनका विरोध करूँगा की वो अचानक मंचासित हुए जंतर मंतर पे ,अब तक कहाँ थे? और ये सब कर के कानून सड़को पे बना लेने की तरकीब प्रचलित कर के भाई , संविधान की तो वाट लगा दे रहे हैं ना.!. कुछ नेता या बहुत से नेता , भ्रष्ट हैं ये तो मानते हैं,पर इस लिए गली मोहल्ले में संसद का काम होगा ये तो न्याय संगत नहीं. फिर उनका नाम ले के करोड़ पति बाबा सन्यासी भी टीवी के सामने दूध नहा रहे हैं बहती श्वेत गंगा में. टीवी चैनल तो बता रहे हैं जैसे सारा दिल्ली सिर्फ सड़कों पे मोमबत्तियां जलाने में व्यस्त है. मैं कई जगह जाता हूँ . सब ओर लोग दिन चर्या में व्यस्त हैं IPL में नज़र रखे हैं ना की हजारे जी पे. इस आन्दोलन में विषय वस्तु सार्थक और गहन है पर एक बड़ी मंच के नुक्कड़ नाटक से ऊपर उठाने में समय लगेगा. मैं अनुशासन हीन कई टुकड़ो में बटे देश से अधिक एकजुट राष्ट्र चाहता हूँ जो अभी युवा है और अपना रास्ता सहजता से धीरे धीरे खोज रहा है जल्द बाजी में बुरी संगत में गिर नहीं रहा . अराजकता , नुक्कड़ न्याय कितना भी तर्क संगत लगे मुझे नहीं चाहिए. मैं अन्ना के साथ नहीं हूँ . अतीव वामपंथी मंच पे हजारे जी के साथ टीवी पे दीख रहे हैं, मैं देश के भविष्य से बहुत डरने लगा हूँ . मैं हजारे जी के साथ नहीं हूँ .